20.4.11

क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ?

क्या  इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ?
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अपनी जान को दांव पर लगा देने वाले बुजुर्ग समाजसेवी अन्ना हजारे की तारीफों से आजकल मीडिया का हर कोना भरा हुआ है। नवभारत टाइम्स के इस ब्लॉग पर भी कई साथी ब्लॉगर (ताजा उदाहरण है रमाशंकर सिंह के ब्लॉग बतंगड़ की नई पोस्ट) यह काम कर चुके हैं। ठीक भी है। आखिर अन्ना कोई निजी लड़ाई तो लड़ नहीं रहे। भ्रष्टाचार से देश की बहुत बड़ी आबादी पीड़ित है और इन सबकी तरफ से पहलकदमी करते हुए अन्ना ने अगर आमरण अनशन का संकल्प कर लिया है तो यह कोई छोटी बात नहीं। हर संभव तरीके से अन्ना की इस मुहिम को न केवल समर्थन देना चाहिए बल्कि और मजबूत बनाते हुए इसे इसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए।
मगर सवाल यह है कि इसे मजबूत बनाने के क्या तरीके हो सकते हैं। एक तो यह कि इसकी तारीफ करते हुए शब्दों का पहाड़ खड़ा कर दिया जाए। आम तौर पर पूरा मीडिया यह काम कर ही रहा है। दूसरा तरीका यह है कि सांकेतिक और क्रमिक अनशन, रैली, मोमबत्ती मार्च आदि कार्यक्रमों के जरिए अन्ना की मुहिम को समर्थन दिया जाए। यह काम भी देश के तमाम हिस्सों में हो रहा है। इसके अलावा एक और तरीका है अन्ना की इस मुहिम को मजबूती देने का। वह है इस मुहिम के वैचारिक पक्षों की पड़ताल करते हुए इसकी कमजोरियों को रेखांकित किया जाए ताकि उसे दूर कर इस मुहिम को ज्यादा कारगर बनाया जा सके।

सच पूछें तो यह सबसे जरूरी काम है जो इस मुहिम के शुभचिंतकों को करना चाहिए। लेकिन, यही काम ढंग से होता नहीं दिख रहा। मुहिम का शोर तो बहुत हो रहा है, लेकिन इसे ज्यादा मजबूत, ज्यादा कारगर, ज्यादा तर्कसंगत बनाने की कोशिश कम से कम सार्वजनिक मंचों पर अपवादस्वरूप ही दिख रही है। चूंकि अन्ना हजारे का कोई निजी स्वार्थ नहीं है और सार्वजनिक कल्याण के भाव से सबके हित को देखते हुए उन्होंने यह मुहिम शुरू की है, इसलिए निश्चित तौर पर खुद अन्ना भी ऐसी किसी कोशिश का समर्थन ही करेंगे। मगर, यही बात उनके उन उत्साही समर्थकों के बारे में नहीं कही जा सकती, जो इस मुहिम का शोर मचाते हुए इसके लिए जीने-मरने का खोखला एलान करने को ही सफलता की गारंटी समझ बैठे हैं। बहुत संभव है कि ऐसी किसी कोशिश को ये उत्साही समर्थक मुहिम के विरोध के रूप में लें और ऐसा करने वालों को विरोधी खेमे का करार दें। यह भी एक वजह हो सकती है ऐसी किसी कोशिश के सामने न आने की।

मगर, यह जरूरी है। खासकर इसलिए भी कि अगर इस मुहिम के वैचारिक पक्ष की कमजोरियों पर एक नजर डालें तो साफ हो जाता है कि यह मुहिम अपने मौजूदा स्वरूप में दुश्मन का (अगर दुश्मन किसी खास व्यक्ति को नहीं बल्कि भ्रष्टाचार की सर्वव्यापी प्रवृत्ति को माना जाए) कुछ खास नहीं बिगाड़ सकती। अधिक से अधिक यह देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का माहौल बना सकती है लेकिन वह भी बहुत थोड़ी देर के लिए। अगर इस मुहिम ने अपने रंग-रूप और चरित्र में बड़े बदलाव नहीं किए तो प्रबल संभावना यही है कि कुछ ही दिनों में यह मुहिम देशवासियों के मन में जीत का झूठा एहसास दिलाते हुए समाप्त हो जाए। और अगर ऐसा होता है तो इसके लिए जिम्मेदार सरकार और विपक्ष में बैठी वे ताकतें नहीं होंगी जो रूप बदलने की कला में माहिर हैं और ज्यादातर मामलों में दुश्मन के ही वेश में दुश्मन के सामने जाती हैं ताकि लड़ाई के निर्णायक पलों में दुश्मन को अपने समर्थकों से खास मदद न मिल सके। इसके लिए जिम्मेदार होंगे वे लोग जो इस मुहिम के समर्थक हैं, इसे कामयाब बनाना चाहते हैं, लेकिन इसे मजबूत और कारगर बनाने की कोशिश नहीं कर रहे, यह सोचकर कि कहीं उन्हें विरोधी न मान लिया जाए।

बहरहाल, बात मुहिम की कमजोरियों की हो रही थी। इस मुहिम की सबसे बड़ी ताकत अगर अन्ना की निष्पक्ष और ईमानदार छवि है तो इसकी सबसे बड़ी कमजोरी इसका अराजनीतिक चरित्र है। ध्यान दें कि राजनीति का मतलब किसी खास दल से जुड़ाव ही नहीं है। अगर यह आंदोलन मौजूदा सभी राजनीतिक दलों को खारिज करता है और खुद को उन सबसे अलग रखता है तो यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन, अगर यह राजनीति मात्र को अपने एजेंडे से बाहर रखता है तो इसका मतलब यह जाने-अनजाने खुद को और लोगों को भुलावे में रख रहा है। यही इस आंदोलन का सबसे कमजोर बिंदु है और इसी वजह से इसका पिटना करीब-करीब तय है।

आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए।

पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार के राक्षस का खात्मा हो जाता है तो उन्हें कल नहीं आज कैबिनेट से निकाल फेंकना चाहिए। लेकिन क्या समस्या इतनी सरल है? क्या पवार को हटा देने से भ्रष्टाचार मिट जाएगा? कृपया यह न कहें कि कम से कम एक शुरुआत तो होगी। अन्ना ने अपनी जिंदगी शुरुआत के लिए दांव पर नहीं लगाई है, खात्मे के लिए लगाई है। हमारा मकसद भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत करना नहीं, बल्कि उस लड़ाई का निर्णायक और पॉजिटिव अंत करना है। क्या किसी पवार, किसी मोइली, किसी सिब्बल के कैबिनेट से हट जाने से यह मकसद हासिल हो जाएगा? कहने को तो कांग्रेस भी कह रही है कि उसने ए. राजा को कैबिनेट से हटाकर जेल तक पहुंचा दिया और इस प्रकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाया है। क्या उसके इस दावे को स्वीकार किया जा सकता है?

2 टिप्‍पणियां:

viseshank ने कहा…

pawar ko nikal dena chahiye

Rajani ने कहा…

!सोनिया गांधी के पास पावर है,
लेकिन
ज़िम्मेदारी नहीं है
और मनमोहन सिंह की पास ज़िम्मेदारी है तो पावर नहीं है,

अब और अधिक नहीं चल सकती. यह व्यवस्था यूपीए-1 के दौरान तो कामयाब रही,

क्योंकि आज के मुक़ाबले तब के गठबंधन के सहयोगियों के कुछ सिद्धांत थे.
जैसा कि अब नहीं है.
पिछले कुछ महीनों में राजनीति का जन सरोकारों से मानो
नाता खत्म सा हो गया है.­ ­

क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार