सास
अज्ञान का अपना अहंकार है और ज्ञान का अपना अलग। अज्ञानी अहंकार वश जितना अहित कर सकता है, ज्ञानी उससे कई गुणा अघिक नुकसान कर सकता है। वह नुकसान करने के 'क्या' और 'कैसे' को अच्छी तरह जानता, समझता है। आज तो शिक्षित भी उतना ही भले-बुरे को स्थूल दृष्टि से देखता है, जितना कि एक अज्ञानी। आज सास बहू के सम्बन्धों में इस तथ्य की झलक देखी जा सकती है। अघिकांशत: बहुएं तो शिक्षित आने लग गई। सास श्रेणी में अभी आधे से अघिक अशिक्षित हंै। इसमें एक श्रेणी और जुड़ गई। पति कम पढ़ा-लिखा अथवा बेरोजगार शिक्षित। तब उसका अपना अलग अहंकार तथा परिस्थिति जन्य संकुचन। 'इन्फीरियरटी काम्प्लैक्स' इसके बाद भौतिकवाद का नासूर। मां-बाप यह सोच नहीं पा रहे कि उन्होंने बेटियों को पढ़ाकर सही किया या गलत।
जिस नारकीय स्थिति में ऎसी बहुएं, विशेषकर कस्बों में, जी रही हैं, मार भी खाती हैं, नौकरी भी करती हैं, बच्चों को भी पालती हैं तथा घर वाले उसकी कमाई भी ले लेते हैं। किसी के मन में यह प्रश्न भी नहीं उठता कि बच्चों के मन पर क्या संस्कार पड़ते हैं। मां की स्थिति को देखकर वे पिता, दादी आदि के बारे मेें क्या सोचते होंगे। आत्मा तो सब में एक जैसी है। समझ में बराबर है। शरीर की सीमा तो उम्र के कारण होती है। ये बच्चे बड़े होकर घर वालों से कैसा व्यवहार करेंगे, इसका तो अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। इससे भी बड़ा प्रश्A यह है कि सास ने इतने वर्षो में यहां रहकर क्या सीखा। क्या इसके कोई सास नहीं थी। किस वातावरण में सास को रहना पड़ा। घर की आर्थिक स्थिति क्या थी।
क्या सास के घर वालों ने (सास-ससुर) पीहर वालों के लिए दबाव डाला था। सास की यह मानसिकता कैसे बनी। क्या इसके मन में भी डर है कि बहू आगे निकल जाएगी तो मेरी नहीं सुनेगी 'इन्फीरियरटी काम्प्लैक्स'। क्या ऎसी सास बहू को घर की परम्पराओं की जानकारी दे पाएगी। यदि वह अपनी अलग जीवनशैली बनाकर जीती है, तो उसके बाद यह घर क्या बंधा हुआ रह सकेगा। क्या बच्चे बड़े होकर इनके व्यवहार का हिसाब नहीं करेंगे। आखिर अपने किए का फल तो स्वयं व्यक्ति को ही भोगना पड़ता है।
सास का शब्दार्थ है प्रकाशित करने वाली। बहू रूप में आई कोंपल को फूल-सा खिलाना, फूल की सौरभ बिखेरना, बगिया को हरा-भरा रखना और उसका विकास करते रहना। इस बगिया के लिए अगली पीढ़ी के माली तैयार करना। नई पीढ़ी की बहुएं किसके भरोसे इस घर में आएंगी। कौन उसको सास बनाएगा। घर-परिवार की विरासत सौंपेगी। बहू में 'ब' का अर्थ छिपा या दबा होना। 'ह' भी शक्ति के साथ प्रकट करने के लिए उपयोग किया जाता है। विसर्ग को दो गुना ताकत से बोलना ही 'ह' है। 'ऊ' का अर्थ है दूर-ऊपर-परे। बहू एक परिवार की संस्कृति साथ लेकर आती है। अहंकार वश सास उस संस्कृति का सम्मान नहीं करती। न ही कोई नई संस्कृति का दर्शन समझाती है। अत: जिस प्रकार पति-पत्नी एक न होकर दो रहते हैं, उसी प्रकार सास-बहू भी एक नहीं होते। ऎसे परिवारों को उजड़ने से कौन बचा सकता है। विधाता भी नहीं। क्योंकि संतान संवेदनशील नहीं होगी। वह पिता का भी अपमान करेगी और दादी का भी।
इस सारे वातावरण में चिंतित कौन दिखाई पड़ता है- या तो बहू अथवा बहू के पीहर वाले। बहू पर घर के बड़े हाथ उठाते हैं। पड़ौसी दुखी होते हैं। भारतीय पत्नी फिर भी पति के लिए आलोचना नहीं सहन कर पाती। इसी कारण तो अन्याय भी सहन करती है। घर में किसी को यह बात ध्यान में नहीं आती कि सास के बाद यही बहू इस घर की स्वामिनी भी होगी। यदि यह नाराज हुई तो इस घर के दरवाजे सबके लिए बन्द हो जाएंगे। स्वजन, परिजन उसकी मर्जी से ही घर पर आ सकेंगे। ठहर सकेंगे। वही इस घर की संस्कृति का निर्माण करेगी। इस परिस्थिति का लाभ अन्य लोग भी उठाने का प्रयास करते हैं। घर की महिलाएं सास के साथ जुड़ जाती हैं। वही घर की महिला-सत्ता का केन्द्र होती है। एक तरफ बहू तथा दूसरी ओर पूरा परिवार। शब्दों के कांटों का अनुमान लगाया जा सकता है। कोई उसको महत्वपूर्ण मानता ही नहीं। उसके बच्चे सुविधाओं से वंचित रहते हैं अपने ही घर में। इस घर का भविष्य इन्हीं के कंधों पर होगा।
एक सास होती है धनाढय घरों की। संस्कारों से पूर्णतया अनभिज्ञ। स्त्री भाव, मातृत्व एवं गृहस्थी का अनुभव ही नहीं। सभी प्रश्Aों का एक ही उत्तर-पैसा। उस हैसियत को भोगने की इच्छा मांगती है स्वतंत्रता। गृहस्थी मांगती है बन्धन। इस घर में हर कोई स्वतंत्र रहता है। उत्तरदायित्व, सौहाद्रü, धैर्य जैसे गुण लुप्त होते जाते हैं। सबसे पहले घर का खान-पान नौकरों के हवाले हो जाता है। मातृत्व भाव का मिठास खो चुका होता है। यही भाव घर के सदस्यों में घर कर जाता है। मिठास पर टिकी घर की नींव हिल जाती है। धीरे-धीरे घर के सारे काम छोड़कर व्यक्ति कर्महीन बन जाते हैं। वैसा ही उनका भविष्य निर्मित होता है। सुख है, शान्ति नहीं है। धन का अहंकार मर्यादा को स्वीकार भी नहीं करता तथा भोग के बाहर सुख भी नहीं मांगता। संवेदना पीछे छूट जाती है। परिजन एक ओर खड़े देखते रहते हैं। सास खाली हाथ, तो बहुएं दो कदम आगे। अगली पीढ़ी में अपराध भाव स्वत: आ जाएगा।
जीवात्मा का दर्शन और धर्म का मर्म घर में कौन समझे-समझाए। धन के सहारे धर्म करने वाले, दान अथवा अनुष्ठान करा लेते हैं। जीवात्मा संस्कारित नहीं होने से उसका पशु भाव बढ़ता ही जाता है। मानव रूप सिमटता जाता है। स्वच्छन्दता-प्रमाद-अहंकार जीवन के पर्याय बन जाते हैं। जीवन के अन्तिम पड़ाव पर पहुंचकर समझ पाते हैं कि धन सुख का कारण बन ही नहीं सकता। व्यक्ति की चेतना जड़ के पीछे भागते-भागते जड़ हो जाती है।
एक अन्य परिस्थिति भी है पश्चिम में। वहां सास होती तो है किन्तु साथ नहीं रहती। न सास-बहू का सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से सम्बन्ध होता है। वहां तलाक और विवाह होते रहना आम बात भी है। न तो सास को बहू को कुछ सिखाना पड़ता, न ही बच्चों को कहानियां/ लोरियां सुनानी होती। लड़कियां आती हैं लड़कों के साथ, कुछ काल रहकर चली जाती हैं। नई पारी, और फिर नई पारी। एक समय आता है जब लड़की दुखी होकर, बच्चों को साथ लेकर अपनी मां के पास रहने लगती है। एक उम्र के बाद तो नया घर बसाना भी आसान नहीं होता। सारे कानून भी महिलाओं/ बच्चों के पक्ष में हैं और वे ही टूटते परिवारों के मूल कारण हैं।
सुख उसी घर में बरसता है जहां सास अपनी बहू को नई पीढ़ी की सास बना देती है। सुनने में बात बड़ी रूढिवादी लगती है। सचाई भी यही है कि व्यक्ति कितना भी पढ़ा लिखा हो, कितने भी बड़े पद पर बैठा हो, धनवान हो, घर में पैर रखते ही वह रूढिवादी हो जाता है। उसका विकास पीछे खिसक जाता है। प्रकृति के नियम भौतिक विकास तथा आधुनिक विज्ञान पर आधारित नहीं हैं। अनेक जन्मों के कर्मो का फल प्रकट होता है। इसी को रूढि कह सकते हैं। इसी आधार पर एक-दूसरे के साथ प्रकृति व्यवहार करती है। जहां भी व्यक्ति प्रकृति के स्थान पर स्वयं कत्ताü बनने का प्रयास करता है, वहीं उसके मार पड़ जाती है। उसके आगे सब जीव हैं। जैसा करो, वैसा भरो।
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