25.4.11

सीख या शिक्षा

gulab kothari special article

विदेशों में भी यह सब कुछ दिखाई नहीं देता। वहां भोग भूमि होने से कोई अपेक्षा भी नहीं रखता। यहां कर्मयोग की भूमि है। यहां बच्चे आज भी मां-बाप का सम्मान करते हैं। मां-बाप की हर गलती को माफ करते रहते हैं। विश्व में अन्यत्र ऎसा दिखाई नहीं देता। यही देश के स्वर्णिम भविष्य का संकेत है।

नई पीढ़ी की माताएं स्वतंत्र रहकर जीना चाहती हैं। परिवार का उत्तरदायित्व उनको बोझ लगने लगा है। वह बेटी को भी स्त्रीत्व एवं मातृत्व की शिक्षा नहीं देती। उसे इस बात पर गर्व है कि उसके घर में बेटे-बेटी में किसी तरह का भेद भाव नहीं होता। जो बेटे को नहीं वह बेटी को भी नहीं। यही तो स्कूली शिक्षा का भी आधार है। बेटी के लिए तो ऎसी माता को कुमाता ही कहा जाना चाहिए। हमारे शास्त्र तो कहते हैं कि पूत कपूत हो सकता है, माता कुमाता नहीं हो सकती। नई मां ने, शिक्षित मां ने शास्त्रों को झूठा साबित कर दिया। और बेटियां पूरी उम्र मां की इस गलती की सजा पाती हैं। कभी उफ भी नहीं करतीं। मां की शिकायत, मां पर क्रोध, अथवा कोई प्रतिक्रिया भी नहीं करतीं। क्या ऎसी सपूत बेटियां पूजा करने लायक नहीं हंै? 

जब बेटे-बेटी दोनों ही सपूत हैं, सुसंस्कृत हैं, तब कमी कहां है कि इस देश को जिधर जाना चाहिए, उधर नहीं जा रहा। किसी अन्य ही दिशा, रसातल में जा रहा है। इसका उत्तर हमारी शिक्षा प्रणाली में देखा जा सकता है। ये हमारी मानवता और मानवीय संवेदना छीन लेती है। यांत्रिक एवं शुद्ध बौद्धिक एवं शारीरिक धरातल पर जीने को बाध्य कर देती है। व्यक्ति को स्वयं से अलग करके, भीतर से हटाकर, बाहर भटकने को सुख कहकर भ्रमित करती है। विज्ञान के नाम पर कोरी भौतिकवाद की अवधारणा परोसती है। व्यक्ति मानवीय मूल्यों को छोड़कर विषयों में गोते लगाता है। मुक्त होने की भूलकर पेट से, पूरी शक्ति के साथ, बंध जाता है। संस्कारों की नींव पहले ही मां ने नहीं डाली। 

शरीर पर जीवात्मा हावी हो जाता है। स्वतंत्रता के स्थान पर स्वच्छन्द जीना चाहता है। जिस शरीर को जीवात्मा छोड़कर आया है, उसी के अनुरूप इस मानवदेह का उपयोग करता है। इसी को तो जैविक संतान कहा जाता है। शरीर में मातृ-पितृ वंश की सात-सात पीढियों का अंश रहते हुए भी, प्रारब्ध में अच्छा कुल, साधन-सुविधाओं के रहते हुए भी व्यक्ति का जीवन आहार-निद्रा-भय-मैथुन (पशुवत्) में ही व्यतीत हो जाता है। पिछले कर्मो का सुख तो भोग जाता है, किन्तु नए कर्म उचित दिशा में नहीं करने से भविष्य या नए निर्माण की संभावनाएं नगण्य हो जाती हैं। व्यक्ति जो भोग रहा है उस सारे को अपने वर्तमान कर्म का फल ही मानकर भोग रहा है। इसमें प्रारब्ध का अंश मानने को वह तैयार ही नहीं है। अत: वह अपने कर्म और कर्मफल से अत्यघिक संतुष्ट है। 

बिना कर्म किए भी बीस-पच्चीस साल तक सुख भोगता है तब भी इस ओर उसका ध्यान नहीं जाता। इस मिथ्या दृष्टि ने  उसके जीवन का अवमूल्यन करना शुरू कर दिया। अब कर्म उसके लिए नित्य न होकर आवश्यकता से जुड़ गया। उसे विश्राम चाहिए, धन का भोग भी चाहिए और मनोरंजन भी। एक समय खाना खाने के लिए वह 3-4 घण्टे खर्चकर गर्व महसूस करता है। सिनेमा, टीवी या पिकनिक का क्रम उसके वर्तमान को घुन की तरह खाने लगा है। शरीर सुख, भले कितना ही क्षणिक, अल्पकालिक हो, उसकी प्राथमिकता बन गया। अत: वह दूसरों के लिए कष्ट पाने को भी तैयार नहीं होता। उसका जीवन 'पेट' तक, अपने परिवार तक ठहर जाता है। वसुधैव कुटुबकम् शायद द्वापर में ही रह गया। यहां आकर समझ में आता है कि शिक्षा ने जीवन को कैसे कछुए की तरह समेट दिया। शिक्षा का एक ही उपयोग रह गया - नौकरी प्राप्त करने लायक बन जाना, ताकि सुख से पेट भरकर जी सकें। यानि पेट भरना सीखने के लिए बीस साल की शिक्षा चाहिए और मां-बाप की उम्रभर की कमाई लगाने की जरूरत पड़ती है। कर्जा भी लेने की जरूरत पड़ जाती है।

दूसरी ओर इसी शिक्षा से व्यक्ति अकेला रहना सीख जाता है। पहला कारण होम-वर्क। इतना होम-वर्क कि अध्यापक नहीं पढ़ाए तो भी बच्चा पास तो हो ही जाएगा। दूसरा मां का डर। सन्तान के अच्छे नंबरों से ही मां के अहं की तुष्टि होती है। भले वह स्वयं कई बार फेल होने वाली रही हो। मां के दबाव के कारण तथा आज तो भ्रष्ट शिक्षकों के कारण टयूशन भी शिक्षा का अनिवार्य अंग बन गया है। स्कूल फीस के बराबर का नया खर्चा। इसने बच्चे का बचपन भी छीन लिया। यह है नई मां की ममता का प्रमाण।

तीसरा टीवी और इण्टरनेट। बच्चे इनसे हटते ही नहीं। माताएं प्रसन्न। क्योंकि बच्चे उनको तंग करते ही नहीं। न तो बच्चों को बाहर जाकर खेलने को प्रेरित किया जाता है, न ही घर आए मेहमानों से, परिजनों से मिलने के लिए। मां ही झूठ बोलकर बच्चों की गलती ढकती है। इनका सर्वागीण विकास तो होता ही नहीं। न समाज से जुड़ पाते हैं।

और सबसे बडे शत्रु हैं स्वयं शिक्षा पद्धति, पाठयक्रम और छुियों का कलैण्डर। इनका हमारी जीवन शैली से कोई लेना-देना ही नहीं है। संस्कृति शब्द का अपमान है शिक्षा। किसी भी स्कूल कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रम को देख लें। सिवाए मनोरंजन के और कुछ होता ही नहीं। हम बच्चों को यह समझा रहे हैं कि हमारी संस्कृति केवल नाचने-गाने की है। इसमें कौन आकर क्यों तालियां बजा जाते हैं, कुछ पता नहीं। देश की नाक तो कट रही है। इसी से हम स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। है न मेरा देश महान! बच्चों के जीवन का हाल भी शिक्षा में संस्कृति जैसा ही हो जाता है। मां-बाप खुश हैं कि बच्चों को अच्छे स्कूल में पशु बना रहे हैं। धन खर्च कर रहे हैं। सारे बच्चे रेल के डिब्बों की तरह एक जैसे फैक्ट्री से निकलते हैं। जबकि ईश्वर ने किसी दो को भी एक जैसा पैदा नहीं किया। सब अपने आप में अद्वितीय भी हैं। 

सब में उसी ईश्वर का अंश भी है, प्रारब्ध भी है। शिक्षा ने सब कुछ रूढि बताकर बाहर निकाल दिया। मां-बाप भी उसी शिक्षा की देन हैं। पूरे देश को इस शिक्षा ने शाश्वत आत्मा के धरातल से ही दूर कर दिया। ऋषियों के अनुभव भी शिक्षा में उपलब्ध नहीं हैं। प्रकृति जैसी चीज से जीवन का सरोकार ही नहीं रहा। ये सारा शिक्षा ने छीन लिया। जिसके पास बचा है, उससे भी कानून बनाकर छीनना चाहती है। यही आतंकवाद का भी कारण है और स्थानीय हिंसा का भी। क्योंकि सबकी मां मरती जा रही है। उसकी जगह बस एक औरत रह गई। इसी औरत की सन्तान से विश्व की औरतें त्रस्त हैं। ये सारा परिणाम बस एक शिक्षा से। 

शिक्षा एक और गारण्टी देती है-व्यक्ति को पूर्ण नहीं बनने देगी। वह कुछ काल सुविधाओं का सुख भोग सकता है, किन्तु जीवन में शान्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। न ही बीमारी उसका पीछा छोड़ेगी। जिस शरीर के आधार पर मुक्ति का स्वप्न देख पाता, वह तो आकण्ठ भोग में उतर गया। बाहर-बाहर दौड़ते-दौड़ते इतना आगे निकल गया कि फिर स्वयं तक लौट ही नहीं सकता। चाहे कितना भी योग सीख ले। न ही वह अपने जन्मदाता के साथ जी पाता है। जो अन्तर ईश्वर ने मानव और पशु में पैदा किया उसे शिक्षा ने मिटा दिया। विश्वभर में आज  का ही आतंक छाया हुआ है। चाहते हो शिक्षित होना?

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क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार