एक पत्र, अन्ना के नाम
प्रिय श्री अन्ना हज़ारे जी, आपके आन्दोलन को मिल रहा अपार जनसमर्थन इस बात का द्योतक है कि लोग व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं. टीवी देख कर, समाचार पत्रों को पढ़ कर तो ऐसा लग रहा है कि अगर आपका आन्दोलन सफल हो गया तो भ्रष्टाचार फिर किताबों में ही पढ़ने को मिलेगा या फिर दादी-नानी के किस्से कहानियों में. ऐसा होता है तो इससे अच्छा और क्या होगा, पर मैं दो-चार बातें कहना चाहूंगा. उपवास का मैं विरोधी नहीं, उपवास करना चाहिए. गाँधी जी भी करते थे और उन्होंने कहा भी है कि भोजन करना एक अशुचितापूर्ण कार्य है ठीक उसी तरह जैसे मल त्याग करना. अंतर सिर्फ इतना है के मल त्याग करने के बाद हम राहत महसूस करते है और भोजन करने के बाद बेचैनी.
अतः उपवास करना ठीक है, पर उपवास का उपयोग एक हथियार के रूप में अपनी बात मनवाने के लिए किया जाए ये कहाँ तक उचित है. ये ब्लैकमेलिंग है. प्रकारांतर से हिंसा है. एक बड़ा बौद्धिक वर्ग आपके साथ है, समर्थन में है फिर ये अतार्किक रास्ता क्यों. या तो आपके व उनके तर्कों व प्रयासों में दम नहीं के अपनी बात मनवा लें या फिर सरकार निरंकुश हो गयी है. हम आमजन के लिए दोनों ही स्थितियाँ खतरनाक हैं. समस्या दोनों तरफ है, दोनों ही आमजन से संवाद स्थापित करने की कला भूल गए हैं. ऐसे में एक ही रास्ता बचता है, अतिवाद का. आप भी वही कर रहे हैं. सरकार भी वही करेगी. सत्य और समाधान कहीं बीच में खो के रह जायेंगे.
आप जिस जनलोकपाल अधिनियम को पारित करना चाहते हैं, या कि जो सरकार लाना चाहती है वो कैसे समस्या का समाधान करेंगे मेरी समझ से परे है. कुल मिला के आप और सरकार दोनों सहमत हैं कि भ्रष्टाचार रहे, लोग पीड़ित भी होते रहें, तसल्ली ये रहे के भाई भ्रष्टाचारी को सजा मिलने की उम्मीद रहेगी. परिणामतः में एक और समस्याकारक संस्था हमारे सामने होगी. हम कितनी संस्थाएं एक के ऊपर एक बैठाते जायेंगे. ऐसी संस्थाएं बनाने से भ्रष्टाचार नहीं मिटता. किला मजबूत होने से दुश्मन के अन्दर आने का भय कम नहीं होता.
काश आप कोई ऐसी आयोजना करते कि भ्रष्टाचार के मूल पर प्रहार होता. आप जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं उससे कई गुना ज्यादा खतरनाक है बौद्धिक भ्रष्टाचार जो आपके, मेरे, हम सबके चारों ओर पसरा हुआ है, पर दीखता नहीं. ये आर्थिक भ्रष्टाचार इसी बौद्धिक भ्रष्टाचार की उपज है.
काश के आप कहते और आन्दोलन करते कि भाई देश में सभी के लिए एक न्यूनतम जीवन स्तर निर्धारित हो, जो कि ऐसा हो कि व्यक्ति सुविधापूर्ण जीवन जी सके. रोटी मिले, कपड़ा मिले, मकान मिले, बीमारी में चिकित्सा मिले, भविष्य के प्रति अनिश्चितता ना हो. असुरक्षा का भाव ना हो. लोगों के बीच प्रेम बढ़े, भाईचारा बढ़े. राज्य सबकी शिक्षा का प्रबंध करे. सभी एक साथ पढ़े, एक जैसे विद्यालय हो, एक जैसी सुविधाएं हों. समाज के एक बहुत बड़े वर्ग के साथ तो ऐसा घटना ही चाहिए तभी हम कह सकते हैं कि हम सुखी हैं. हमारा देश हमारा समाज सुखी है.
काश कि आप कहते और आन्दोलन करते कि भाई संविधान का अंगीकार किया जाना सामजिक संविदा एक थी. तो आओ उस संविदा का अनुपालन सुनिश्चित करें. संविधान कि वे उपबंध जो कि निर्जीव पड़े हैं उन्हें जीवित करें. वे कब तक काले कोट वालों के रहमो-करम पे पड़े रहेंगे. आप कहते कि अब समय आ गया है आर्थिक समानता को जड़ से उखाड़ फेंकने का. सिर्फ राजनितिक समानता से तो कुछ ख़ास हासिल नहीं होता. विनोबा ने भूदान के लिए कहा आप बड़े लोगों से अतिरिक्त पूँजी राज्य को वापस करने के लिए कहते. यूं पूँजीपति होना बुरा नहीं, अरबपति होना बुरा नहीं. पर एक कल्याणकारी समाजवादी राज्य में ये अखरता है कि जनता दो ध्रुवों में बंट जाए, एक छोर पे चंद अरबपति हों दूसरे पे आमजन, ये कैसे चलेगा ये नहीं चल सकता. और फिर क्यों चाहिए किसी को इतना पैसा. अगर कुछ के पास आवशयकता से अधिक है तो निश्चय ही बहुतों के पास आवशयकता से कम होगा या बिलकुल नहीं होगा. फिर कैसे मिटेगा भ्रष्टाचार कैसे बनेगा शांत सुखी और सम्रद्ध समाज.
हम वोट देते हैं, या नहीं भी देते हैं तो भी हैं तो इस देश के नागरिक. हम जन्मते हैं और बंध जाते हैं उसी सामाजिक संविदा से. जब हमें बाँधा जाता है तब हम कोई उपाय करने के लायक नहीं होते और जब हम उपाए करने के लायक होते हैं तब कोई उपाय रह नहीं जाता. काश आप इसके लिए कोई उपाय कोई आयोजना करते.
पर अफ़सोस अपने ऐसी कोई आयोजना, कोई उपाय नहीं किया. आप मूल पे प्रहार करने का प्रयास करते नहीं दिखते. आपने शरद पवार पे कई प्रश्न उठाये. ऐसे प्रश्न कई और मंत्रियों पे भी किये जा सकते हैं. ठीक भी है. तब आप कुछ ऐसा करते के शरद पवार के निर्वाचन क्षेत्र में जाते और जनता से सीधे संवाद करते उन्हें बताते के शरद पवार के कारनामे. आपके सहयोगी जैसे काले कोट वालों की संपत्ति का ब्यौरा जुटाते हैं वैसे ही शरद पवार की संपत्ति का भी जुटाते. जनता को सुझाते के ये आदमी देश समाज के लिए खतरा है, भ्रष्टाचार का पोषक है इसे वापस बुलाओ दोबारा कभी ना चुनना जब तक ये तौबा ना कर ले. हो सकता है ऐसा कोई उपाय निकल आता कि किसी जनप्रतिनिधि को वापस भी बुलाया जा सके. और आप वही से अपने अपना आन्दोलन संचालित करते. ओबी वैन वहां भी पहुँच जाती, रवीश कुमार वहां भी पहुँच जाते.
आप जनता को समझाते के भाई इन राजनीतिज्ञों को छोड़ दो. क्यों बंधक बनाये हो इन्हें जवानी से. क्यों मजबूर कर रहे हो इन्हें कि ये बार-बार एमपी बने. और अब तो तुमने इनके जवान-जवान बच्चों को भी एमपी बनने के लिए मजबूर कर दिया है. अब कोई कारण नहीं के इन बूढ़ों को ढोया जाय. पवार साहब 1967 से लगे हैं, प्रणब दा 1969 से लगे हैं और भी बहुत हैं जो परिवार समेत बस गए हैं संसद में. अब तो इनका बोरिया-बिस्तर बांधो. शायद कोई बात निकल के आती कि भाई चार-पांच बार से अधिक कोई क्यों संसद जाए. संसद है कोई ज़मींदारों का अड्डा नहीं.
अपने ऐसा नहीं किया, पर ऐसा तो करना पड़ेगा. आँखों में एक यूटोपिया तो रखना पड़ेगा. हमें अच्छे आदमी तो बनाने ही होंगे. जब देश और समाज सोचेगा ही नहीं अच्छे आदमी बनाने के बारे में तो कैसे चलेगा. जब इंसान को हिन्दू बनाया जा सकता है, मुस्लिम बनाया जा सकता है, सिख बनाया जा सकता है तो साथ ही उसे अच्छा इंसान भी बनाया जा सकता है. आज नहीं तो कल. आप नहीं तो कोई और. बिना ऐसे आमूलचूल परिवर्तन के कुछ हासिल होने वाला नहीं. आपने जाने अनजाने राजनीति को अवमूल्यित करने का प्रयास किया है. उसके प्रति विरक्ति का भाव निराशा का भाव पैदा करने का प्रयास किया है. ये मुझे स्वीकार नहीं. ऐसे प्रयास और भी सँस्थाए करती रहती हैं. उनमें दो प्रमुख हैं. मीडिया और मार्केट. पर भारत जैसे देश में राजनीति को हल्का करना एक खतरनाक और कुटिल प्रयास होगा.
हाँ एक बात है. आपको मिले समर्थन से ये स्पष्ट है के जनता बदलाव चाहती है. सही नेतृत्व की तलाश है. आपको देख के मुझे लगा कि हम लोग 'राजनीति' शब्द का प्रयोग क्यों करते हैं, इस शब्द का प्रयोग बंद कर देना चाहिए. जब राजा नहीं तो राजनीती कैसी. हमें कहना चाहिए 'जननीति'. और आप एक जननीतिज्ञ हैं.
सरकार तो खैर आपकी बात मानेगी ही. क्योंकि वे लोग जनता की नब्ज आपसे बेहतर समझते हैं. आप प्यारे इंसान हैं. हम आपको यूं मरने नहीं दे सकते. मैं कल अपने शहर बरेली के अयूबखां चौराहे पे जाऊंगा आपके समर्थन में मानव श्रृंखला बनाने. आपसे असहमति अलग बात है. पर जनता की आवाज में आवाज मिलाना ज़रूरी है. उम्मीद बंधी रहती है प्रदीप सर जैसे कुछ सच्चे कुछ निस्वार्थ लोगों से मिलकर, उनसे जुड़कर.
आभार
दिनेश पारीक
1 टिप्पणी:
अपने जो कहा वह नयी बात नहीं है मुद्दतों से लोग कह रहे हैं...ये बातें बाद की हैं पहले भ्रष्टाचार के विरुद्ध मन्थन तो हो...यही अन्ना के प्रयोग की सार्थकता है, कहीं से प्रारम्भ तो हो...
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