: कई प्रदेशों में अब भी हो रहे हैं बाल-विवाह : भारतीयों में बड़ी ही विचित्र धारणा व्याप्त है कि कन्यादान से पिता को पुण्य मिलता है और अविवाहित कन्या के पिता को पाप लगता है। लोगों का मानना है कि रजस्वला कन्या का दान नहीं करना चाहिये, क्योंकि अविवाहित कन्या का हर ऋतुकाल कन्या के पिता को भ्रूण हत्या का पाप देता है। सच कहा जाये तो बाल विवाह की समस्या रूढ़िवादी विचारधारा तथा सामाजिक और आर्थिक अवनति के कारण है। इस का प्रचलन सबसे जादा राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और प.बंगाल में आज भी है। कानूनी तौर पर विवाह की न्यूनतम आयु महिलाओं के लिए 18 वर्ष और पुरुषों के लिए 21 वर्ष है तो फिर बाल विवाह के मामले में 15 वर्ष की पत्नी का उल्लेख होना क्या विरोधाभास नहीं है?
'पुरुष का अपनी पत्नी के साथ मैथुन बाल विवाह नहीं है, जब पत्नी पन्द्रह वर्ष से कम आयु की नहीं है।' पन्द्रह वर्ष की पत्नी ? शादी की न्यूनतम उम्र से ये विरोधाभास नहीं है? लेकिन आज भी भारत के कई राज्यों में यह सच्चाई विरोधाभास के साथ मौजूद है। भारत में बाल विवाह पर प्रतिबंध प्रतिषेध अधिनियम 1920 में ही लागू हो गया था। किन्तु उस के अंतर्गत विवाह के लिए न्यूनतम आयु पुरुष हेतु 18 वर्ष और स्त्री के लिए 16 वर्ष निर्धारित की गई क्या यह बात विरोधभास नहीं। इस कानून में शुरू से ही बहुत सी खामियां थी और इस कानून का सख्ती से पालन भी नहीं हुआ। इस कानून का उपयोग आमतौर पर शिकायत दर्ज होने पर ही किया जाता था। जिसके कारण बाल-विवाह नामक कुरीति पर कोई बड़ा विपरीत प्रभाव नहीं पड़ सका, इसी कारण यह कुरीति समाज में आज भी व्याप्त है।
बाल-विवाह का जितना उन्मूलन हो सका है वह देश की बदलती हुई सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण हो सका है। कानून ने बस थोड़ी सी सहायता की है। इस कानून में पहले से ही इतनी खमियां थी। इस कानून में कोई ऐसा प्रावधान नहीं था जिसके कारण बाल-विवाह को अवैध घोषित कर दिया जाता। फलस्वरूप देश में बाल विवाह होते रहे। जिसके कारण 2006 तक 15 वर्ष से कम आयु की पत्नियां भी देश में मौजूद रहीं और आज भी मौजूद हैं।
इस कानून में बहुत सी खामियां होने के कारण 2006 में इसमें कुछ सुधार किया गया। जिसके बाद बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम-2006 बनाया गया है, जो 10 जनवरी, 2007 से प्रभावी व कारगर हुआ और 1920 के कानून को इस कानून द्वारा निरस्त कर दिया गया। इस कानून में विवाह के लिए आवश्यक न्यूनतम आयु पुरुष के लिए 21 वर्ष तथा स्त्री के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई है, इससे कम आयु के स्त्री-पुरुषों को बालिका व बालक माना गया है। इस कानून में पहली बार किसी बाल विवाह को शून्य घोषित किए जाने का प्रावधान किया गया है। जिसके अनुसार विवाह का वह पक्षकार जो कि विवाह के समय बालक था, अब अपने विवाह को शून्य घोषित कराने के लिए अदालत में अर्जी प्रस्तुत कर सकता है। यदि वह ऐसी अर्जी प्रस्तुत करने के समय भी बालक है तो अपने संरक्षक के माध्यम से यह अर्जी प्रस्तुत कर सकता है। लेकिन ऐसी अर्जी विवाह के समय बालक या बालिका रहे पक्षकार द्वारा वयस्क होने की तिथि के दो वर्ष के भीतर ही प्रस्तुत की जा सकती है।
यदि आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो 1921 की जनगणना के अनुसार उस वक़्त एक वर्ष से कम उम्र की विधवाओं की संख्या 612, पांच वर्ष से कम उम्र की विधवाओं की संख्या 2024 तथा 10 वर्ष से कम उम्र की विधवाओं की संख्या 97857 और 15 वर्ष से कम उम्र की विधवाओं की संख्या 332024 थी, परन्तु सामाजिक बंधनों के कारण इनमें से अधिकतर लड़कियां पुनर्विवाह नहीं कर सकीं। आप सोच रहे होंगे कि जब यह कानून पूरी तरह लागू हो चुका है, तब भी 15 वर्ष आयु की पत्नी का अस्तित्व इस देश में कैसे संभव है?
आज भी भारत के में कई प्रदेशों में ऐसे बाल विवाह कानून की आंखों में धूल झोंक कर निरंतर हो रहे हैं और शायद होते रहे हैं। इस तरह के बाल विवाह पूरी तरह से प्रतिबंधित हो जाने चाहिए। भारतीय अधिनियम के अनुसार ऐसे कानून क्यों नहीं बनाए जाते हैं कि किसी भी बाल विवाह को अवैधानिक विवाह ही घोषित कर दिया जाए। विवाह के होते ही पति-पत्नी के एक दूसरे के प्रति दायित्व आरंभ हो जाते हैं और कर्तव्य भी। इसी तरह विवाह के पहले दिन से ही कोई भी स्त्री गर्भवती हो सकती है। तब गर्भ में पल रहे बालक की वैधानिकता का प्रश्न भी उपस्थित होगा और उस के पालन पोषण का भी। इस तरह की अनेक जटिल परिस्थितियों का कोई समाधान कानून की पुस्तक में उपलब्ध ही नहीं होगा। इस कारण से किसी भी बाल विवाह को शून्य घोषित करने का प्रावधान तो हो सकता है लेकिन उसे प्रारंभ से ही शून्य माने जाने का प्रावधान बनाया जाना बहुत बड़ी त्रुटि होगी।
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