30.12.11

देखना, कोई औरत भगवान को छू न दे


देखना, कोई औरत भगवान को छू न दे

मार्केट से लौटते वक्त उस मंदिर के आगे रोज मेरे पांव ठिठक जाते हैं। औरतें दीवानों की तरह भीड़ लगाकर वहां खड़ी होती हैं। सूट वालियां भी, साड़ी वालियां भी और जींस वालियां भी। सब के सब एकता कपूर के सीरियल से सीधे भागकर आए हुए से। इतने रिलीजस लोग या तो उन सीरियलों में देख लो, या फिर उस मंदिर के आगे। कल आखिर मैंने झांक कर देख ही लिया कि आखिर कौन से भगवान का निवास है वहां। देखा तो बिल्कुल उस ऐड की तरह शॉक लगा, शॉक लगा, शॉक लगा। और एकदम सीरियल वाले स्टाइल दिल में एको हुआ - नहींईईईई.... ये क्या? अभी तक तो सिर्फ हनुमान जी के बारे में सुना था। शनिदेव तुम भी? यू टू? भेजा घूमा था, वहां लगे बोर्ड की वजह से। आप खुद ही पढि़ए - लिखा है महिलाएं दूर से ही दर्शन करें, मूर्ति को हाथ न लगाएं। (ओ तेरा भला हो)
 
हनुमान जी ब्रह्मचारी देवता हैं। औरतों से दूर ही रहते हैं, ये तो पता था। अजी, पता क्या था एक दिन एक मंदिर में जाकर पुजारी जी ने फेस-टु-फेस बोल ही दिया। बच्चे को लेकर कनॉट प्लेस वाले हनुमान मंदिर जाने की जिद थी ममी जी की, तो चल दिए आशीर्वाद लेने। पुजारी जी ने बच्चा गोद में लिया, एक सेकंड को रुके और ठां करके पूछ डाला - लड़की तो नहीं? हमने फौरन कोरस में पूरे कॉन्फिडेंस से कहा - नहीं नहीं, लड़का है, लड़का है। पुजारी जी ने राहत वाली स्माइल दी और बच्चे को लेकर चल दिए दर्शन कराने।

एनीवे, उस दिन हनुमान जी के बारे में सॉलिड ज्ञान मिला था कि वह कितना सीरियसली फीमेल्स से दूर रहते हैं। लेकिन शनि देव आप भी। आपसे तो मुझे सिम्पथी थी। आपके ओवर एस्टिमेटिड खौफ की वजह से। साढ़ेसाती और उसका बुरा असर एंड ऑल दैट स्टफ। मगर आपने भी औरतों को इनफीरियर ही समझा है। इसका रिलीजस कारण क्या है, मैं उसमें पडऩा नहीं चाहती पर मुझे इनफीरियॉरिटी का अहसास हुआ।

पर आप कुछ जानते भी हो शनिदेव? और आप भी सुनो हनुमान जी... जिन औरतों से आप देवता लोग दूर भागते हो, वही तो आपकी असली फॉलोअर हैं, वही तुम्हारी टीआरपी बढ़ाती हैं और वही असली व्यूअरशिप देती हैं। क्योंकि पुरुष तो खुद देवता होता है (नो ऑफेंस, लेकिन होता तो है ही, पतिदेव कहते तो हैं कुछ लोग, और वो करवा चौथ के दिन तो देवत्व अपने पीक पर होता है, हालांकि उनकी टीआरपी भी लेडीज ही बढ़ाती हैं)। इन पुरुषों का बस चले तो आपको जीरो व्यूअरशिप वाला कोई टीवी प्रोग्राम बनाकर रख छोड़ें। यकीन नहीं तो पूछ लो किसी भी ऐवरेज पुरुष से। धर्म और भगवान के नाम पर लड़ाई तो कर लेंगे, लेकिन पत्नी और परिवार व्रता तुलसी टाइप बीवी जब ऑफिस से शाम को जल्दी घर आने को कहती है कि हवन रखा है और तुम्हें पूजा में बैठना है तो इन्हीं से पूछो इनके दिल पर कितनी छुरियां चलती हैं।

या फिर आप इनसे पूछो कि इनमें से कितने पर्सेंट पुरुष आपके या दूसरे किसी भगवान का व्रत रखकर रोज सुबह घंटी और शंख बजाते हैं। सर्वे करवाओ, पता लगाओ, कंपेयर करो। अरे व्रत तो छोड़ो, घर में टाइम पर खाना न मिले तो राजेश खन्ना से अमरीश पुरी के कैरक्टर में घुसने में दो मिनट से ज्यादा नहीं लगते इन्हें। और अगर तुम्हें फैक्ट्स नहीं मालूम तो लेडीज़ को ऐसे पोस्टर चिपकाकर इनफीरियर होने का अहसास क्यों कराते हो भगवान जी।

सोचो, मेरी मौसी को कैसा लगा होगा उस दिन। मौसी मेरी एकदम भक्तन हैं। घर में बाथरूम से बड़ा तो मंदिर बनवाया है। हर हफ्ते भगवान की एक नई मूर्ति मुंहमांगे दाम चुकाकर लाती हैं। एक बार गांव जाकर बडे मंदिर में बड़ी-सी मूर्ति स्थापित करने की ठान ली। शायद बल्लभगढ़ से लाई थीं देवी माता की संगमरमर की मूर्ति 50 हजार में। पूरे तामझाम के साथ अपने ससुराल पहुंचीं, भंडारा लगाया, गांववालों के लिए भोज प्लान किया। मंदिर में मूर्ति पहुंचाई। पुजारी जी और घर के सभी पुरुष मंदिर पहुंचे, मगर अरे ये क्या मौसी जी, आप कहां घुस रही हैं मंदिर के अंदर? बाहर ही रुकिए,  पढ़ी-लिखी लगती हैं, इसीलिए नहीं मालूम कि देवी माता की मूर्ति स्थापना के वक्त लेडीज़ नॉट अलाउड। (पता नहीं, अब ये कौन से कोर्स में पढ़ाया जाता है, जो पुजारी जी ने उन्हें पढ़ा-लिखा गंवार बताया)। एनीवे, आप तो बस ये सोचो कि कैसा वाला शॉक लगा होगा मौसी जी को, वही ऐड वाला जिसमें सबके बाल 90 डिग्री में खड़े हो जाते हैं।

इतना गुस्सा क्यों, वाय, काइकू गॉड? अरे, ये तो समझो कि ये औरतें आपसे कितना प्यार करती हैं। और वैसे भी गुस्सा तो राक्षसों का गहना होता है, तो टेक अ चिल पिल गॉड।

29.12.11

एक वर्ष ने और विदा ली एक वर्ष आया फिर द्वार।

एक वर्ष ने और विदा ली
एक वर्ष आया फिर द्वार।
गए वर्ष को अंक लगाकर
नए वर्ष की कर मनुहार।आता है कुछ लेकर प्रतिदिन
जाता है कुछ देकर बोध।
मैं बैठा चुपचाप देखता
पनप रही पल-पल की पौध।
जाने क्या पाया जीवन ने
क्या खोया कर ले तू याद।
सोचा जितनी बार हुआ है
भीतर ही भीतर अवसाद।जीत रहा हूँ मैं जीवन को
अथवा हार रहा हर बार।
गए वर्ष को अंक लगाकर
नए वर्ष की कर मनुहार।नए वर्ष की जन्मकंुडलीऋ
सारभूत हैं भाव विभाव।
लग्नराशि संलग्न स्नेह से
ग्रहगण के मन में है चाव।
मुखमंडल पर दीप्त प्रभासित
सूर्य रश्मियों का तप तेज।
अंतर्मन में चंद्र विमोहन
प्रीति प्रेम को रहा सहेज।बाँच रहा हूँ भाग्य भवन को
जिससे आगत का उपहार।
गए वर्ष को अंक लगाकर
नए वर्ष की कर मनुहार।

21.12.11

भारत देश की मांओं और बहनों के नाम एक अपील


मेरी बहनों/मांओं ! क्या नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, शहीद भगत सिंह आदि किसी के भाई और बेटे नहीं थें ?
क्या भारत देश में देश पर कुर्बान होने वाले लड़के/लड़कियाँ मांओं ने पैदा करने बंद कर दिए हैं ? जो भविष्य में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और झाँसी की रानी आदि बन सकें. अगर पैदा किये है तब उन्हें कहाँ अपने आँचल की छाँव में छुपाए बैठी हो ? 
उन्हें निकालो ! अपने आँचल की छाँव से भारत देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करके देश को "सोने की चिड़िया" बनाकर "रामराज्य" लाने के लिए देश को आज उनकी जरूरत है.  मौत एक अटल सत्य है. इसका डर निकालकर भारत देश के प्रति अपना प्रेम और ईमानदारी दिखाए. क्या तुमने देश पर कुर्बान होने के लिए बेटे/बेटियां पैदा नहीं की. अपने स्वार्थ के लिए पैदा किये है. क्या तुमको मौत से डर लगता है कि कहीं मेरे बेटे/बेटी को कुछ हो गया तो मेरी कोख सूनी हो जायेगी और फिर मुझे रोटी कौन खिलाएगा. क्या नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि की मांओं की कोख सूनी नहीं हुई, उन्हें आज तक कौन रोटी खिलता है ? क्या उनकी मांएं स्वार्थी थी ?
पूरा लेख यहाँ पर क्लिक करके पढ़ें : भारत देश की मांओं और बहनों के नाम एक अपील

18.12.11

क्या लड़की केवल प्रेम-प्रसंग के लिए ही रह गई है


जब लोग महिला दिवस पर नारी अधिकारों को लेकर भाषण दे रहे थे और समानता का ढंका पीटा जा रहा था उसी समय एक सिरफिरे आशिक ने डीयू के रामलाल आनंद कॉलेज की स्टूडेंट राधिका तंवर की हत्या कर दी. खैर क्योंकि मामला देश की राजधानी का था, ऐसे में मीडिया की सुर्खियों में छाया रहा और आखिरकार मुंबई से राधिका के कातिल को पकड़ लिया गया. सच्चाई अब लोगो के सामने है कि किस तरह विजय उर्फ राम सिंह कई सालों से राधिका को तंग करता आ रहा था, उसे लेकर ओवर पजेसिव भी था. यह कोई पहला मामला नहीं है जब किसी लड़की ने किसी सरफिरे के प्रपोजल को नकार दिया और इसकी कीमत उसे जान देकर चुकानी पड़ी हो. महत्वपूर्ण बात यह है कि जब भी किसी लड़की से जुड़ा मामला सामने आता है तो दूसरे कारणों को देखने की बजाय पुलिस और यहां तक कि मीडिया भी प्रेम-प्रसंग की जलेबी छानने के लिए तैयार दिखता है. कुछ साल पहले की बात है. मेरे होम टाउन में मुझे एक महिला मिली जिसकी आठ साल की बच्ची लापता हो गई थी. मजदूर महिला और उसके पति का रो-रोकर बुरा हाल था. थाने में महिला ने अपनी आपबीती बताई कि उसकी आठ साल की बच्ची को खोजने के लिए पुलिस कोई काम नहीं कर रही है. हमसे उल्टे-सीधे सवाल किए जाते हैं. पुलिसवालों का कहना है कि मेरी बेटी का किसी से चक्कर रहा होगा, भाग गई होगी उसके साथ.
ऐसा अक्सर होता है. फिर चाहे वह रेप का मामला हो, अपहरण या हत्या का….अगर मामला लड़की से जुड़ा है तो यह मान लिया जाता है कि प्रेम प्रसंग का ही होगा. कुछ साल पहले यूपी में नौ साल की बच्ची के साथ रेप और उसके बाद हत्या की घटना को दबाने के लिए पुलिस ने यहां तक कह दिया कि नौ साल की यह बच्ची प्रेग्नेंट थी. मामला स्कूल एडमिनिस्टे्रशन से जुड़ा था. लड़की की मां ने न्याय की लड़ाई लड़ी और आखिरकार दोषी को सजा दिला दी. अगर लड़की है तो क्या उसके पास प्रेम-प्रसंग के अलावा और कोई काम ही नहीं रह गया है? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जो अक्सर हमारे मन में घूमते हैं. लड़की का अगर किसी ने अपहरण कर लिया है तो पुलिस प्रेम-प्रसंग का मामला मानकर ही तहकीकात करती है, महिला की हत्या हो गई हो तो मामला अवैध संबंध तक पहुंच जाता है. अपराध अगर किसी लड़के से जुड़ा हो तो दूसरे प्वाइंट्स पर भी जांच शुरु होती है, जबकि लड़की से जुड़े मामले को केवल प्रेम-प्रसंग से ही जोड़कर देखा जाता है. फिर चाहे वह आठ साल की बच्ची ही क्यों न हो.
दिनेश पारीक 

दोस्तों की संख्या में विश्वास करते हो या उनकी गुणवत्ता पर ?

दोस्तों, आप दोस्तों की संख्या में विश्वास करते हो या उनकी गुणवत्ता पर ? दोस्तों, पिछले दिनों फेसबुक के मेरे एक मित्र ने एक अपने मित्र की दोस्ती का निवेदन स्वीकार करने के लिए कहा. तब मैंने कहा उनकी प्रोफाइल का अवलोकन करने के लिए कहा. तब उस मित्र का कहना था कि-इतना घंमड ठीक नहीं है. हमने जवाब दिया-दोस्त! आपको अपने विचारों की अभिव्यक्ति की पूरी स्वतन्त्रता है. अपशब्दों को छोड़कर जैसे मर्जी अपने विचार व्यक्त करें. आपको जवाब जरुर मिलेगा. वैसे मैं ऐसा इसलिए करता हूँ सुरक्षा* कारणों के चलते ही प्रोफाइल का अवलोकन करता हूँ. मुझे नहीं पता आपकी नजरों में मेरा यह घंमड या कुछ और है. लेकिन यह मेरा देश और समाज के प्रति सभ्य व्यवहार की परिभाषा है.
*सुरक्षा- जहाँ तक सुरक्षा की बात कई विकृत मानसिकता के व्यक्तियों की प्रोफाइल में अश्लील फोटो व वीडियों होते है, जिनका प्रयोग खासतौर अपने या मेरे लड़कियों या महिलाओं की प्रोफाइल पर डाल कर करते हैं. दोस्तों अगर आपको कभी भी मेरी प्रोफाइल में इसे दोस्तों की जानकारी हो तो मुझे अपनी प्रोफाइल में दिए ईमेल, फ़ोन या एड्रेस पर पत्र द्वारा सूचित करके दोस्ती के पवित्र रिश्ते को कायम करें. अभी कल ही मैंने फेसबुक और ऑरकुट की अपनी दोस्त एक महिला और एक लड़की की "वाल" पर उसके दोस्त द्वारा डाली आपत्तिजनक फोटो देखी. मगर में उनको यह सूचना उनके द्वारा दी प्रोफाइल में जानकारी के अभाव में देने में असमर्थ रहा. लेकिन शुक्र था कि-वो विकृत मानसिकता का व्यक्ति मेरा दोस्त नहीं था.
अब सुरक्षा का एक दूसरा नमूना भी देखें-एक दोस्त कहूँ या व्यक्ति को लिखे शब्दों में कठोरता है पर सभ्य भाषा का प्रयोग किया है.


ई बुक के रूप में प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध द्वारा किया गया श्रीमद्भगवत गीता का हिन्दी पद्यानुवाद उपहार स्वरूप आपको और पाठको को समर्पित है !!

ई बुक के रूप में प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध द्वारा किया गया श्रीमद्भगवत गीता का हिन्दी पद्यानुवाद उपहार स्वरूप आपको और पाठको को समर्पित है !!

17.12.11

अभिव्यक्ति के नाम पर भड़ास की छूट दे दी जाए?

इन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लगाम कसे जाने की खबर पर हंगामा मचा हुआ है। खासकर बुद्धिजीवियों में अंतहीन बहस छिड़ी हुई है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की दुहाई देते हुए जहां कई लोग इसे संविधान की मूल भावना के विपरीत और तानाशाही की संज्ञा दे रहे हैं, वहीं कुछ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने चाहे जिस का चरित्र हनन करने और अश्लीलता की हदें पार किए जाने पर नियंत्रण पर जोर दे रहे हैं।
यह सर्वविदित ही है कि इन दिनों हमारे देश में इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बढ़ रहा है। आम तौर पर प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर जो सामग्री प्रतिबंधित है अथवा शिष्टाचार के नाते नहीं दिखाई जाती, वह इन साइट्स पर धड़ल्ले से उजागर हो रही है। किसी भी प्रकार का नियंत्रण न होने के कारण जायज-नाजायज आईडी के जरिए जिसके मन जो कुछ आता है, वह इन साइट्स पर जारी कर अपनी कुंठा शांत कर रहा है। अश्लील चित्र और वीडियो तो चलन में हैं ही, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली सामग्री भी पसरती जा रही है। राजनीति और नेताओं के प्रति उपजती नफरत के चलते सोनिया गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह सहित अनेक नेताओं के बारे में शिष्टाचार की सारी सीमाएं पार करने वाली टिप्पणियां और चित्र भी धड़ल्ले से डाले जा रहे हैं। प्रतिस्पद्र्धात्मक छींटाकशी का शौक इस कदर बढ़ गया है कि कुछ लोग अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के बारे में भी टिप्पणियां करने से नहीं चूक रहे। ऐसे में केन्द्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने जैसे ही यह कहा कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रहा है तो बवाल हो गया। इसे तुरंत इसी अर्थ में लिया गया कि वे सोनिया व मनमोहन सिंह के बारे में आपत्तिजनक सामग्री हटाने के मकसद से ऐसा कर रहे हैं। एक न्यूज चैनल ने तो बाकायदा न्यूज फ्लैश में इसे ही हाइलाइट करना शुरू कर दिया, हालांकि दो मिनट बाद ही उसने संशोधन किया कि सिब्बल ने दोनों का नाम लेकर आपत्तिजनक सामग्री हटाने की बात नहीं कही है।
बहरहाल, सिब्बल के इस कदम की देशभर में आलोचना शुरू हो गई। बुद्धिजीवी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के रूप में परिभाषित करने लगे, वहीं मौके का फायदा उठा कर विपक्ष ने इसे आपातकाल का आगाज बताना शुरू कर दिया। हालांकि सिब्बल ने स्पष्ट किया कि सरकार का मीडिया पर सेंसर लगाने का कोई इरादा नहीं है। सरकार ने ऐसी वेबसाइट्स से संबंधित सभी पक्षों से बातचीत की है और उनसे इस तरह की सामग्री पर काबू पाने के लिए अपने पर खुद निगरानी रखने का अनुरोध किया, लेकिन सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स के संचालकों ने इस बारे में कोई ठोस जवाब नहीं दिया। उनका तर्क ये था कि साइट्स के यूजर्स के इतने अधिक हैं कि ऐसी सामग्री को हटाना बेहद मुश्किल काम है। अलबत्ता ये आश्वासन जरूर दिया कि जानकारी में आते ही आपत्तिजनक सामग्री को हटा दिया जाएगा।
जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, मोटे तौर पर यह सही है कि ऐसे नियंत्रण से लोकतंत्र प्रभावित होगा। इसकी आड़ में सरकार अपने खिलाफ चला जा रहे अभियान को कुचलने की कोशिश कर सकती है, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने यह हैं कि फेसबुक, ट्विटर, गूगल, याहू और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं, विचारों और व्यक्तिगत भावना से खेलने तथा अश्लील तस्वीरें पोस्ट करने की छूट दे दी जाए? व्यक्ति विशेष के प्रति अमर्यादित टिप्पणियां और अश्लील फोटो जारी करने दिए जाएं? किसी के खिलाफ भड़ास निकालने की खुली आजादी दे दी जाए? सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों जो कुछ हो रहा है, क्या उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वीकार कर लिया जाये?
चूंकि ऐसी स्वच्छंदता पर काबू पाने का काम सरकार के ही जिम्मे है, इस कारण जैसे ही नियंत्रण की बात आई, उसने राजनीतिक लबादा ओढ लिया। राजनीतिक दृष्टिकोण से हट कर भी बात करें तो यह सवाल तो उठता ही है कि क्या हमारा सामाजिक परिवेश और संस्कृति ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आ रही अपसंस्कृति को स्वीकार करने को राजी है? माना कि इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग के फैलते जाल में दुनिया सिमटती जा रही है और इसके अनेक फायदे भी हैं, मगर यह भी कम सच नहीं है कि इसका नशा बच्चे, बूढ़े और खासकर युवाओं के ऊपर इस कदर चढ़ चुका है कि वह मर्यादाओं की सीमाएं लांघने लगा है। अश्लीलता व अपराध का बढ़ता मायाजाल अपसंस्कृति को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। जवान तो क्या, बूढ़े भी पोर्न मसाले के दीवाने होने लगे हैं। इतना ही नहीं फर्जी आर्थिक आकर्षण के जरिए धोखाधड़ी का गोरखधंधा भी खूब फल-फूल रहा है। साइबर क्राइम होने की खबरें हम आए दिन देख-सुन रहे हैं। जिन देशों के लोग इंटरनेट का उपयोग अरसे से कर रहे हैं, वे तो अलबत्ता सावधान हैं, मगर हम भारतीय मानसिक रूप से इतने सशक्त नहीं हैं। ऐसे में हमें सतर्क रहना होगा। सोशल नेटवर्किंग की  सकारात्मकता के बीच ज्यादा प्रतिशत में बढ़ रही नकारात्मकता से कैसे निपटा जाए, इस पर गौर करना होगा।
-tejwanig@gmail.com

11.12.11

चोरोंसे मंदिरोंकी रक्षा न कर सकनेवाले हिंदुओंकी रक्षा देवता क्यों करें ?

चोरोंसे मंदिरोंकी रक्षा न कर सकनेवाले हिंदुओंकी रक्षा देवता क्यों करें ?

महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवाके पश्चात् अब उत्तरप्रदेशमें भी हिंदुओंके मंदिरोंमें चोरियां होने लगी हैं । ऐसी घटनाएं कभी गिरिजाघर अथवा मस्जिदमें नहीं होतीं ! हिंदुओंके असंगठित और मृतवत् होनेके कारण ही पुलिस निष्क्रिय रहते हैं और ऐसी घटनाएं होती ही रहती हैं ! ये सर्व घटनाएं देखनेपर स्पष्ट होता है कि, सर्व दलोंके शासक हिंदुओंकी धार्मिक भावनाओंके प्रति कितने उदासीन हैं । हिंदुओ, यह स्थिति सुधारनेके लिए संगठित हों और धर्मरक्षण कर ईश्वरीय कृपाके पात्र बनें ! - संपादक

भदोही (उत्तरप्रदेश) के राधाकृष्ण मंदिरमें १६ कोटि रुपए मूल्यकी मूर्ति चोरी

भदोही (उत्तरप्रदेश) - गोपालगंज क्षेत्रमें लगभग २०० वर्ष पूर्वके राधाकृष्ण मंदिरसे दस इंच ऊंची और आठ किलोकी मूर्तिकी चोरी हुई । अंतर्राष्ट्रीय बाजारमें लगभग १६ कोटि रुपए मूल्यकी अष्टधातुकी तीन मूर्तियां चुराई जानेसे खलबली मच गई है । लगभग १५ दिनपूर्व अज्ञात लोगोंने दानपेटी चुराई थी । तत्पश्चात् मूर्ति चोरीकी यह दूसरी घटना हुई ।
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कर्नाटकमें दो मंदिरोंमें लाखों रुपयोंकी चोरी
वेंâजरू (कर्नाटक) - कर्नाटक राज्यके दक्षिण कन्नड जनपदमें स्थित वेंâजरू और बजपेके दो मंदिरोंमें ८ जनवरीको अज्ञात हिंदुद्वेषियोंने चोरी की । वेंâजरू स्थित मंदिरमें चोरोंने मल-मूत्र विसर्जन किया । इस घटनाके कुछ ही क्षणोंके पश्चात् पुलिस अधिकारी और मंदिरके न्यासियोंके भ्रमणभाषयंत्र (मोबाइल)पर विदेशसे अज्ञात लोगोंने छूटे कॉल (मिस्सड कॉल) भेजे । बजपे गांवमें भी मंदिरकी मूर्तिका भंजन किया गया ।
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तुमकूर (कर्नाटक) स्थित कोप्पूरू मठमें आभूषणोंकी चोरी
तुमकूर (कर्नाटक) - तुमकूर जिलेके चिक्कनायकनहल्ली तहसीलके सुप्रसिद्ध क्षेत्र कोप्पूरू श्री मरुळ सिद्धेश्वर मठके मंदिरोंसे १५ किलोग्र्राम चांदीके आभूषण और दानपेटी चोरोंने लूटी ।
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गोवामें श्री भुईपाल रवळनाथ मंदिरकी दानपेटी तोडकर १५ सहस्र रुपयोंकी चोरी
वाळपई (गोवा) - राज्यके मंदिरोंमें बढ रही चोरियां रोकनेमें शासन एवं पुलिसकी निष्क्रियता एकबार पुनः सिद्ध हुई है । उत्तर गोवामें वाळपईके श्री भुईपाल रवळनाथ मंदिरमें ३१ दिसंबरकी रात्रिमें चोरी हुई । मंदिरकी दानपेटी तोडकर १५ सहस्र रुपए चुरा लिए गए ।
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माजगांव (सिंधुदुर्ग, महाराष्ट्र ) के दत्त मंदिरमें दिनदहाडे चोरी !
सावंतवाडी (सिंधुदुर्ग, महाराष्ट्र) - सावंतवाडी तहसीलके माजगांवमें दत्त मंदिरकी दानपेटीको तोडकर दिनदहाडे उसमें रखा धन चुराए जानेकी घटना २९ दिसंबरको हुई ।
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नाशिकमें श्री कालिकादेवीके मंदिरमें हीरोंका हार एवं कर्णफूलकी चोरी
नाशिक (महाराष्ट्र) - यहांके सुप्रसिद्ध श्री कालिका देवीके मंदिरमें श्री सरस्वती, श्री लक्ष्मी तथा श्री कालिका देवीकी मूर्तियां हैं । चोरोंने इन तीनों देवियोंकी मूर्तिपर चढे हुए मंगलोरी हीरेके हार एवं कर्णफूल चुराए ।
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बांग्लादेशके ढाकेश्वरी मंदिरमें करोडोंके आभूषणोंकी चोरी
ढाका (बांग्लादेश) - यहांके सुप्रसिद्ध ढाकेश्वरी मंदिरसे देवीका २०० तोलेका आभूषण चोरी हो गया ।
(बांग्लादेशके इस मंदिरसे किसने चोरी की होगी, यह कहनेकी आवश्यकता नहीं । भारतमें अनेक स्थानोंपर हो रहे मूर्तिभंजन और मंदिरोंसे चोरियोंके विषयमें कुछ न करनेवाला वेंâद्रशासन बांग्लादेशके मंदिरोंमें चोरी होनेपर विरोध भी वैâसे व्यक्त करेगा ? अब हिंदुओंको ही संगठित होकर इस विषयमें आवाज उठानी होगी ! - संपादक)
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उडुपी जनपदके ब्रह्मी दुर्गापरमेश्वरी मंदिरमें २० लाख रुपयोंकी चोरी
कुंडापुर (कर्नाटक) - उडुपी जनपदमें स्थित कमलाशीलके प्रसिद्ध एवं प्राचीन दुर्गा परमेश्वरी मंदिरमें अज्ञात चोरोंने २० लाख रुपयोंके आभूषण और पैसे चुराए ।
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गोवाके श्री शांतादुर्गा किटलकरीण मंदिरसे २० लाख रुपए मूल्यके आभूषणोंकी चोरी
मडगांव (गोवा) - फातर्पा गांवमें श्री शांतादुर्गा किटलकरीण मंदिरसे रात्रिमें चोरोंने सोने-चांदीके आभूषण, प्रभामंडल आदि कुल मिलाकर २० लाखसे भी अधिक मूल्यके आभूषण चुराए । गोवामें गत १५ मासमें ६० मंदिरोंमें चोरियां हुई हैं । इनमें एक-दो घटनाओंमें ही आरक्षकोंने चोरोंको पकडा है ।
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सिंधुदुर्ग (महाराष्ट्र) के दो मंदिरोंमें चोरी
वेंगुर्ले (सिंधुदुर्ग ) - यहांके उभादांडा गावमें ऊपरी माडवाडीमें स्थित श्री वाटोबा मंदिर और उसी परिसरमें स्थित मुठ गांवके श्री केपादेवी मंदिरमें अर्पण पेटी तोडकर चोरी की गई । यह घटना दिनमें ही प्रातः ९ से दोपहर २ बजेके मध्य हुई ।
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सोलापुर (महाराष्ट्र) के श्री महालक्ष्मी मंदिरमें चांदीकी चोरी !
माळशिरस (सोलापुर, महाराष्ट्र) - श्री क्षेत्र वीरके श्री महालक्ष्मी मंदिरमें १ लक्ष १५ सहस्र रुपयोंकी चांदीकी चोरी हुई । मंदिरमें रखा ३.५ किलोका चांदीका प्रभामंडल चोर लूट ले गए ।
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रांजणी (पुणे, महाराष्ट्र ) में नरसिंह भगवानकी मूर्तिकी सोनेके नेत्रोंकी चोरी
रांजणी (जनपद पुणे) - पुणेके आंबेगाव तालुकाके श्रीक्षेत्र रांजणीमें नरसिंहके मंदिरमें मूर्तिकी सोनेके नेत्रोंकी चोरी और दानपेटीमेंसे १० सहस्र रुपयोंकी चोरी हुई । २३१ वर्ष प्राचीन नेत्रोंका वजन ५ तोला है ।

8.12.11

खुद के गिरेबां में भी झांके टीम अन्ना

इसमें कोई दोराय नहीं है कि आर्थिक आपाधापी और भ्रष्ट राजनीति के कारण भ्रष्टाचार के तांडव से त्रस्त देशवासियों की टीम अन्ना के प्रति अगाध आस्था और विश्वास उत्पन्न हुआ है और आम आदमी को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं, मगर टीम के कुछ सदस्यों को लेकर उठे विवादों से तनिक चिंता की लकीरें भी खिंच गई हैं। हालांकि कहने को यह बेहद आसान है कि सरकार जवाबी हमले के बतौर टीम अन्ना को बदनाम करने के लिए विवाद उत्पन्न कर रही है, और यह बात आसानी से गले उतर भी रही है, मगर मात्र इतना कह कर टीम अन्ना के लिए बेपरवाह होना नुकसानदेह भी हो सकता है। इसमें महत्वपूर्ण ये नहीं है कि किन्हीं विवादों के कारण टीम अन्ना के सदस्य बदनाम हो रहे हैं, बल्कि ये महत्वपूर्ण है कि विवादों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन प्रभावित हो सकता है। आंदोलन के नेता भले ही अन्ना हजारे हों, मगर यह आंदोलन अन्ना का नहीं, बल्कि जनता का है। यह वो जनता है, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा है और उसे अन्ना जैसा नेता मिल गया है, इस कारण वह उसके साथ जुड़ गई है।
वस्तुत: जब से टीम अन्ना का आंदोलन तेज हुआ है, उसके अनेक सदस्यों को विवादों में उलझाने की कोशिशें हुई हैं। पुराने मामलों को खोद-खोद कर बाहर निकाला जा रहा है। साफ तौर पर यह बदले की भावना से की गई कार्यवाही प्रतीत होती है। लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं है कि टीम अन्ना पर लगे आरोप पूरी तरह से निराधार हैं। जरूर कुछ न कुछ तो बात है ही। अरविंद केजरीवाल के मामले को ही लीजिए। यह सवाल जरूर वाजिब है कि उन पर बकाया की याद कई साल बाद और आंदोलन के वक्त की कैसे आई, मगर यह भी सही है कि केजरीवाल कहीं न कहीं गलत तो थे ही। और यही वजह है कि उन्होंने चाहे अपने मित्रों से ही सही, मगर बकाया चुकाया ही है। इसी प्रकार किरण बेदी पर हो आरोप लगा, वह भी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी का प्रतिफल है, मगर उससे भी कहीं न कहीं ये बात तो उठी ही है कि किरण बेदी ने कुछ तो चूक की ही है, वरना उन्हें राशि लौटने की बात क्यों कहनी पड़ती। प्रशांत भूषण का विवाद तो साफ तौर पर आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ करता है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपना विचार रखने की आजादी है, मगर एक ओर जब पूरा देश टीम अन्ना को आदर्श मान कर आंदोलनरत थी, तब प्रशांत भूषण का कश्मीर के बारे में निजी विचार जाहिर करना बेमानी था ही, टीम अन्ना को मुश्किल में डालने वाला था। जाहिर तौर पर आज यदि प्रशांत भूषण को पूरा देश जान रहा है तो उसकी वजह है टीम अन्ना का आंदोलन, ऐसे में टीम अन्ना के प्रमुख प्रतिनिधि का निजी विचार अनावश्यक रूप से पूरी टीम के लिए दिक्कत का कारण बन गया। उससे भी बड़ी बात ये है कि यदि किसी एक सदस्य के कारण आंदोलन पर थोड़ा भी असर पड़ता है, तो यह ठीक नहीं है। अत: बेहतर ये ही होगा भी वे पूरा ध्यान आंदोलन पर ही केन्द्रित करें, उसे भटकाने वालों को कोई मौका न दें।
वस्तुत: टीम अन्ना के सदस्यों को यह सोचना होगा कि आज वे पूरे देश के एक आइडल के रूप में देखे जा रहे हैं, उनका व्यक्तित्व सार्वजनिक है, तो उन्हें अपनी निजी जीवन को भी पूरी तरह से साफ-सुथरा रखना होगा। लोग उनकी बारीक से बारीक बात पर भी नजर रख रहे हैं, अत: उन्हें अपने आचरण में पूरी सावधानी बरतनी होगी। जब उनका एक नार पूरे देश को आंदोलित कर देता है तो उनकी निजी बात भी चर्चा की विषय हो जाती है। टीम के मुखिया अन्ना हजारे को ही लीजिए। हालांकि वे मूल रूप से अभी जनलोकपाल बिल के लिए आंदोलन कर रहे हैं, मगर उनके प्रति विश्वास इतना अधिक है कि देश के हर ज्वलंत मुद्दे पर उनकी राय जानने को पूरा देश आतुर रहता है। तभी तो जैसे ही केन्द्रीय मंत्री शरद पवार को एक युवक ने थप्पड़ मारा तो रालेगणसिद्धी में मौजूद मीडिया ने उनकी प्रतिक्रिया भी जानने की कोशिश की। बेहतर तो ये होता कि वे इस पर टिप्पणी ही नहीं करते और टिप्पणी करना जरूरी ही लग रहा था तो इस घटना का निंदा भर कर देते, मगर अति उत्साह और कदाचित सरकार के प्रति नाराजगी के भाव के कारण उनके मुंह से यकायक ये निकल गया कि बस एक ही थप्पड़। हालांकि तुरंत बाद उन्होंने बयान को सुधारा, मगर चंद दिन बाद ही फिर पलटे और उसे जायज ठहराने की कोशिश करते हुए नए गांधीवाद की रचना करने लगे। उन्हें ख्याल में रखना चाहिए कि आज यदि वे पूज्य हो गए हैं तो उसकी वजह ये है कि उन्होंने गांधीवाद का सहारा लिया। विचारणीय है कि आज जब अन्ना हजारे एक आदर्श पुरुष और प्रकाश पुंज की तरह से देखे जा रहे हैं तो उनकी हर छोटी से छोटी बात को आम आदमी बड़े गौर से सुनता है। ऐसे में उनका एक-एक वाक्य सधा हुआ होना ही चाहिए। देखिए न, चंद लफ्जों ने कैसे अन्ना को परेशानी में डाल दिया। अव्वल तो उन्हें पहले केवल लोकपाल बिल पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यदि सभी राष्ट्रीय मुद्दों और घटनाओं पर भी अपनी राय थोपने का ठेका लेंगे तो आंदोलन गलत दिशा में भटक सकता है।
बहरहाल, इन सारी बातों के बाद भी जहां तक आंदोलन का सवाल है, वह जिस पवित्र उद्देश्य को लेकर हो रहा है, उसके प्रति जनता पूरी तरह से समर्पित है, मगर टीम अन्ना को अपने व्यक्तिगत आचरण पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। इससे विरोधियों को अनावश्यक रूप से हमले करने का मौका मिलता है। आज पूरा देश यही चाहता है कि आंदोलन कामयाब हो, मगर छोटी-छोटी बातों से अगर आंदोलन प्रभावित होता है तो यह जनता के साथ अन्याय ही कहलाएगा, जिसके सामने एक लंबे अरसे बाद आशा की किरण चमक रही है।

5.12.11

केन्द्र को हिला कर रख दिया मायावती ने

हाल ही उत्तरप्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की बसपा सरकार ने राज्य को चार राज्यों में बांटने का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को हिला कर रख दिया है। हालांकि छोटे राज्यों का मुद्दा पहले भी गरमाता रहा है और उसकी वजह से कुछ राज्यों के टुकड़े भी किए गए हैं, मगर मायावती ने एक राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव पारित करवा एक नया संकट पैदा कर दिया है।
सर्वविदित ही है कि देश में पहले से कुछ राज्यों में विभाजन को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। वहा उग्र और भारी उठापटक वाला आंदोलन चल रहा है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। ऐसे में जाहिर है कि मायावती के इस नए पैंतरे से अन्य प्रांतों में भी यह आग भड़क सकती है। हालांकि जैसे ही प्रस्ताव पारित हुआ तो देशभर के बुद्धिजीवी इसी बहस में उलझ गए कि राज्यों के पुनर्गठन व छोटे राज्यों के क्या लाभ-हानि होते हैं, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि मायावती यह प्रस्ताव पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है।
जहां तक इस मुद्दे के सैद्धांतिक पक्ष की बात है, पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, जो अपनी-अपनी जगह सही ही प्रतीत होते हैं।  छोटे राज्यों की पैरवी करने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य में कानून-व्यवस्था को संभालना बेहद कठिन होता है और सरकारों का ज्यादा समय कानून-व्यवस्था की समस्याओं से जूझने में ही खर्च होता है। और इसकी वजह से सरकारें विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पातीं। उनका तर्क है कि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है, क्योंकि वहां सामान्य कामकाज की समस्याएं कम होती हैं, सभी जिलों पर पकड़ अच्छी होती है, इस कारण विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जा सकता है। दूसरी ओर छोटे राज्यों के खिलाफ राय रखने वालों की मान्यता है कि छोटे राज्यों के सामने सदैव संसाधनों के अभाव की समस्या रहती है। ऐसे में वे या तो अपने निकटवर्ती राज्य से प्रभावित रहते हैं या केन्द्र सरकार के रहमो-करम पर निर्भर। केन्द्र पर निर्भरता के चलते उसकी अपनी स्वायत्तता प्रभावित होती है। ये तो हुई तर्क-वितर्क की बात, मगर धरातल पर जा कर देखें तो निर्णय करने में भारी असमंजस उत्पन्न होता है। यह सर्वविदित ही है कि छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम राजनीतिक अस्थिरता से गुजरते रहते हैं और वे विकास के मामले में पिछड़ते जा रहे हैं। बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की बात करें तो वहां की हालत काफी खराब है। विकास करना तो दूर हर वक्त राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है। इसके ठीक विपरीत मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्यकुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें। उधर गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के ऐसे आयाम छू रहा है, जिसकी देश ही नहीं बल्कि विश्व में भी तारीफ हो रही है। वह एक आदर्श विकास मॉडल के रूप में उभर आया है। 
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर सही क्या है? छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि भौगोलिक स्थिति, संसाधनों और जनभावना को ध्यान में रख कर ही निर्णय किया जाना चाहिए। लेरिक सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। इस मुद्दे को लेकर लगातार राजनीति होती है। राजनीतिक दल अपने-अपने हित के हिसाब से पैंतरे चलते हैं। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने ध्यान तो जनता की मांग का रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनकी पार्टी की सरकार बने। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक है। कांग्रेस व भाजपा सहित अन्य दल जानते हैं कि मायावती के इस पैंतरे से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। वे समझ रहे हैं कि चार राज्य तो होंगे जब होंगे, मगर चंद माह बाद ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में मायावती इसका सीधा-सीधा फायदा उठा सकती हैं। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। हालांकि वे भी छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, मगर मायावती की चाल के आगे निरुतर हो गए हैं। उनके पास ऐतराज करने को सिर्फ ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
इससे भी अहम पहलु ये है कि भले ही राज्यों का पुनर्गठन करना केन्द्र सरकार के हाथ में है, मगर देश की एकता व अखंडता की जिम्मेदारी के नाते मायावती ने उसके सामने एक संकट तो खड़ा कर ही दिया है। पहले से ही अनेक भागों में पनप रहे अलगाववाद को इससे बल मिलने की आशंका है। देखते हैं कि अब केन्द्र इस मामले में क्या रुख अख्तियार करता है।
tejwanig@gmail.com

1.12.11

यह प्यार क्या है ?

ब भी प्यार की बात होती है सब लोग सिर्फ एक लड़की और एक लड़के में होने वाले आकर्षण को ही प्यार मान लेते हैं. परन्तु प्यार वो सुखद अनुभूति है जो किसी को देखे बिना भी हो जाती है. एक बाप प्यार करता है अपनी औलाद से, पति करता है पत्नी से, बहन करती है भाई से, यहाँ कौन ऐसा है जो किसी न किसी से प्यार न करता हो. चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो, प्यार को कुछ सीमित शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता.
प्यार फुलों से पूछो जो अपनी खुशबु को बिखेरकर कुछ पाने की चाह नही करता, प्यार क्या है यह धरती से पूछो जो हम सभी को पनाह और आसरा देती है. इसके बदले में कुछ नही लेती, प्यार क्या है आसमान से पूछो जो हमे अहसास दिलाता है कि -हमारे सिर पर किसी का आशीर्वाद भरा हाथ है. प्यार क्या है सूरज की गर्मी से पूछो. प्यार क्या है प्रकृति के हर कण से पूछो  जवाब मिल जायेगा. प्यार क्या है सिर्फ एक अहसास है जो सबके दिलों में धडकता है. प्यार एक ऐसा अहसास है जिसे शब्दों से बताया नहीं जा सकता, आज पूरी  दुनिया प्यार पर ही जिन्दा है, प्यार न हो तो ये जीवन कुछ भी नहीं है. प्यार को शब्दों मैं परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि अलग- 2 रिश्तों के हिसाब से  प्यार की अलग-2 परिभाषा होती है. प्यार की कोई एक परिभाषा देना बहुत मुश्किल है. यदि आपके पास कोई एक परिभाषा हो तो आप बताओ? पूरा लेख यहाँ पर क्लिक करके पढ़ें सच का सामना: यह प्यार क्या है ?:

राजनीति ज्यादा हो रही है छोटे राज्यों के मुद्दे पर

उत्तरप्रदेश विधानसभा में हाल ही मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की पहल पर बहुजन समाज पार्टी की सरकार द्वारा पारित राज्य को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव पारित किए जाने का मुद्दा इन दिनों गर्माया हुआ है। हालांकि प्रत्यक्षत: तो यही लग रहा है कि राज्यों के पुनर्गठन और छोटे राज्यों के लाभ-हानि को लेकर बहस हो रही है, मगर वस्तुत: इसके पीछे राजनीति कहीं ज्यादा नजर आती है।
छोटे राज्यों के पक्षधर यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था संभालना कठिन काम है और सरकार का अधिकतर समय उस व्यवस्था को कायम रखने में खर्च होता है, इससे विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सकता। जबकि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है। दूसरी ओर इसके विपरीत राय रखने वालों का कहना है कि छोटे राज्य के सामने संसाधनों का अभाव होने की आशंका रहती है, इस कारण केन्द्र अथवा अन्य राज्य के प्रति उसकी निर्भरता बढ़ जाती है। दोनों पक्षों के तर्क अपने-अपने हिसाब से ठीक ही प्रतीत होते हैं। मगर धरातल की तस्वीर कुछ और ही है। अलग-अलग मामलों में अलग-अलग तर्क सही बैठ रहे हैं।
बानगी देखिए। एक ओर मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम जैसे छोटे-छोटे राज्य विकास के मामले में पिछड़ रहे हैं, जबकि गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के नए आयाम छू रहा है। इसी प्रकार बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की हालत खराब है और वहां राजनीतिक अस्थिरता साफ देखी जा सकती है। विकास तो दूर की बात है। उधर मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्य कुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें।
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि दोनों की पक्षों की बातों में सामंजस्य बैठा कर धरातल के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए निर्णय किया जाए। बीच का रास्ता निकाला जाए। मगर वस्तुत: ऐसा हो नहीं पा रहा। पुनर्गठन को लेकर होती सियासत के कारण टकराव की नौबत तक आ गई है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। अर्थात पुनर्गठन की सारी खींचतान सियासी ज्यादा है। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने जनता की मांग का ध्यान रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनका वर्चस्व हो। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक  हो गया है। अन्य राजनीतिक दलों की परेशानी ये है कि ताजा निर्णय से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। एक तो जल्द ही होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा जनहित का ध्यान रखे जाने के निर्णय के कारण ज्यादा वोट बटोर सकती है और दूसरा ये कि यदि मायावती के मुताबिक बंटवारा होता है तो उनमें भी बसपा ही ज्यादा फायदे में रहने वाली है। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। वे छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, लेकिन उनक ऐतराज ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। बसपा ने एकतरफा निर्णय कर बिना बहस कराए ही प्रस्ताव पारित कर दिया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
tejwanig@gmail.com

12.11.11

इस लिंक का विस्तार आपके वेब पन्ने पर भी करेंगे...

श्रीमद्भगवत गीता विश्व का अप्रतिम ग्रंथ है !
धार्मिक भावना के साथ साथ दिशा दर्शन हेतु सदैव पठनीय है !
जीवन दर्शन का मैनेजमेंट सिखाती है ! पर संस्कृत में है !
हममें से कितने ही हैं जो गीता पढ़ना समझना तो चाहते हैं पर संस्कृत नहीं जानते !
मेरे ८४ वर्षीय पूज्य पिता प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी संस्कृत व हिन्दी के विद्वान तो हैं ही , बहुत ही अच्छे कवि भी हैं , उन्होने महाकवि कालिदास कृत मेघदूत तथा रघुवंश के श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद किये , वे अनुवाद बहुत सराहे गये हैं . हाल ही उन्होने श्रीमद्भगवत गीता का भी श्लोकशः पद्यानुवाद पूर्ण किया . जिसे वे भगवान की कृपा ही मानते हैं .
उनका यह महान कार्य http://vikasprakashan.blogspot.com/ पर सुलभ है . रसास्वादन करें . व अपने अभिमत से सूचित करें . कृति को पुस्तकाकार प्रकाशित करवाना चाहता हूं जिससे इस पद्यानुवाद का हिन्दी जानने वाले किन्तु संस्कृत न समझने वाले पाठक अधिकतम सदुपयोग कर सकें . नई पीढ़ी तक गीता उसी काव्यगत व भावगत आनन्द के साथ पहुंच सके .
प्रसन्नता होगी यदि इस लिंक का विस्तार आपके वेब पन्ने पर भी करेंगे . यदि कोई प्रकाशक जो कृति को छापना चाहें , इसे देखें तो संपर्क करें ..०९४२५८०६२५२, विवेक रंजन श्रीवास्तव

11.11.11

माँ : खोज एक गीत की

शायद सन 1991-92 की बात होगी, जब नरसिम्हा राव भारत के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और एन डी ए सरकार के इण्डिया शाइनिंग की तरह उन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन बहुत चला करता था, जिसमें बताया जाता था कि किस तरह नरसिम्हा राव ने भारत की तस्वीर बदल दी।
विज्ञापन में एक महिला खुशखुशाल भाग कर घर में आती है और अपनी संदूक में कपड़ों के नीचे से एक तस्वीर निकालकर अपनी साड़ी से पोंछती है, यह तस्वीर नरसिम्हाराव जी की होती है। पार्श्व में एक गीत भी चलता रहता है।
इस विज्ञापन के साथ उन दिनों एक गाना भी टीवी पर बहुत दिखता था। यह गाना सागरिका (मुखर्जी) के एक अल्बम का था और जिसमें सागरिका अपनी माँ के लिये कहती है…प्रेम की मूरत दया की सुरत, ऐसी और कहां है, जैसी मेरी माँ है

मुझे पॉप बिल्कुल नहीं भाते पर यह गीत एक पॉप गायिका ने गाया था और पता नहीं क्यों यह गाना मुझे बहुत पसंद था। धीरे धीरे इस गीत को सब भूलते गये, (शायद सागरिका भी) पर मैं इस गाने को बहुत खोजता रहा पर मुझे नहीं मिला। क्यों कि एल्बम का नाम पता नहीं था और सागरिका कोई बहुत बड़ी स्टार गायिका भी नहीं थी कि गीत की कुछ लाईनों से गीत खोज लिया जाता।
हैदराबाद में साईबर कॉफे चलाते हुए नेट पर भी बहुत खोजा पर यह गीत नहीं मिला, यूनुस भाई से अनुरोध किया तो उन्होने कहा, गीत छोड़िये हम सागरिका का एक इन्टर्व्यू ही कर लेते हैं। पर शायद सागरिका अपने परिवार के साथ विदेश में रहती है इस वजह से अब तक वह भी नहीं हो पाया।
कुछ दिनों पहले मैने एक सीडी की दुकान वाले को ५०/- एडवान्स दिये और उसे कहा तो उसने भी चार दिन पास पैसे वापस लौटा दिये और कहा कि भाई मुझे सीडी नहीं मिली।
मेरे एक मित्र कम ग्राहक अनुज से यह बात की तो उन्होने मुझे चैलेन्ज दिया कि वह इस गीत को दो दिन में खोज लेंगे और वाकई उन्होने खोज भी दिया। धन्यवाद अनुज भाई।
लीजिये आप भी इस गीत को सुनिये । और हाँ इस गीत को लिखा है निदा फ़ाज़ली ने। इस गीत को सागरिका ने जैसे सच्चे दिल से गाया है, अपनी माँ को याद करते हुए। तभी यह गीत इतना मधुर बन पाया है। गीत सुनते हुए मुझे मेरी माँ याद आती है। आपको आती है कि नहीं? बताईयेगा।

धूप में छाय़ा जैसी
प्यास में नदिया जैसी
तन में जीवन जैसे
मन मैं दर्पन जैसे
हाथ दुवा वाले
रोशन करे उजाले
फूल पे जैसे शबनम
साँस में जैसे सरगम
प्रेम की मूरत दया की सुरत
ऐसी और कहां है
जैसी मेरी माँ है

जहान में रात छाये
वो दीपक बन जाये
जब कभी रात जगाये
वो सपना बन जाये
अंदर नीर बहाये
बाहर से मुस्काये
काया वो पावन सी
मथुरा वृंदावन जैसी
जिसके दर्शन मैं हो भगवन
ऐसी और कहां है
जैसी मेरी माँ है
( इस प्लेयर को लगाने का सुझाव श्री अफलातूनजी ने दिया। वर्डप्रेस.कॉम पर गाने चढ़ाना बहुत मुश्किल काम है। यह जुगाड़ अच्छा है पर इसकी प्रक्रिया बहुत ही लम्बी है, फिर भी एक शुरुआत तो हुई, धन्यवाद

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28.10.11

ऐसे पहचाना जा सकता है सच्चा प्यार...

महाभारत में एक प्रेम कथा आती है। ये कहानी है राजा नल और उनकी पत्नी दयमंती की। ये कथा हमें बताती है कि प्रेम को किसी शब्द और भाषा की आवश्यकता नहीं है। प्रेम को केवल नजरों की भाषा से भी पढ़ा जा सकता है।

महाभारत में राजा नल और दयमंती की कहानी कुछ इस तरह है। नल निषध राज्य का राजा था। वहीं विदर्भ राज भीमक की बेटी थी दयमंती। जो लोग इन दोनों राज्यों की यात्रा करते वे नल के सामने दयमंती के रूप और गुणों की प्रशंसा करते और दयमंती के सामने राजा नल की वीरता और सुंदरता का वर्णन करते। दोनों ही एक-दूसरे को बिना देखे, बिना मिले ही प्रेम करने लगे। एक दिन राजा नल को दयमंती का पत्र मिला। दयमंती ने उन्हें अपने स्वयंवर में आने का निमंत्रण दिया। यह भी संदेश दिया कि वो नल को ही वरेंगी।

सारे देवता भी दयमंती के रूप सौंदर्य से प्रभावित थे। जब नल विदर्भ राज्य के लिए जा रहे थे तो सारे देवताओं ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया। देवताओं ने नल को तरह-तरह के प्रलोभन दिए और स्वयंवर में ना जाने का अनुरोध किया ताकि वे दयमंती से विवाह कर सकें। नल नहीं माने। सारे देवताओं ने एक उपाय किया, सभी नल का रूप बनाकर विदर्भ पहुंच गए। स्वयंवर में नल जैसे कई चेहरे दिखने लगे। दयमंती ने भी हैरान थी। असली नल को कैसे पहचाने। वो वरमाला लेकर आगे बढ़ी, उसने सिर्फ स्वयंवर में आए सभी नलों की आंखों में झांकना शुरू किया।

असली नल की आंखों में अपने लिए प्रेम के भाव पहचान लिए। देवताओं ने नल का रूप तो बना लिया था लेकिन दयमंती के लिए जैसा प्रेम नल की आंखों में था वैसा भाव किसी के पास नहीं था। दयमंती ने असली नल को वरमाला पहना दी। सारे देवताओं ने भी उनके इस प्रेम की प्रशंसा की।

कथा समझाती है कि चेहरे और भाषा से कुछ नहीं होता। अगर प्रेम सच्चा है तो वो आंखों से ही झलक जाएगा। उसे प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। प्रेम की भाषा मौन में ज्यादा तेज होती है।


कृष्ण का मैनेजमेंट फंडा, परिवार और बिजनेस में कैसे लाएं संतुलन

कर्म - फैमिली लाइफ

इंसान के लिए सबसे मुश्किल काम क्या है? अपने कर्मक्षेत्र और परिवार के बीच तालमेल बनाना। यहां अच्छे-अच्छे लोग असफल होते देखे गए हैं। जो बिजनेस में कूदे वो परिवार भूल गए, जिन्होंने परिवार संभाला, वे धंधे में मात खा गए। धन की भूख ने हमारे प्रेम की भूख को कम कर दिया है। आज परिवार एक साथ बैठकर बातें करना, भोजन करना, ऐसे सारे काम लगभग भूल चुके हैं। परमाणु परिवारों का बढऩा भी इसी कारण है, क्योंकि व्यक्तिगत लाभ, उन्नति और आनंद की भावना हम सब में घर कर रही है।

संयुक्त परिवारों का विघटन भी इसी व्यवसायिक मानसिकता का परिणाम है। परिवार हमारी संपत्ति है। इस बात को समझना बहुत जरूरी है। खुद के लिए हासिल की गई अपार सफलता भी तब तक पूरा मजा नहीं देती जब तक कि उसे अपनों के साथ बांटा ना जाए।

परिवार को समय दीजिए। सप्ताह या महीने में एक दिन ऐसा निकालें जो सिर्फ परिवार के लिए हो। माता-पिता के साथ बैठें, उनसे चर्चा करें, पति-पत्नी अपने लिए समय निकालें, बच्चों को समय दें। साथ में भोजन करें। कहीं घूमने जाएं। किसी धार्मिक स्थान की यात्रा करें। ये काम आपमें एक अद्भुत ऊर्जा भर देगा।

राम और कृष्ण ने भी अपने पारिवारिक जीवन को दिव्य बनाए रखा। कृष्ण के जीवन में चलते हैं। माता-पिता, भाई-भाभी, 16108 पत्नियां और हर पत्नी से 10-10 बच्चे। कितना बढ़ा कुनबा, कैसा भव्य परिवार। फिर भी सभी कृष्ण से प्रसन्न, किसी को कोई शिकायत नहीं। सभी को बराबर समय दिया। कोई आम आदमी होता तो या तो छोड़कर भाग जाता, या फिर परिवार में ही खप जाता। कृष्ण थे तो संभाल लिया। दुनियाभर के काम किए लेकिन कभी परिवार की अनदेखी नहीं की। जीवन में कुछ नियम थे, जैसे सुबह उठकर माता-पिता से आशीर्वाद, पत्नियों से चर्चा, बच्चों की शिक्षा आदि की व्यवस्था देखना। सबसे हमेशा संवाद बनाए रखना। हमें भी कृष्ण के इस पक्ष से कुछ सिखना चाहिए। परिवार के लिए समय निकालें। दिनचर्या को कुछ ऐसे सेट करें कि परिवार को कोई सदस्य उससे अनछुआ ना रहे।


27.10.11

मैं माँ बनना चाहता हूँ



मैं माँ बनना चाहता हूँ

मैं माँ बनना चाहता हूँ अपनी शोना का, अपनी सबसे प्यारी बहन का। मैं चाहता हूँ के उसके चेहरे की उदासी सेकेंडों में छु कर दूँ जैसे माँ कर दिया करती थी। वो सारी बातें, तकलीफें उसकी उसके बताये बिना मुझे पहले से पता हो जैसे माँ को मालूम हो जाया करती थी। जैसे जब वो स्कूल से वापिस आती थी तो माँ उसके घंटी बजने से पहले ही दवाज़ा खोल देती। शोना अक्सर माँ से पूछती के माँ आप को कैसे पता चल जाता है के दरवाज़े पे मैं हूँ, तो माँ मुस्कुरा के कहती के बेटा मैं माँ हूँ। मैं "माँ" हूँ , तब शायद मुझे इस वाक्य का मतलब नहीं मालूम था लेकिन आज भली भांति जानता हूँ। अब शोना को अक्सर घंटी बजानी पड़ती है जब वो कॉलेज से आती है। खाना भी खुद ही रसोई घर से निकल कर खाना पड़ता हैं लेकिन माँ तो खाने को टेबल पर पहले से ही सजा कर रख देती थी और कभी कभी तो माँ थाली ले कर शोना के पीछे पीछे दौड़ती, भागती रहती थी ( जब शोना का मन अच्छा नहीं होता) और कहती रहती के एक कौर खा लो शोना बस एक कौर। आखिरकार माँ शोना को खिला कर ही दम लेती। और इस तरह थाली की भी सैर हो जाती थी। अब थाली का भी रंग उतरने लगा है कियूंकी उसका सफ़र भी तो अब रसोई घर से बस खाने के टेबल तक ही रह गया है। रात के खाने के बाद माँ अक्सर शोना और बाबा के साथ J.N.U की सड़कों पर टहलने निकलती थी और पीपल के पत्तों या फिर छोटे छोटे फूलों को (जो अभी अभी पेड़ों पर आये थे) देख कर खुश होती। माँ को छोटी छोटी खुशियाँ बटोरने की आदत थी। टहलते टहलते तीनों एक पेड़ के पास आ जाते और माँ उस पेड़ के टहनियों के बीच से सबको चाँद दिखाती। आज उस पेड़ को हमलोग माँ का पेड़ कहते हैं।

मैं माँ नहीं बन सका अपनी शोना का, दुनिया का कोई भी आदमी चाहे वो मर्द हो या औरत मेरी शीना का माँ नहीं बन सकता। मैं "माँ" हूँ, ये नहीं जता सकता। ये एहसास मुझे तब हुआ जब मेरी शोना मुझ से दो दिन के लिए रूठ गयी, मेरे किसी बात से नाराज़ हो गए थी शायद। मैं लगातार कोशिश करता रहा के वो मान जाये, हर वो कोशिश की जो माँ शोना को मानाने के लिए करती थी पर सफल ना हो सका। सोचता रहा के माँ तो शोना को दो मिनट में माना लेती थी।

अब शोना मान गयी है । वो मुस्कुराई तो जो सुकून मिला है मुझे वो बयान करने के लिए शायद कोई शब्द नहीं बना है अभी तक।

मैं माँ तो ना बन सका लेकिन अपनी शोना का भाई बन कर हमेशा उसके साथ रहूँगा। पहले मेरी शोना के परिवार में तीन सदस्य थे माँ, बाबा और शोना। अब चार सदस्य हैं माँ, बाबा, शोना और मैं!



ना स्वर की आई थी समझ और न शब्दों का ज्ञान था,
फ़िर भी माँ कह पाना तुझको माँ कितना आसान था,

मिश्री में घुली लोरी सुन जब नींद मुझे आ जाती थी,
सुंदर से सपने तुम मेरे तकिये पे रख जाती थी,

मेरी ऑंखें देख के मन की बातें तुम बुन लेती थी ,
मेरी खामोशी को जाने तुम कैसे सुन लेती थी,

मेरी नन्ही उंगली तेरी मुट्ठी मे छिप जाती थी,
कितनी हिम्मत तब मेरे इन क़दमों को मिल जाती थी,

चोट मुझे लगती थी लेकिन दर्द तो तुम ही सहती थी,
मेरी आँखों की पीड़ा तेरी आँखों से बहती थी,

तेरे आँचल मे छुपने को मन सौ बार मचलता है,
माँ तेरी गोदी में अब भी मेरा बचपन पलता है

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26.10.11

बाल विवाह के खिलाफ लड़कियों ने छेड़ी जंग


बाल विवाह के खिलाफ लड़कियों ने छेड़ी जंग

जोधपुर। 16 मई वो तारिख है जिसे हम अखतीज यानि अक्षय तृतीया के रूप में जानते हैं। हमारे लिए ये दिन शायद खास न हो लेकिन भारत में हजारों ऐसी कम उम्र लड़कियां हैं जिनके लिए ये तारीख मजबूरी और बेबसी का दूसरा नाम है। इस दिन देश के कई इलाकों में बाल विवाह होते हैं और मासूम बच्चियों की जिंदगी दांव पर लग जाती है। ऐसी लड़कियों के लिए मसीहा बन रही हैं सिटीजन जर्नलिस्ट उषा। उषा जोधपुर की रहने वाली हैं। जब उषा 14 साल की हुई तो उनके माता-पिता ने उनकी भी सगाई कर दी और शादी की तारीख डेढ़ महीने बाद की तय हो गई। उस समय उषा 9वीं कक्षा में पढ़ती थीं और आगे भी पढ़ना चाहती थीं। उषा ने उनसे कह दिया कि अगर मेरी शादी करवाने की कोशिश की गई तो मैं आत्महत्या कर लूंगी। नतीजा ये हुआ कि घरवालों ने पढ़ाई का खर्चा उठाने से मना कर दिया।
बाल विवाह के खिलाफ लड़कियों ने छेड़ी जंग
उषा का स्कूल जाना भले ही बंद कर दिया गया हो, लेकिन 10वीं के बाद उन्होंने घर पर रह कर ही अपनी पढ़ाई को जारी रखा और आखिरकार 2 साल बाद अपनी सगाई तोड़ दी।



आज अपने बलबूते पर उषा एम ए तक पढ़ाई कर चुकी हैं। उषा ने फैसला किया कि बाल विवाह के खिलाफ वो लोगों को जागरूक करने का काम करेंगी।
इसके लिए उषा ने अपने कुछ दोस्तों को साथ लिया और घर-घर जाकर लोगों को समझाना शुरू किया। उषा ने लोगों को बाल-विवाह से होने वाले नुकसान के बारे में बताया। उन्हें ज्यादा से ज्यादा गांवों तक अपने इस अभियान को पहुंचाना था इसलिए उन्होंने कई गांवों में अलग-अलग ग्रुप बनाए और उनको प्रशिक्षित किया। जिनमें युवा और बच्चों के माता-पिता शामिल थे।
ग्रुप बनाने के साथ-2 उन्होंने उन गांवों की पंचायत, शिक्षक, पुलिस, मीडिया सबको अपने साथ जोड़ लिया। बाल विवाह के खिलाफ जागरुक करने के लिए ये लोग यात्राएं निकालते हैं। इसके साथ ही कठपुतलियों के खेल और नुक्कड़ नाटक के जरिए भी बात लोगों तक रखते हैं। अब तक उषा बाड़मेर और जालौर के 30 गांवों में और जोधपुर के तकरीबन 25 गांवों में अपनी मुहिम ले जा चुकी हैं।
उषा की कोशिशों का नतीजा ये है कि जिन गांवों में कभी कोई बड़ी लड़की नजर नहीं आती थी अब उन्हीं गांवों में 25 साल तक की गैर शादीशुदा लड़कियां देखी जा सकती हैं और उन्हें इस बात की खुशी है कि ये लड़कियां पढ़-लिखकर अपना भविष्य संवार रही हैं। उषा का सपना है कि एक दिन उनके राज्य राजस्थान में एक भी बाल विवाह न हो।
सिटीजन जर्नलिस्ट विजय लक्ष्मी की जंग
जयपुर। 1978 में बाल विवाह रोकने के लिए कानून बना। इसके तहत शादी के लिए लड़कियों की उम्र कम से कम 18 साल और लड़कों के लिए 21 साल तय की गई। लेकिन आज भी कई इलाकों में ये कानून बेमानी साबित हो रहा है। राजस्थान में आज भी 82 फीसदी शादियां 18 की उम्र से पहले ही हो जाती हैं। ऐसे में सिटीजन जर्नलिस्ट विजय लक्ष्मी ने न सिर्फ अपनी शादी को रोका बल्कि अपनी जैसी दूसरी लड़कियों को भी वो हिम्मत की राह दिखा रही हैं।
विजय लक्ष्मी जयपुर के जोहिंदा भोजपुर गांव में रहती हैं। अपने गांव में वो अकेली ऐसी लड़की हैं जिसने एमए तक पढ़ाई की है। और कोशिश में हैं कि उनके गांव कि सभी लड़कियां पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो सकें। लक्ष्मी की कहानी शुरू हुई थी आज से 7 साल पहले। तब उनकी उम्र सिर्फ 14 साल थी। घरवालों ने लक्ष्मी के हाथ पीले करने की तैयारियां शुरू कर दी थीं। लक्ष्मी ने मना किया और विरोध में खाना-पीना और लोगों से बात करना तक छोड़ दिया था।
लक्ष्मी का ये संघर्ष चल ही रहा था कि उसी दौरान गांव में 14 साल की एक लड़की की एक बच्चे को जन्म देने के दौरान मौत हो गई। इस घटना ने लक्ष्मी के परिवार को झकझोर कर रख दिया और माता पिता को दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया।
लक्ष्मी की लिए जिंदगी आसान नहीं थी जहां जाती लोग ताने मारते। ताने तो उसने चुपचाप सुन लिए लेकिन फैसला किया कि बाल विवाह के खिलाफ आवाज ज़रूर उठाएंगी। गांव में जब भी किसी कम उम्र की लड़की की शादी होती तो लक्ष्मी को लगता जैसे कि उनकी शादी हो रही है और उन्हें इस अपराध को रोकना ही होगा।
लक्ष्मी के पड़ोस में रहने वाली 13 साल की लड़की की शादी होने वाली थी लक्ष्मी ने उसकी शादी रुकवाने की काफी कोशिश की। उसके घरवालों को समझाया लेकिन फिर भी उसकी शादी हो गई। लेकिन लक्ष्मी ने हार नहीं मानी और उसे समझाया कि वो 18 साल से पहले ससुराल ना जाए। लक्ष्मी अब तक 9 नाबालिग लड़कियों की शादी रुकवा चुकी हैं और उनका ये संकल्प है कि वो बाल विवाह के खिलाफ अपनी ये लड़ाई मरते दम तक जारी रखेंगी।
सिटीजन जर्नलिस्ट कालिंदी की जंग
जोधपुर। दुनियाभर में होने वाले 40 फीसदी बाल विवाह केवल भारत में होते हैं। उससे भी शर्मनाक ये सच्चाई है कि हर साल 78000 लड़कियां कम उम्र में मां बनने के कारण दम तोड़ देती हैं। कोलकाता के आदिवासी इलाके में रहने वाली 13 साल की रेखा कालिंदी शायद इस सच्चाई को जानती थीं। बाल विवाह के खिलाफ उनकी लड़ाई अपने आप में एक मिसाल है।
कालिंदी ने अपनी दीदी की सिर्फ 11 साल में शादी होते हुई देखी। कम उम्र में उसकी शादी होने के कारण उसके चार बच्चे दो लड़के और दो लड़कियों में से एक भी नहीं बचे। इसलिए उन्होंने ठान लिया कि वो शादी नहीं करेंगी। लेकिन उनके लिए ये लड़ाई आसान नहीं थी। उनके घर में माता पिता और चार भाई-बहन हैं। कालिंदी के माता पिता बीड़ी बना कर किसी तरह से परिवार का गुजारा करते हैं। गरीबी की वजह से उनके इलाके में 11-12 साल की उम्र में ही बेटियों की शादी कर दी जाती है।
कालिंदी के घरवालों ने दीदी की तरह उसकी भी शादी 11 साल की उम्र में करवाने की सोची पर कालिंदी ने शादी करने से मना कर दिया। घरवालों ने हर तरह के हथकंडे अपनाए यहां तक कि उन्हें खाना और तेल-साबुन जैसी जरूरत की चीजें तक देना बंद कर दिया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
कालिंदी के स्कूल की शिक्षकों ने उनकी मदद की। उन्होंने उनके माता-पिता को भी समझाया और कहा कि उन्हें पढ़ाएं-लिखाएं और 18 साल के बाद ही शादी कराने की बात सोचें। आखिरकार कालिंदी के परिवार वाले समझ गए और उनकी शादी ना करने के लिए मान गए। लेकिन उनके और आसपास के गांवों में कई ऐसी लड़कियां थीं जिनका बचपन उनसे छीना जा रहा था इसलिए उन्होंने फैसला किया कि वो उन लड़कियों के बचपन को बर्बाद नहीं होने देंगी।
कालिंदी अपनी शिक्षकों के साथ घर-घर जाकर लोगों को समझाती हैं कि कम उम्र में वे अपनी बेटी की शादी ना कराएं। वे उन्हें पढ़ाएं-लिखाएं और 18 साल के बाद ही अपने बेटी की शादी कराएं। अब तक कालिंदी 18 साल से कम उम्र की 5 लड़कियों की शादी रुकवा चुकी हैं और इस लड़ाई में उनके साथ अब तक सात लड़कियां जुड़ चुकी हैं। उनकी इस हिम्मत के लिए राष्ट्रपति ने उन्हें इस साल राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से भी सम्मानित किया। इस पुरस्कार ने कालिंदी के हौसले को और बढ़ाया है और उन्हें पूरा भरोसा है कि हम सब लड़कियां इस मुहिम के जरिए अपने और आसपास के गांवों में बदलाव लाएंगी।

    19.10.11

    संसद से ऊपर कैसे हो गए अन्ना हजारे?

    उत्प्रेरक के रूप में राजनीति की रासायनिक प्रक्रिया तो कर रहे हैं, मगर खुद अछूआ ही रहना चाहते हैं
    हाल ही अन्ना हजारे की टीम के प्रमुख सिपहसालार अरविंद केजरीवाल ने यह कह कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है कि अन्ना संसद से भी ऊपर हैं और उन्हें यह अधिकार है कि वे अपेक्षित कानून बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाएं। असल में वे बोल तो गए, मगर बोलने के साथ उन्हें लगा कि उनका कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो गया है तो तुरंत यह भी जोड़ दिया कि हर आदमी को अधिकार है कि वह संसद पर दबाव बना सके।
    यहां उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे पर शुरू से ये आरोप लगता रहा है कि वे देश की सर्वोच्च संस्था संसद को चुनौती दे रहे हैं। इस मसले पर संसद में बहस के दौरान अनेक सांसदों ने ऐतराज जताया कि अन्ना संसद को आदेशित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें अथवा किसी और को सरकार या संसद से कोई मांग करने का अधिकार तो है, मगर संसद को उनकी ओर से तय समय सीमा में बिल पारित करने का अल्टीमेटम देने का अधिकार किसी को नहीं है। इस पर प्रतिक्रिया में टीम अन्ना यह कह कर सफाई देने लगी कि कांग्रेस आंदोलन की हवा निकालने अथवा उसकी दिशा बदलने के लिए अनावश्यक रूप से संसद से टकराव मोल लिए जाने का माहौल बना रही है। वे यह भी स्पष्ट करते दिखाई दिए कि लोकपाल बिल के जरिए सांसदों पर शिंकजा कसने को कांग्रेस संसद की गरिमा से जोड़ रही है, जबकि उनकी ऐसी कोई मंशा नहीं है। एक आध बार तो अन्ना ये भी बोले कि संसद सर्वोच्च है और अगर वह बिल पारित नहीं करती तो उसका फैसला उनको शिरोधार्य होगा। लेकिन हाल ही हरियाणा के हिसार उपचुनाव के दौरान  अन्ना हजारे के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर इस विवाद को उछाल दिया है। वे साफ तौर पर कहने लगे कि अन्ना संसद से ऊपर हैं।
     अगर उनके बयान पर बारीकी से नजर डालें तो यह केवल शब्दों का खेल है। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। जनता की ओर से चुने जाने के बिना किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने आपको जनता का प्रतिनिधि कहे। जनता का प्रतिनिधि तो जनता के वोटों से चुने हुए व्यक्ति को ही मानना होगा। यह बात दीगर है कि जनता में कोई समूह जनप्रतिनिधियों पर अपने अधिकारों के अनुरूप कानून बनाने की मांग करने का अधिकार जरूर है। यह साफ सुथरा सत्य है, जिसे शब्दों के जाल से नहीं ढंका जा सकता। इसके बावजूद केजरीवाल ने अन्ना को संसद से ऊंचा बता कर टीम अन्ना की महत्वाकांक्षा और दंभ को उजागर कर दिया है।
    उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो इस बात से भी खुल कर सामने आ गई है कि राजनीति और चुनाव प्रक्रिया में सीधे तौर पर शामिल होने से बार-बार इंकार करने के बाद भी हिसार उपचुनाव में खुल कर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने पर उतर आई। सवाल ये उठता है कि अगर वह वाकई राजनीति में शुचिता लाना चाहती है तो दागी माने जा रहे हरियाणा जनहित कांग्रेस के कुलदीप विश्नोई और इंडियन नेशनल लोकदल के उम्मीदवार अजय चौटाला को अपरोक्ष रूप से लाभ कैसे दे रही है? एक ओर वह इस उपचुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का सर्वे करार दे रही है, दूसरी अपना प्रत्याशी उतारने का साहस नहीं जुटा पाई। अर्थात वे रसायन शास्त्र के उत्प्रेरक की भांति राजनीति में रासायनिक प्रक्रिया तो कर रही है, मगर खुद उससे अलग ही बने रहना चाहती है। कृत्य को अपने हिसाब से परिफलित करना चाहती है, मगर कर्ता होने के साथ जुड़ी बुराई से मुक्त रहना चाहती है। इसे यूं भी कहा जा सकता है मैदान से बाहर रह कर मैदान पर वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। अफसोसनाक पहलु ये है कि इस मसले पर खुद टीम अन्ना में मतभेद है। टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्नता जाहिर कर चुके हैं। इसी मसले पर क्यों, कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान पर हुए हंगामे के बाद अन्ना व उनके अन्य साथी उससे अपने आपको अलग कर रहे हैं।
    कुल मिला कर अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आ गया है। राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही उनके ताजा रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है। देशभक्ति के जज्बे साथ उनके पीछे हो ली युवा पीढ़ी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रही है।
    -tejwanig@gmail.com

    18.10.11

    नवभारत टाइम्स पर भी "सिरफिरा-आजाद पंछी"

    नवभारत टाइम्स पर पत्रकार रमेश कुमार जैन का ब्लॉग क्लिक करके देखें "सिरफिरा-आजाद पंछी" (प्रचार सामग्री)
    क्या पत्रकार केवल समाचार बेचने वाला है? नहीं.वह सिर भी बेचता है और संघर्ष भी करता है.उसके जिम्मे कर्त्तव्य लगाया गया है कि-वह अत्याचारी के अत्याचारों के विरुध्द आवाज उठाये.एक सच्चे और ईमानदार पत्रकार का कर्त्तव्य हैं,प्रजा के दुःख दूर करना,सरकार के अन्याय के विरुध्द आवाज उठाना,उसे सही परामर्श देना और वह न माने तो उसके विरुध्द संघर्ष करना. वह यह कर्त्तव्य नहीं निभाता है तो वह भी आम दुकानों की तरह एक दुकान है किसी ने सब्जी बेचली और किसी ने खबर.        
    अगर आपके पास समय हो तो नवभारत टाइम्स पर निर्मित हमारे ब्लॉग पर अब तक प्रकाशित निम्नलिखित पोस्टों की लिंक को क्लिक करके पढ़ें. अगर टिप्पणी का समय न हो तो वहां पर वोट जरुर दें. हमसे क्लिक करके मिलिए : गूगल, ऑरकुट और फेसबुक पर 

    अभी तो अजन्मा बच्चा हूँ दोस्तो
    घरेलू हिंसा अधिनियम का अन्याय
    घरेलू हिंसा अधिनियम का अन्याय-2
    स्वयं गुड़ खाकर, गुड़ न खाने की शिक्षा नहीं देता हूं
    अब आरोपित को ऍफ़ आई आर की प्रति मिलेगी
    यह हमारे देश में कैसा कानून है?
    नसीबों वाले हैं, जिनके है बेटियाँ
    देशवासियों/पाठकों/ब्लॉगरों के नाम संदेश
    आलोचना करने पर ईनाम?
    जब पड़ जाए दिल का दौरा!"शकुन्तला प्रेस" का व्यक्तिगत "पुस्तकालय" क्यों?
    आओ दोस्तों हिन्दी-हिन्दी का खेल खेलें
    हिंदी की टाइपिंग कैसे करें?
    हिंदी में ईमेल कैसे भेजें
    आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें
    अपना ब्लॉग क्यों और कैसे बनाये
    क्या मैंने कोई अपराध किया है?इस समूह में आपका स्वागत है
    एक हिंदी प्रेमी की नाराजगी
    भगवान महावीर की शरण में हूँ
    क्या यह निजी प्रचार का विज्ञापन है?
    आप भी अपने मित्रों को बधाई भेजें
    हमें अपना फर्ज निभाना है
    क्या ब्लॉगर मेरी मदद कर सकते हैं ?
    कटोरा और भीख
    भारत माता फिर मांग रही क़ुर्बानी
    क्लिक करें, ब्लॉग पढ़ें :-मेरा-नवभारत टाइम्स पर ब्लॉग,   "सिरफिरा-आजाद पंछी", "रमेश कुमार सिरफिरा", सच्चा दोस्त, आपकी शायरी, मुबारकबाद, आपको मुबारक हो, शकुन्तला प्रेस ऑफ इंडिया प्रकाशन, सच का सामना(आत्मकथा), तीर्थंकर महावीर स्वामी जी, शकुन्तला प्रेस का पुस्तकालय और (जिनपर कार्य चल रहा है) शकुन्तला महिला कल्याण कोष, मानव सेवा एकता मंच एवं  चुनाव चिन्ह पर आधरित कैमरा-तीसरी आँख

    क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार