29.10.11

रमेश कुमार सिरफिरा: "सच" का साथ मेरा कर्म व "इंसानियत" मेरा धर्म

रमेश कुमार सिरफिरा: "सच" का साथ मेरा कर्म व "इंसानियत" मेरा धर्म: प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया को आईना दिखाती एक पोस्ट मेरे दोस्तों/ शुभचिंतकों/आलोचकों - मुझे इस ब्लॉग "ब्लॉग की खबरें" के संच...

28.10.11

ऐसे पहचाना जा सकता है सच्चा प्यार...

महाभारत में एक प्रेम कथा आती है। ये कहानी है राजा नल और उनकी पत्नी दयमंती की। ये कथा हमें बताती है कि प्रेम को किसी शब्द और भाषा की आवश्यकता नहीं है। प्रेम को केवल नजरों की भाषा से भी पढ़ा जा सकता है।

महाभारत में राजा नल और दयमंती की कहानी कुछ इस तरह है। नल निषध राज्य का राजा था। वहीं विदर्भ राज भीमक की बेटी थी दयमंती। जो लोग इन दोनों राज्यों की यात्रा करते वे नल के सामने दयमंती के रूप और गुणों की प्रशंसा करते और दयमंती के सामने राजा नल की वीरता और सुंदरता का वर्णन करते। दोनों ही एक-दूसरे को बिना देखे, बिना मिले ही प्रेम करने लगे। एक दिन राजा नल को दयमंती का पत्र मिला। दयमंती ने उन्हें अपने स्वयंवर में आने का निमंत्रण दिया। यह भी संदेश दिया कि वो नल को ही वरेंगी।

सारे देवता भी दयमंती के रूप सौंदर्य से प्रभावित थे। जब नल विदर्भ राज्य के लिए जा रहे थे तो सारे देवताओं ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया। देवताओं ने नल को तरह-तरह के प्रलोभन दिए और स्वयंवर में ना जाने का अनुरोध किया ताकि वे दयमंती से विवाह कर सकें। नल नहीं माने। सारे देवताओं ने एक उपाय किया, सभी नल का रूप बनाकर विदर्भ पहुंच गए। स्वयंवर में नल जैसे कई चेहरे दिखने लगे। दयमंती ने भी हैरान थी। असली नल को कैसे पहचाने। वो वरमाला लेकर आगे बढ़ी, उसने सिर्फ स्वयंवर में आए सभी नलों की आंखों में झांकना शुरू किया।

असली नल की आंखों में अपने लिए प्रेम के भाव पहचान लिए। देवताओं ने नल का रूप तो बना लिया था लेकिन दयमंती के लिए जैसा प्रेम नल की आंखों में था वैसा भाव किसी के पास नहीं था। दयमंती ने असली नल को वरमाला पहना दी। सारे देवताओं ने भी उनके इस प्रेम की प्रशंसा की।

कथा समझाती है कि चेहरे और भाषा से कुछ नहीं होता। अगर प्रेम सच्चा है तो वो आंखों से ही झलक जाएगा। उसे प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। प्रेम की भाषा मौन में ज्यादा तेज होती है।


कृष्ण का मैनेजमेंट फंडा, परिवार और बिजनेस में कैसे लाएं संतुलन

कर्म - फैमिली लाइफ

इंसान के लिए सबसे मुश्किल काम क्या है? अपने कर्मक्षेत्र और परिवार के बीच तालमेल बनाना। यहां अच्छे-अच्छे लोग असफल होते देखे गए हैं। जो बिजनेस में कूदे वो परिवार भूल गए, जिन्होंने परिवार संभाला, वे धंधे में मात खा गए। धन की भूख ने हमारे प्रेम की भूख को कम कर दिया है। आज परिवार एक साथ बैठकर बातें करना, भोजन करना, ऐसे सारे काम लगभग भूल चुके हैं। परमाणु परिवारों का बढऩा भी इसी कारण है, क्योंकि व्यक्तिगत लाभ, उन्नति और आनंद की भावना हम सब में घर कर रही है।

संयुक्त परिवारों का विघटन भी इसी व्यवसायिक मानसिकता का परिणाम है। परिवार हमारी संपत्ति है। इस बात को समझना बहुत जरूरी है। खुद के लिए हासिल की गई अपार सफलता भी तब तक पूरा मजा नहीं देती जब तक कि उसे अपनों के साथ बांटा ना जाए।

परिवार को समय दीजिए। सप्ताह या महीने में एक दिन ऐसा निकालें जो सिर्फ परिवार के लिए हो। माता-पिता के साथ बैठें, उनसे चर्चा करें, पति-पत्नी अपने लिए समय निकालें, बच्चों को समय दें। साथ में भोजन करें। कहीं घूमने जाएं। किसी धार्मिक स्थान की यात्रा करें। ये काम आपमें एक अद्भुत ऊर्जा भर देगा।

राम और कृष्ण ने भी अपने पारिवारिक जीवन को दिव्य बनाए रखा। कृष्ण के जीवन में चलते हैं। माता-पिता, भाई-भाभी, 16108 पत्नियां और हर पत्नी से 10-10 बच्चे। कितना बढ़ा कुनबा, कैसा भव्य परिवार। फिर भी सभी कृष्ण से प्रसन्न, किसी को कोई शिकायत नहीं। सभी को बराबर समय दिया। कोई आम आदमी होता तो या तो छोड़कर भाग जाता, या फिर परिवार में ही खप जाता। कृष्ण थे तो संभाल लिया। दुनियाभर के काम किए लेकिन कभी परिवार की अनदेखी नहीं की। जीवन में कुछ नियम थे, जैसे सुबह उठकर माता-पिता से आशीर्वाद, पत्नियों से चर्चा, बच्चों की शिक्षा आदि की व्यवस्था देखना। सबसे हमेशा संवाद बनाए रखना। हमें भी कृष्ण के इस पक्ष से कुछ सिखना चाहिए। परिवार के लिए समय निकालें। दिनचर्या को कुछ ऐसे सेट करें कि परिवार को कोई सदस्य उससे अनछुआ ना रहे।


27.10.11

मैं माँ बनना चाहता हूँ



मैं माँ बनना चाहता हूँ

मैं माँ बनना चाहता हूँ अपनी शोना का, अपनी सबसे प्यारी बहन का। मैं चाहता हूँ के उसके चेहरे की उदासी सेकेंडों में छु कर दूँ जैसे माँ कर दिया करती थी। वो सारी बातें, तकलीफें उसकी उसके बताये बिना मुझे पहले से पता हो जैसे माँ को मालूम हो जाया करती थी। जैसे जब वो स्कूल से वापिस आती थी तो माँ उसके घंटी बजने से पहले ही दवाज़ा खोल देती। शोना अक्सर माँ से पूछती के माँ आप को कैसे पता चल जाता है के दरवाज़े पे मैं हूँ, तो माँ मुस्कुरा के कहती के बेटा मैं माँ हूँ। मैं "माँ" हूँ , तब शायद मुझे इस वाक्य का मतलब नहीं मालूम था लेकिन आज भली भांति जानता हूँ। अब शोना को अक्सर घंटी बजानी पड़ती है जब वो कॉलेज से आती है। खाना भी खुद ही रसोई घर से निकल कर खाना पड़ता हैं लेकिन माँ तो खाने को टेबल पर पहले से ही सजा कर रख देती थी और कभी कभी तो माँ थाली ले कर शोना के पीछे पीछे दौड़ती, भागती रहती थी ( जब शोना का मन अच्छा नहीं होता) और कहती रहती के एक कौर खा लो शोना बस एक कौर। आखिरकार माँ शोना को खिला कर ही दम लेती। और इस तरह थाली की भी सैर हो जाती थी। अब थाली का भी रंग उतरने लगा है कियूंकी उसका सफ़र भी तो अब रसोई घर से बस खाने के टेबल तक ही रह गया है। रात के खाने के बाद माँ अक्सर शोना और बाबा के साथ J.N.U की सड़कों पर टहलने निकलती थी और पीपल के पत्तों या फिर छोटे छोटे फूलों को (जो अभी अभी पेड़ों पर आये थे) देख कर खुश होती। माँ को छोटी छोटी खुशियाँ बटोरने की आदत थी। टहलते टहलते तीनों एक पेड़ के पास आ जाते और माँ उस पेड़ के टहनियों के बीच से सबको चाँद दिखाती। आज उस पेड़ को हमलोग माँ का पेड़ कहते हैं।

मैं माँ नहीं बन सका अपनी शोना का, दुनिया का कोई भी आदमी चाहे वो मर्द हो या औरत मेरी शीना का माँ नहीं बन सकता। मैं "माँ" हूँ, ये नहीं जता सकता। ये एहसास मुझे तब हुआ जब मेरी शोना मुझ से दो दिन के लिए रूठ गयी, मेरे किसी बात से नाराज़ हो गए थी शायद। मैं लगातार कोशिश करता रहा के वो मान जाये, हर वो कोशिश की जो माँ शोना को मानाने के लिए करती थी पर सफल ना हो सका। सोचता रहा के माँ तो शोना को दो मिनट में माना लेती थी।

अब शोना मान गयी है । वो मुस्कुराई तो जो सुकून मिला है मुझे वो बयान करने के लिए शायद कोई शब्द नहीं बना है अभी तक।

मैं माँ तो ना बन सका लेकिन अपनी शोना का भाई बन कर हमेशा उसके साथ रहूँगा। पहले मेरी शोना के परिवार में तीन सदस्य थे माँ, बाबा और शोना। अब चार सदस्य हैं माँ, बाबा, शोना और मैं!



ना स्वर की आई थी समझ और न शब्दों का ज्ञान था,
फ़िर भी माँ कह पाना तुझको माँ कितना आसान था,

मिश्री में घुली लोरी सुन जब नींद मुझे आ जाती थी,
सुंदर से सपने तुम मेरे तकिये पे रख जाती थी,

मेरी ऑंखें देख के मन की बातें तुम बुन लेती थी ,
मेरी खामोशी को जाने तुम कैसे सुन लेती थी,

मेरी नन्ही उंगली तेरी मुट्ठी मे छिप जाती थी,
कितनी हिम्मत तब मेरे इन क़दमों को मिल जाती थी,

चोट मुझे लगती थी लेकिन दर्द तो तुम ही सहती थी,
मेरी आँखों की पीड़ा तेरी आँखों से बहती थी,

तेरे आँचल मे छुपने को मन सौ बार मचलता है,
माँ तेरी गोदी में अब भी मेरा बचपन पलता है

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26.10.11

बाल विवाह के खिलाफ लड़कियों ने छेड़ी जंग


बाल विवाह के खिलाफ लड़कियों ने छेड़ी जंग

जोधपुर। 16 मई वो तारिख है जिसे हम अखतीज यानि अक्षय तृतीया के रूप में जानते हैं। हमारे लिए ये दिन शायद खास न हो लेकिन भारत में हजारों ऐसी कम उम्र लड़कियां हैं जिनके लिए ये तारीख मजबूरी और बेबसी का दूसरा नाम है। इस दिन देश के कई इलाकों में बाल विवाह होते हैं और मासूम बच्चियों की जिंदगी दांव पर लग जाती है। ऐसी लड़कियों के लिए मसीहा बन रही हैं सिटीजन जर्नलिस्ट उषा। उषा जोधपुर की रहने वाली हैं। जब उषा 14 साल की हुई तो उनके माता-पिता ने उनकी भी सगाई कर दी और शादी की तारीख डेढ़ महीने बाद की तय हो गई। उस समय उषा 9वीं कक्षा में पढ़ती थीं और आगे भी पढ़ना चाहती थीं। उषा ने उनसे कह दिया कि अगर मेरी शादी करवाने की कोशिश की गई तो मैं आत्महत्या कर लूंगी। नतीजा ये हुआ कि घरवालों ने पढ़ाई का खर्चा उठाने से मना कर दिया।
बाल विवाह के खिलाफ लड़कियों ने छेड़ी जंग
उषा का स्कूल जाना भले ही बंद कर दिया गया हो, लेकिन 10वीं के बाद उन्होंने घर पर रह कर ही अपनी पढ़ाई को जारी रखा और आखिरकार 2 साल बाद अपनी सगाई तोड़ दी।



आज अपने बलबूते पर उषा एम ए तक पढ़ाई कर चुकी हैं। उषा ने फैसला किया कि बाल विवाह के खिलाफ वो लोगों को जागरूक करने का काम करेंगी।
इसके लिए उषा ने अपने कुछ दोस्तों को साथ लिया और घर-घर जाकर लोगों को समझाना शुरू किया। उषा ने लोगों को बाल-विवाह से होने वाले नुकसान के बारे में बताया। उन्हें ज्यादा से ज्यादा गांवों तक अपने इस अभियान को पहुंचाना था इसलिए उन्होंने कई गांवों में अलग-अलग ग्रुप बनाए और उनको प्रशिक्षित किया। जिनमें युवा और बच्चों के माता-पिता शामिल थे।
ग्रुप बनाने के साथ-2 उन्होंने उन गांवों की पंचायत, शिक्षक, पुलिस, मीडिया सबको अपने साथ जोड़ लिया। बाल विवाह के खिलाफ जागरुक करने के लिए ये लोग यात्राएं निकालते हैं। इसके साथ ही कठपुतलियों के खेल और नुक्कड़ नाटक के जरिए भी बात लोगों तक रखते हैं। अब तक उषा बाड़मेर और जालौर के 30 गांवों में और जोधपुर के तकरीबन 25 गांवों में अपनी मुहिम ले जा चुकी हैं।
उषा की कोशिशों का नतीजा ये है कि जिन गांवों में कभी कोई बड़ी लड़की नजर नहीं आती थी अब उन्हीं गांवों में 25 साल तक की गैर शादीशुदा लड़कियां देखी जा सकती हैं और उन्हें इस बात की खुशी है कि ये लड़कियां पढ़-लिखकर अपना भविष्य संवार रही हैं। उषा का सपना है कि एक दिन उनके राज्य राजस्थान में एक भी बाल विवाह न हो।
सिटीजन जर्नलिस्ट विजय लक्ष्मी की जंग
जयपुर। 1978 में बाल विवाह रोकने के लिए कानून बना। इसके तहत शादी के लिए लड़कियों की उम्र कम से कम 18 साल और लड़कों के लिए 21 साल तय की गई। लेकिन आज भी कई इलाकों में ये कानून बेमानी साबित हो रहा है। राजस्थान में आज भी 82 फीसदी शादियां 18 की उम्र से पहले ही हो जाती हैं। ऐसे में सिटीजन जर्नलिस्ट विजय लक्ष्मी ने न सिर्फ अपनी शादी को रोका बल्कि अपनी जैसी दूसरी लड़कियों को भी वो हिम्मत की राह दिखा रही हैं।
विजय लक्ष्मी जयपुर के जोहिंदा भोजपुर गांव में रहती हैं। अपने गांव में वो अकेली ऐसी लड़की हैं जिसने एमए तक पढ़ाई की है। और कोशिश में हैं कि उनके गांव कि सभी लड़कियां पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो सकें। लक्ष्मी की कहानी शुरू हुई थी आज से 7 साल पहले। तब उनकी उम्र सिर्फ 14 साल थी। घरवालों ने लक्ष्मी के हाथ पीले करने की तैयारियां शुरू कर दी थीं। लक्ष्मी ने मना किया और विरोध में खाना-पीना और लोगों से बात करना तक छोड़ दिया था।
लक्ष्मी का ये संघर्ष चल ही रहा था कि उसी दौरान गांव में 14 साल की एक लड़की की एक बच्चे को जन्म देने के दौरान मौत हो गई। इस घटना ने लक्ष्मी के परिवार को झकझोर कर रख दिया और माता पिता को दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया।
लक्ष्मी की लिए जिंदगी आसान नहीं थी जहां जाती लोग ताने मारते। ताने तो उसने चुपचाप सुन लिए लेकिन फैसला किया कि बाल विवाह के खिलाफ आवाज ज़रूर उठाएंगी। गांव में जब भी किसी कम उम्र की लड़की की शादी होती तो लक्ष्मी को लगता जैसे कि उनकी शादी हो रही है और उन्हें इस अपराध को रोकना ही होगा।
लक्ष्मी के पड़ोस में रहने वाली 13 साल की लड़की की शादी होने वाली थी लक्ष्मी ने उसकी शादी रुकवाने की काफी कोशिश की। उसके घरवालों को समझाया लेकिन फिर भी उसकी शादी हो गई। लेकिन लक्ष्मी ने हार नहीं मानी और उसे समझाया कि वो 18 साल से पहले ससुराल ना जाए। लक्ष्मी अब तक 9 नाबालिग लड़कियों की शादी रुकवा चुकी हैं और उनका ये संकल्प है कि वो बाल विवाह के खिलाफ अपनी ये लड़ाई मरते दम तक जारी रखेंगी।
सिटीजन जर्नलिस्ट कालिंदी की जंग
जोधपुर। दुनियाभर में होने वाले 40 फीसदी बाल विवाह केवल भारत में होते हैं। उससे भी शर्मनाक ये सच्चाई है कि हर साल 78000 लड़कियां कम उम्र में मां बनने के कारण दम तोड़ देती हैं। कोलकाता के आदिवासी इलाके में रहने वाली 13 साल की रेखा कालिंदी शायद इस सच्चाई को जानती थीं। बाल विवाह के खिलाफ उनकी लड़ाई अपने आप में एक मिसाल है।
कालिंदी ने अपनी दीदी की सिर्फ 11 साल में शादी होते हुई देखी। कम उम्र में उसकी शादी होने के कारण उसके चार बच्चे दो लड़के और दो लड़कियों में से एक भी नहीं बचे। इसलिए उन्होंने ठान लिया कि वो शादी नहीं करेंगी। लेकिन उनके लिए ये लड़ाई आसान नहीं थी। उनके घर में माता पिता और चार भाई-बहन हैं। कालिंदी के माता पिता बीड़ी बना कर किसी तरह से परिवार का गुजारा करते हैं। गरीबी की वजह से उनके इलाके में 11-12 साल की उम्र में ही बेटियों की शादी कर दी जाती है।
कालिंदी के घरवालों ने दीदी की तरह उसकी भी शादी 11 साल की उम्र में करवाने की सोची पर कालिंदी ने शादी करने से मना कर दिया। घरवालों ने हर तरह के हथकंडे अपनाए यहां तक कि उन्हें खाना और तेल-साबुन जैसी जरूरत की चीजें तक देना बंद कर दिया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
कालिंदी के स्कूल की शिक्षकों ने उनकी मदद की। उन्होंने उनके माता-पिता को भी समझाया और कहा कि उन्हें पढ़ाएं-लिखाएं और 18 साल के बाद ही शादी कराने की बात सोचें। आखिरकार कालिंदी के परिवार वाले समझ गए और उनकी शादी ना करने के लिए मान गए। लेकिन उनके और आसपास के गांवों में कई ऐसी लड़कियां थीं जिनका बचपन उनसे छीना जा रहा था इसलिए उन्होंने फैसला किया कि वो उन लड़कियों के बचपन को बर्बाद नहीं होने देंगी।
कालिंदी अपनी शिक्षकों के साथ घर-घर जाकर लोगों को समझाती हैं कि कम उम्र में वे अपनी बेटी की शादी ना कराएं। वे उन्हें पढ़ाएं-लिखाएं और 18 साल के बाद ही अपने बेटी की शादी कराएं। अब तक कालिंदी 18 साल से कम उम्र की 5 लड़कियों की शादी रुकवा चुकी हैं और इस लड़ाई में उनके साथ अब तक सात लड़कियां जुड़ चुकी हैं। उनकी इस हिम्मत के लिए राष्ट्रपति ने उन्हें इस साल राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से भी सम्मानित किया। इस पुरस्कार ने कालिंदी के हौसले को और बढ़ाया है और उन्हें पूरा भरोसा है कि हम सब लड़कियां इस मुहिम के जरिए अपने और आसपास के गांवों में बदलाव लाएंगी।

    19.10.11

    संसद से ऊपर कैसे हो गए अन्ना हजारे?

    उत्प्रेरक के रूप में राजनीति की रासायनिक प्रक्रिया तो कर रहे हैं, मगर खुद अछूआ ही रहना चाहते हैं
    हाल ही अन्ना हजारे की टीम के प्रमुख सिपहसालार अरविंद केजरीवाल ने यह कह कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है कि अन्ना संसद से भी ऊपर हैं और उन्हें यह अधिकार है कि वे अपेक्षित कानून बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाएं। असल में वे बोल तो गए, मगर बोलने के साथ उन्हें लगा कि उनका कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो गया है तो तुरंत यह भी जोड़ दिया कि हर आदमी को अधिकार है कि वह संसद पर दबाव बना सके।
    यहां उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे पर शुरू से ये आरोप लगता रहा है कि वे देश की सर्वोच्च संस्था संसद को चुनौती दे रहे हैं। इस मसले पर संसद में बहस के दौरान अनेक सांसदों ने ऐतराज जताया कि अन्ना संसद को आदेशित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें अथवा किसी और को सरकार या संसद से कोई मांग करने का अधिकार तो है, मगर संसद को उनकी ओर से तय समय सीमा में बिल पारित करने का अल्टीमेटम देने का अधिकार किसी को नहीं है। इस पर प्रतिक्रिया में टीम अन्ना यह कह कर सफाई देने लगी कि कांग्रेस आंदोलन की हवा निकालने अथवा उसकी दिशा बदलने के लिए अनावश्यक रूप से संसद से टकराव मोल लिए जाने का माहौल बना रही है। वे यह भी स्पष्ट करते दिखाई दिए कि लोकपाल बिल के जरिए सांसदों पर शिंकजा कसने को कांग्रेस संसद की गरिमा से जोड़ रही है, जबकि उनकी ऐसी कोई मंशा नहीं है। एक आध बार तो अन्ना ये भी बोले कि संसद सर्वोच्च है और अगर वह बिल पारित नहीं करती तो उसका फैसला उनको शिरोधार्य होगा। लेकिन हाल ही हरियाणा के हिसार उपचुनाव के दौरान  अन्ना हजारे के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर इस विवाद को उछाल दिया है। वे साफ तौर पर कहने लगे कि अन्ना संसद से ऊपर हैं।
     अगर उनके बयान पर बारीकी से नजर डालें तो यह केवल शब्दों का खेल है। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। जनता की ओर से चुने जाने के बिना किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने आपको जनता का प्रतिनिधि कहे। जनता का प्रतिनिधि तो जनता के वोटों से चुने हुए व्यक्ति को ही मानना होगा। यह बात दीगर है कि जनता में कोई समूह जनप्रतिनिधियों पर अपने अधिकारों के अनुरूप कानून बनाने की मांग करने का अधिकार जरूर है। यह साफ सुथरा सत्य है, जिसे शब्दों के जाल से नहीं ढंका जा सकता। इसके बावजूद केजरीवाल ने अन्ना को संसद से ऊंचा बता कर टीम अन्ना की महत्वाकांक्षा और दंभ को उजागर कर दिया है।
    उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो इस बात से भी खुल कर सामने आ गई है कि राजनीति और चुनाव प्रक्रिया में सीधे तौर पर शामिल होने से बार-बार इंकार करने के बाद भी हिसार उपचुनाव में खुल कर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने पर उतर आई। सवाल ये उठता है कि अगर वह वाकई राजनीति में शुचिता लाना चाहती है तो दागी माने जा रहे हरियाणा जनहित कांग्रेस के कुलदीप विश्नोई और इंडियन नेशनल लोकदल के उम्मीदवार अजय चौटाला को अपरोक्ष रूप से लाभ कैसे दे रही है? एक ओर वह इस उपचुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का सर्वे करार दे रही है, दूसरी अपना प्रत्याशी उतारने का साहस नहीं जुटा पाई। अर्थात वे रसायन शास्त्र के उत्प्रेरक की भांति राजनीति में रासायनिक प्रक्रिया तो कर रही है, मगर खुद उससे अलग ही बने रहना चाहती है। कृत्य को अपने हिसाब से परिफलित करना चाहती है, मगर कर्ता होने के साथ जुड़ी बुराई से मुक्त रहना चाहती है। इसे यूं भी कहा जा सकता है मैदान से बाहर रह कर मैदान पर वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। अफसोसनाक पहलु ये है कि इस मसले पर खुद टीम अन्ना में मतभेद है। टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्नता जाहिर कर चुके हैं। इसी मसले पर क्यों, कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान पर हुए हंगामे के बाद अन्ना व उनके अन्य साथी उससे अपने आपको अलग कर रहे हैं।
    कुल मिला कर अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आ गया है। राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही उनके ताजा रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है। देशभक्ति के जज्बे साथ उनके पीछे हो ली युवा पीढ़ी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रही है।
    -tejwanig@gmail.com

    18.10.11

    नवभारत टाइम्स पर भी "सिरफिरा-आजाद पंछी"

    नवभारत टाइम्स पर पत्रकार रमेश कुमार जैन का ब्लॉग क्लिक करके देखें "सिरफिरा-आजाद पंछी" (प्रचार सामग्री)
    क्या पत्रकार केवल समाचार बेचने वाला है? नहीं.वह सिर भी बेचता है और संघर्ष भी करता है.उसके जिम्मे कर्त्तव्य लगाया गया है कि-वह अत्याचारी के अत्याचारों के विरुध्द आवाज उठाये.एक सच्चे और ईमानदार पत्रकार का कर्त्तव्य हैं,प्रजा के दुःख दूर करना,सरकार के अन्याय के विरुध्द आवाज उठाना,उसे सही परामर्श देना और वह न माने तो उसके विरुध्द संघर्ष करना. वह यह कर्त्तव्य नहीं निभाता है तो वह भी आम दुकानों की तरह एक दुकान है किसी ने सब्जी बेचली और किसी ने खबर.        
    अगर आपके पास समय हो तो नवभारत टाइम्स पर निर्मित हमारे ब्लॉग पर अब तक प्रकाशित निम्नलिखित पोस्टों की लिंक को क्लिक करके पढ़ें. अगर टिप्पणी का समय न हो तो वहां पर वोट जरुर दें. हमसे क्लिक करके मिलिए : गूगल, ऑरकुट और फेसबुक पर 

    अभी तो अजन्मा बच्चा हूँ दोस्तो
    घरेलू हिंसा अधिनियम का अन्याय
    घरेलू हिंसा अधिनियम का अन्याय-2
    स्वयं गुड़ खाकर, गुड़ न खाने की शिक्षा नहीं देता हूं
    अब आरोपित को ऍफ़ आई आर की प्रति मिलेगी
    यह हमारे देश में कैसा कानून है?
    नसीबों वाले हैं, जिनके है बेटियाँ
    देशवासियों/पाठकों/ब्लॉगरों के नाम संदेश
    आलोचना करने पर ईनाम?
    जब पड़ जाए दिल का दौरा!"शकुन्तला प्रेस" का व्यक्तिगत "पुस्तकालय" क्यों?
    आओ दोस्तों हिन्दी-हिन्दी का खेल खेलें
    हिंदी की टाइपिंग कैसे करें?
    हिंदी में ईमेल कैसे भेजें
    आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें
    अपना ब्लॉग क्यों और कैसे बनाये
    क्या मैंने कोई अपराध किया है?इस समूह में आपका स्वागत है
    एक हिंदी प्रेमी की नाराजगी
    भगवान महावीर की शरण में हूँ
    क्या यह निजी प्रचार का विज्ञापन है?
    आप भी अपने मित्रों को बधाई भेजें
    हमें अपना फर्ज निभाना है
    क्या ब्लॉगर मेरी मदद कर सकते हैं ?
    कटोरा और भीख
    भारत माता फिर मांग रही क़ुर्बानी
    क्लिक करें, ब्लॉग पढ़ें :-मेरा-नवभारत टाइम्स पर ब्लॉग,   "सिरफिरा-आजाद पंछी", "रमेश कुमार सिरफिरा", सच्चा दोस्त, आपकी शायरी, मुबारकबाद, आपको मुबारक हो, शकुन्तला प्रेस ऑफ इंडिया प्रकाशन, सच का सामना(आत्मकथा), तीर्थंकर महावीर स्वामी जी, शकुन्तला प्रेस का पुस्तकालय और (जिनपर कार्य चल रहा है) शकुन्तला महिला कल्याण कोष, मानव सेवा एकता मंच एवं  चुनाव चिन्ह पर आधरित कैमरा-तीसरी आँख

    16.10.11

    मौत की आग़ोश में जब थक के सो जाती है माँ

    Please See Bloggers' Meet Weekly 13

    'माँ' The mother Part 1 


    यह एक विशेष भेंट है जो कि हम अपने पाठकों की नज़्र कर रहे हैं।
    उम्मीद है कि यह भेंट आप सभी भाई बहनों को ज़रूर पसंद आएगी।

    मौत की आग़ोश में जब थक के सो जाती है माँ
    तब कहीं जाकर ‘रज़ा‘ थोड़ा सुकूं पाती है माँ
     

    कुछ सवाल : आप दीजिये जवाब (Some Questions for All Bloggers)


    दिनाँक - 10 सितंबर 2011

    ब्लॉग का नाम - हिन्दी ब्लौगर्स फोरम इंटरनेशनल 

    विषय - हिन्दी ब्लॉगिंग गाइड 

    कड़ी - 33

    उप विषय - साझा ब्लॉग कैसे बनाएँ ?

    पोस्ट पाठक संख्या - 13 

    टिप्पणी या प्रतिक्रिया - 0 (शून्य)

                  और

    लेखक - महेश बारमाटे "माही"


    जी हाँ !
    मैं वही महेश बारमाटे हूँ, जिसे शायद आप लोग "माही" के नाम से जानते हैं, और हिन्दी ब्लॉगिंग गाइड को अगर अनवर जमाल जी के नाम से जाना जाता है, तो कहीं न कहीं मेरा ज़िक्र भी आपके जेहन मे जरूर आता होगा, ऐसा मेरा मानना है। 
    आज मैं हिन्दी ब्लॉगिंग गाइड के प्रचार के सिलसिले में खुद को श्रेय दिलवाने के लिए नहीं वरन आप सबसे कुछ  सवाल पूछने आया हूँ।  (बल्कि मेरा विचार ऐसा कभी नहीं रहा कि हिन्दी ब्लॉगिंग गाइड के लिए मुझे कोई श्रेय मिले, क्योंकि यह मेरी किताब नहीं है, यह हर ब्लॉगर की किताब है)

    मैंने जब हिन्दी ब्लॉगिंग जगत में कदम रखा था तो आपकी ही तरह ब्लॉगिंग के नियमों, लेखन की सीमाओं और तकनीकी ज्ञान से अनभिज्ञ था। मुझे तो बस इतना पता था कि कुछ तो ऐसा किया जाये, जो इतिहास के पन्नों मे न सही पर किसी न किसी के तो दिल को कम से कम एक बार छू जाये। और इसी प्रयास में मैंने अपनी कविताओं से ब्लॉगिंग की शुरुआत की, समय गुजरता गया और काफी कुछ मैं सीखता चला गया। और तब सोचा कि जिस तरह मैं जब नया था तो मुझे कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा था तो इस देश में लाखों करोड़ों ऐसे लोग होंगे जो लिखना तो जानते हैं, और अपनी बात लोगों तक पहुंचाना भी चाहते हैं पर ब्लॉगिंग की जानकारी के अभाव में बस खुद तक या अपने दोस्तों तक ही सीमित रह जाते हैं। तो फिर क्यों न ऐसे लोगों को ब्लॉगिंग सिखायी जाये। और इस हेतु मैंने कुछ लेख लिखे जिससे डॉ० अनवर जमाल खान जी सहमत हुये और उन्होने मुझे हिन्दी ब्लॉगिंग के उस ऐतिहासिक कदम का न केवल हिस्सा बनाया बल्कि इस कदम का आगाज करने को भी मुझे ही कहा जिसे आज आप लोग हिन्दी ब्लॉगिंग गाइड के नाम से जानते हैं। 
    आज मैं अनवर जी का बहुत आभारी हूँ जो उन्होने मुझे इस मुकाम तक पहुँचने में मदद की जहाँ मैं अपनी सोच को साकार होता देख रहा हूँ। 
    पर मैं जानना चाहता हूँ कि 

    • आखिर मेरी ऐसी क्या खता थी, क्या गलती थी जिसकी मुझे सजा मिली ?
    • आखिर क्या कोई नहीं चाहता कि नए ब्लॉगर अपना खुद का साझा ब्लॉग बना सकें? 
    • क्या मेरी पोस्ट में ऐसा कुछ मैंने लिखा था जो "Not For Bloggers" था ?
    • क्यों मेरी पोस्ट को 13 लोगों ने देख के भी अनदेखा कर दिया? 
    • क्या पूरे ब्लॉग जगत मे बस 13 ब्लॉगर ही हैं, जो हिन्दी ब्लॉगिंग गाइड से संबन्धित लेख पढ़ना पसंद करते है ? 
    • और क्यों बाकी लोगों ने इसे देखना भी न चाहा ?
    • अगर ऐसा था तो आप लोग मेरी पोस्ट पे आए ही क्यों ? कम से कम दिल को तसल्ली तो होती कि जब किसी ने देखा ही नहीं, तो उस पे प्रतिक्रिया मिलना तो उस सोच से भी परे है जिसके पार एक कवि भी नहीं जा सकता। 

    आज मैं आप सभी से अपने इन सवालों का जवाब चाहता हूँ कि मेरी पोस्ट को नकारा क्यों गया ?

    मैं कोई ऐसा ब्लॉगर भी नहीं हूँ जिसे नकारा जा सके, अगर ऐसा होता तो मेरी कविताओं पे आपकी तालियों की गूंज दिखाई न देती, मेरे लेखों पे, मेरे नए प्रयासों पे आप लोगों की सहमति, आप लोगों की शाबासी भी न मिलती मुझको। 

    आज मुझे आपका जवाब चाहिए ही चाहिए... 

    क्या ? आप चाहते हैं कि मेरा वो लेख फिर से पढ़ के देखने के बाद ही आप मुझे जवाब देंगे ?
    तो फिर ठीक है... 

    ये लीजिये लिंक - 


    फिर मत कहना कि मैंने लिंक भी नहीं दिया और बहुत कुछ बुरा - भला सुना दिया आप लोगों को... 

    नोट - आप सभी से अनुरोध है कि आपके मन में आए जवाब हिन्दी ब्लॉगिंग की गरिमा का ध्यान रखते हुये ही मुझे दें, बेनामी जवाब दे के अपनी पहचान छुपाना एक गरिमामय ब्लॉगर के लक्षण नहीं हैं... 

    धन्यवाद ! 


    आपके जवाबों के इंतज़ार में... 

    - महेश बारमाटे "माही"

    15.10.11

    ...तो ये आपके देशभक्‍त हैं!

    ...तो भाजपा का मानना है कि चाहे डीआईजी डी जी वंज़ारा हों ....या फिर डिप्टी पुलीस कमिश्नर अभय चुडासामा या फिर अमित शाह खुद ...ये सब देश भक्त हैं जिन्हें सोहराबुद्दीन नाम के आतंकवादी को मारने की सज़ा कांग्रेस दे रही है.

    जाहिर है, कि एक शख्स जिसके पास इतनी तादाद में असला ओर गोलियां मिलें वो आंतकवादी ही तो होगा ...हालांकि ये दलील अपने आप में कितनी हास्यास्‍पद है, ये बात क्राईम और आतंकवाद जानने वाले लोग आपको बता देंगे.

    मगर मैं सोहराबुद्दीन का महिमामंडन नहीं करना चाहता. अंग्रेजी मे कहावत हैं, '...दोज़ हू लिव बाए द गन डाई बाए द गन,' यानी जो बंदूक और हिंसा से सनी जिंदगी जीते हैं वो वैसी ही मौत मरते हैं. सोहराबुद्दीन एक हिस्ट्रीशीटर था ..एक एक्सटोरशनिस्ट था ..लिहाजा आज नहीं तो कल ...ये उसका हश्र जरूर होता. मगर सवाल ये कि क्या उसको मारने वाले देश भक्त हैं.

    गौर कीजिए ....पॉप्‍यूलर बिल्डर्स के प्रमोटर रमन पटेल ने कहा है कि उन्‍होंने अमित शाह के खास अजय पटेल को वसूली के तहत सत्तर लाख रुपए दिए थे. और ये पैसे देने के लिए भाजपा के देशभक्त पुलिस अफसर वंजारा ने धमकाया था. पैसे देने के बाद खुद अमित शाह ने उन्हें कॉल किया था.

    वंजारा पर ये पहला इल्जाम नहीं है वसूली का ...इससे पहले भी ये इल्जाम लगते रहे हैं कि वो बाकायदा अमित शाह और खुद अपने स्तर पर लोगों से वसूली करते रहे हैं.

    अब गौर कीजिए देश भक्त नम्बर दो ..अभय चुडासामा पर. ..इन्हें भी अमित शाह की शह हासिल थी और ये न सिर्फ एक्सटोर्शन में माहिर थे, बल्कि इन्हें फिक्सर कहा जाता है, और लोगों की पोस्टिग कराने का भी भरपूर तजुर्बा हासिल है इन्हें. यही इल्जाम एसपी दिनेश एमएन पर है जिनपर राज्य के संगमरमर व्यापारियों ने जबरन वसूली का आरोप लगाया है. तो ये वो तमाम महानुभव हैं जिन्होंने सोहराबुद्दीन को जन्नत या जहन्नुम का रास्ता दिखाया और अब ये लोग भाजपा के देशभक्त हैं.

    मैं नहीं जानता कि देशभक्त होने का ये कौनसा पैमाना है ...मगर ये बात तय है कि सोहराबुद्दीन की मौत इसलिए नहीं हुई क्योंकि वो देश का दुश्मन या फिर 'एनेमी ऑफ दी स्टेट' था ....बल्कि उसकी मौत के पीछे सिर्फ और सिर्फ पैसा था और कुछ नहीं.

    कांग्रेस अपनी आदत से मजबूर है. वो मामले को मुस्लिम रंग देने की कोशिश कर रही है और इस बात में दो राय नहीं कि सीबीआई का अचानक इस मामले में हरकत में आ जाना बिहार की राजनीति से जुड़ा है. यानी इस मामले के दो पहलू साफ हैं. कांग्रेस का शर्मनाक माईनोरिटी कार्ड और भाजपा का हास्यास्‍पद देशभक्ति कार्ड. दोनों ही महान और अब मतदाता को सोचना है कि वो किस पर मोहर लगाए.

    मगर माफ कीजिएगा...न ये देशभक्ति और न ही सोहराबुद्दीन का मामला मुसलमान उत्पीड़न से जुड़ा हुआ है. चलिए राजनीति के इस वाहियात खेल में हम सब शरीक हैं ....और ये आगे क्या रंग दिखाएगा ..उसकी भविष्यवाणी करने के लिए भी आपको सियासत का दिग्गज जानकार होने की ज़रूरत भी नहीं है.

    (अभिसार शर्मा आज तक न्‍यूज चैनल में डिप्‍टी एडीटर हैं. उपरोक्‍त आलेख इनके निजी विचार हैं.)


    ...तो ये आपके देशभक्‍त हैं!

    ...तो भाजपा का मानना है कि चाहे डीआईजी डी जी वंज़ारा हों ....या फिर डिप्टी पुलीस कमिश्नर अभय चुडासामा या फिर अमित शाह खुद ...ये सब देश भक्त हैं जिन्हें सोहराबुद्दीन नाम के आतंकवादी को मारने की सज़ा कांग्रेस दे रही है.

    जाहिर है, कि एक शख्स जिसके पास इतनी तादाद में असला ओर गोलियां मिलें वो आंतकवादी ही तो होगा ...हालांकि ये दलील अपने आप में कितनी हास्यास्‍पद है, ये बात क्राईम और आतंकवाद जानने वाले लोग आपको बता देंगे.

    मगर मैं सोहराबुद्दीन का महिमामंडन नहीं करना चाहता. अंग्रेजी मे कहावत हैं, '...दोज़ हू लिव बाए द गन डाई बाए द गन,' यानी जो बंदूक और हिंसा से सनी जिंदगी जीते हैं वो वैसी ही मौत मरते हैं. सोहराबुद्दीन एक हिस्ट्रीशीटर था ..एक एक्सटोरशनिस्ट था ..लिहाजा आज नहीं तो कल ...ये उसका हश्र जरूर होता. मगर सवाल ये कि क्या उसको मारने वाले देश भक्त हैं.

    गौर कीजिए ....पॉप्‍यूलर बिल्डर्स के प्रमोटर रमन पटेल ने कहा है कि उन्‍होंने अमित शाह के खास अजय पटेल को वसूली के तहत सत्तर लाख रुपए दिए थे. और ये पैसे देने के लिए भाजपा के देशभक्त पुलिस अफसर वंजारा ने धमकाया था. पैसे देने के बाद खुद अमित शाह ने उन्हें कॉल किया था.

    वंजारा पर ये पहला इल्जाम नहीं है वसूली का ...इससे पहले भी ये इल्जाम लगते रहे हैं कि वो बाकायदा अमित शाह और खुद अपने स्तर पर लोगों से वसूली करते रहे हैं.

    अब गौर कीजिए देश भक्त नम्बर दो ..अभय चुडासामा पर. ..इन्हें भी अमित शाह की शह हासिल थी और ये न सिर्फ एक्सटोर्शन में माहिर थे, बल्कि इन्हें फिक्सर कहा जाता है, और लोगों की पोस्टिग कराने का भी भरपूर तजुर्बा हासिल है इन्हें. यही इल्जाम एसपी दिनेश एमएन पर है जिनपर राज्य के संगमरमर व्यापारियों ने जबरन वसूली का आरोप लगाया है. तो ये वो तमाम महानुभव हैं जिन्होंने सोहराबुद्दीन को जन्नत या जहन्नुम का रास्ता दिखाया और अब ये लोग भाजपा के देशभक्त हैं.

    मैं नहीं जानता कि देशभक्त होने का ये कौनसा पैमाना है ...मगर ये बात तय है कि सोहराबुद्दीन की मौत इसलिए नहीं हुई क्योंकि वो देश का दुश्मन या फिर 'एनेमी ऑफ दी स्टेट' था ....बल्कि उसकी मौत के पीछे सिर्फ और सिर्फ पैसा था और कुछ नहीं.

    कांग्रेस अपनी आदत से मजबूर है. वो मामले को मुस्लिम रंग देने की कोशिश कर रही है और इस बात में दो राय नहीं कि सीबीआई का अचानक इस मामले में हरकत में आ जाना बिहार की राजनीति से जुड़ा है. यानी इस मामले के दो पहलू साफ हैं. कांग्रेस का शर्मनाक माईनोरिटी कार्ड और भाजपा का हास्यास्‍पद देशभक्ति कार्ड. दोनों ही महान और अब मतदाता को सोचना है कि वो किस पर मोहर लगाए.

    मगर माफ कीजिएगा...न ये देशभक्ति और न ही सोहराबुद्दीन का मामला मुसलमान उत्पीड़न से जुड़ा हुआ है. चलिए राजनीति के इस वाहियात खेल में हम सब शरीक हैं ....और ये आगे क्या रंग दिखाएगा ..उसकी भविष्यवाणी करने के लिए भी आपको सियासत का दिग्गज जानकार होने की ज़रूरत भी नहीं है.

    (अभिसार शर्मा आज तक न्‍यूज चैनल में डिप्‍टी एडीटर हैं. उपरोक्‍त आलेख इनके निजी विचार हैं.)


    बाल विवाह रोकने की कोशिश


    बाल विवाह रोकने की कोशिश

    शकुंतला वर्मा नाम की महिला सामाजिक कार्यकर्ता का एक हाथ काटे जाने और दूसरे हाथ को बुरी तरह जख़्मी किए जाने की घटना के बाद पूरे इलाक़े में सनसनी फैल गई है.

    राज्य के अधिकारियों का कहना है कि वे भांगरा गाँव में बाल विवाह रोकने की कोशिश कर रही थीं तभी लोगों ने उनके ऊपर हमला कर दिया.

    भारत में बाल विवाह ग़ैर-क़ानूनी है और दंडनीय अपराध है लेकिन ग्रामीण इलाक़ों में अब भी बदस्तूर जारी है.

    बुधवार को भारत में आखा तीज का दिन था, इस दिन भारत के कई हिस्सों में बाल विवाह बड़े पैमाने पर आयोजित किए जाते हैं.

    मध्य प्रदेश के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी पी आहूजा का कहना है कि गाँव के लोग बाल विवाह के बारे में शकुंतला वर्मा की टिप्पणियों से बहुत बुरी तरह से नाराज़ हो गए थे इसलिए यह हमला हुआ होगा.

    शकुंतला वर्मा पिछले चार दिनों से इस गाँव में बाल विवाह के विरोध में प्रचार कर रही थीं.

    मुख्यमंत्री

    राज्य के मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर यह मानने को तैयार नहीं है कि इस हमले का बाल विवाह से कोई सीधा संबंध नहीं है. उन्होंने कहा कि बाल विवाह रोकना सरकार के लिए संभव नहीं है.

    उन्होंने कहा, "बाल विवाह को रोकना संभव नहीं है, क्या नशाख़ोरी और अस्पृश्यता को रोक पाना संभव हो पाया है, गाँधी जी जब यह सब नहीं रोक पाए तो बाबूलाल गौर कैसे रोक सकता है? "

    स्थानीय पुलिस अधिकारी आर एन बोरना ने समाचार एजेंसी एएफ़पी को बताया है कि हमला एक बालिका वधू के भाई ने किया था.

    शकुंतला वर्मा का इलाज एक स्थानीय अस्पताल में चल रहा है और वे ख़तरे से बाहर बताई जाती हैं.

    14.10.11

    सिरफिरा-आजाद पंछी: दोस्ती को बदनाम करती लड़कियों से सावधान रहे.

    सिरफिरा-आजाद पंछी: दोस्ती को बदनाम करती लड़कियों से सावधान रहे.: यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे... प्रिय पाठकों, आज दोस्ती के मायने बदल चुके हैं. आप दोस्ती जैसे पवित्र नाम को बदनाम करती लड़कियों से सावधा...

    माही फ्रेंड अन्ना हजारे!

    कहते हैं कि देश में अगर अन्ना का कोई सबसे बड़ा समर्थक है, तो वो है महेंद्र सिंह धोनी. वो उनकी तारीफ़ करते नहीं थकते. दरअसल अन्ना ने बुरे वक्त में धोनी का काफी साथ दिया है. बहुत अहसान है अन्ना का माही पर. अरे-अरे, मेरी बातों को ज़्यादा सीरियसली मत लीजिएगा. अब ये इत्तेफ़ाक ही कुछ ऐसा है कि आजकल हर कोई यही मज़ाक कर रहा है.


    ऐसा नहीं है कि ये रिश्ता एकतरफ़ा है. दिमाग पर ज़ोर लगाकर याद कीजिए कि आपको जनलोकपाल बिल और अन्ना के बारे में सबसे पहले कब पता चला? वर्ल्डकप के बाद ना? मैंने विश्वकप के दौरान जितने भी मैच कवर किए, छोटे-छोटे झुंड में लोग 'इंडिया अगेंस्ट करप्‍शन' के प्लेकार्ड्स लिए स्टेडियम के बाहर नारेबाज़ी करते थे. मीडिया से समर्थन की गुहार भी लगाते थे, पर उस वक्त क्रिकेट का खुमार कुछ ऐसा था कि हम चाहकर भी उन्हें कवरेज नहीं दे पाए.

    खैर, वर्ल्डकप खत्म हुआ, माही के सिर पर ताज सजा. और फिर 30 साल के विश्वविजेता से ध्यान 74 साल के उस शख्स पर जा टिका, जो देश से भ्रष्टाचार भगाना चाहता था.

    क्रिकेट से सशक्त हुए देश के युवा लामबंद हुए, जाग्रत हुए और वहीं से अन्ना और माही का एक अजीब-सा रिश्ता शुरू हुआ. जब क्रिकेट नहीं होता, अन्ना का आंदोलन ज़ोर पकड़ता. और जब क्रिकेट टीम का निराशाजनक प्रदर्शन होता, तो अन्ना की आंधी में सबकुछ छुप जाता.

    रामलीला मैदान में लहराते तिरंगे वैसे भी किसी क्रिकेट मैदान की ही याद दिलाते हैं, नहीं तो बाकी जगह राजनीतिक पार्टियों के झंडे ही होते हैं, देशभक्ति नहीं.

    माही ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में तो अन्ना पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया, पर भीतर ही भीतर टीम इंडिया में सब अन्ना से प्रभावित हैं. काश, इस मुश्किल दौर में भारतीय क्रिकेट को भी एक अन्ना मिल जाता!


    6.10.11

    तब क्यों छुड़वाया था पाक यात्रियों को आडवानी ने?


    हाल ही भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष तथा पूर्व सांसद औंकार सिंह लखावत व जिलाध्यक्ष व पूर्व सांसद रासासिंह रावत सहित विधायक द्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने अजमेर में बिना अनुमति के पाकिस्तान के वाणिज्य मंत्री के सभा करने पर कड़ा ऐतराज करते हुए दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही के साथ केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम तथा राज्य के गृहमंत्री शान्ति धारीवाल के इस्तीफे की मांग की है। जैसा प्रकरण है, उनकी मांग बिलकुल जायज है। बेशक अजमेर में अवैधानिक तथा सुरक्षा नियमों के विपरीत हुई पाक वाणिज्य  मंत्री मकदूम अमीन फहीम की सभा कराने तथा इसमें सीमावर्ती जिलों से हजारों की तादाद में लोगों को लाने की कार्यवाही राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा है, मगर सवाल ये उठता है क्या भाजपा नेता दोहरा मापदंड अपना  रहे हैं?
    पाठकों को याद होगा कि काफी दिन पहले तीर्थराज पुष्कर में बिना वीजा के घूमते पकड़े गए पाकिस्तान के सिंध प्रांत के 66 हिंदू तीर्थ यात्रियों को कथित रूप से लालकृष्ण आडवाणी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर बिना किसी कार्यवाही के छुड़वा दिया। इतना ही नहीं उन्हें आगे की यात्रा भी जारी रखने की इजाजत दिलवा दी थी। कुछ हिंदूवादी संगठनों व भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के आग्रह पर आडवाणी के इस प्रकार दखल करने से एक नई बहस छिड़ गई थी।
    हुआ यूं था कि जैसे ही पाकिस्तान के सिंधी तीर्थयात्रियों के बिना वीजा पुष्कर में पकड़े जाने की सूचना आई, हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भारतीय सिंधु सभा के पदाधिकारी सक्रिय हो गए। उन्होंने पुष्कर पहुंच कर सीआईडी के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गजानंद वर्मा पर दबाव बनाया कि उन्हें बिना किसी कार्यवाही के छोड़ दिया जाए, क्योंकि वे हिंदू तीर्थयात्री हैं। वर्मा ने उनकी एक नहीं सुनी, उलटे उन्हें डांट और दिया। बहरहाल उन्हें पाक तीर्थ यात्रियों से मिलने और उनकी सेवा-चाकरी करने छूट जरूर दे दी। जब हिंदूवादी संगठनों और विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी को लगा कि स्थानीय स्तर पर दबाव बनाने से कुछ नहीं होगा, उन्होंने ऊपर संपर्क किया। आडवाणी को फैक्स किए और गृह मंत्रालय से भी इस मामले में नरमी बरतने का आग्रह किया। इस पर भी जब दाल नहीं गली तो पाक जत्थे में एक प्रभावशाली व्यक्ति ने भी अपने अहमदाबाद निवासी समधी के जरिए आडवाणी से मदद करने का आग्रह किया। अहमदाबाद निवासी उस व्यापारी के आडवाणी से करीबी रिश्ते होने के कारण आखिरकार उन्हें मशक्कत करनी पड़ी। जानकारी के मुताबिक आडवाणी ने अपने स्तर पर केन्द्र व राज्य के अधिकारियों से संपर्क साधा और पाक तीर्थयात्रियों को बेकसूर बता कर उन्हें छोडऩे का आग्रह किया। भारी दबाव में आखिरकार सीआईडी मुख्यालय को उन्हें बिना कोई कार्यवाही किए आगे की यात्रा के लिए जाने की इजाजत देनी पड़ी।
    उसी के अनुरूप सीआईडी पुलिस के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गजानंद वर्मा को यह रिपोर्ट देनी पड़ी कि तीर्थ यात्रियों ने भूल से वीजा नियमों का उल्लंघन किया है और ट्रेवल एजेंसी संचालकों ने उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं दी थी, मगर जिस तरह घटनाक्रम घूमा, उससे स्पष्ट है कि तीर्थयात्री जानते थे कि वे वीजा में उल्लेख न होने के बावजूद पुष्कर का भ्रमण कर रहे हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि जत्थे में से एक यात्री ने यहां मीडिया को बताया था कि उनका पुष्कर यात्रा का कोई कार्यक्रम नहीं था, लेकिन जब उन्हें मुनाबाव में पता लगा कि पुष्कर भी एक प्रमुख तीर्थस्थल है तो मुनाबाव में भारतीय अधिकारियों ने कहा कि वीजा में पुष्कर का अलग से उल्लेख करने की जरूरत नहीं है, वे चाहें तो खाना खाने के बहाने से वहां कुछ देर घूम सकते हैं। उस यात्री ने ही दबाव बनाया था कि उन्हें मुनाबाव में भारतीय अधिकारियों ने गुमराह किया था, वरना वे पुष्कर में नहीं उतरते।
    बहरहाल, सीआईडी के नरम रुख की चर्चा इस कारण उठी है क्योंकि पिछले उर्स मेले के दौरान चार पाक जायरीन भी इसी तरह बिना वीजा के पुष्कर गए और वहां ब्रह्मा मंदिर में प्रवेश करते हुए पकड़े गए तो उनके खिलाफ सीआईडी की ओर से ब्लैक लिस्टेड करने की सिफारिश की गई थी। तब सवाल ये भी उठाया गया था कि यदि भारत के हिंदू राष्ट्रीयता को छोड़ कर पाकिस्तान के हिंदुओं के प्रति सोफ्ट कॉर्नर रखते हैं तो यदि भारत के मुसलमान कभी पाकिस्तान के मुस्लिमों के प्रति सोफ्ट कॉर्नर रखते हैं तो उसमें ऐतराज क्यों किया जाता है? यानि कि धर्म निश्चित रूप से राष्ट्रों की सीमा से बड़ा है।
    उससे भी बड़ी बात ये है कि एक ओर तो भाजपा बिना अनुमति के पाक मंत्री की सभा होने पर ऐतराज करती है, दूसरी ओर बिना बीजा के पुष्कर आए हिंदू पाकिस्तानियों के प्रति नरम रुख रखती है। सही क्या है और गलत क्या, यह पाठक ही तय कर सकते हैं।
    tejwanig@gmail.com

    2.10.11

    2 October

    मसला कोई भी और कितना भी बिगड़ा हुआ क्यों न हो लेकिन वह जब भी सुलझेगा , बातचीत से ही सुलझेगा .
    यह एक अहम सूत्र है.
    ब्लॉगर्स मीट वीकली का मकसद यही है कि फासले कम हों और गलतफहमियां दूर हों .
    आप सभी के विचार अमूल्य हैं , हिन्दी ब्लौगिंग को समृद्ध करने में इनका उपयोग करें.

     ब्लॉगर्स मीट वीकली (11)

    क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार