26.4.11

क्या ? बाल विवाह पाप नहीं ? आप इस में कितने सहयोगी है


तमाम कोशिशों के बावजूद भारत में बाल विवाह की कुप्रथा बदस्तूर जारी है। बाल विवाह की वजह से जहां बच्चों का बचपन छिन जाता है, वहीं वे विकास के मामले में भी पिछड़ जाते हैं... देश में विवाह के लिए कानूनन न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल निर्धारित है, लेकिन यहां अब भी बड़ी संख्या में नाबालिग लड़कियों का विवाह कराया जा रहा है। इस तरह के विवाह से जहां क़ानून द्वारा तय उम्र का उल्लंघन होता है, वहीं कम उम्र में मां बनने से लड़कियों की मौत तक हो जाती है। अफसोस और शर्मनाक बात यह भी है कि बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों का विरोध करने वालों को गंभीर नतीजे तक भुगतने पड़ते हैं। मई 2005 में मध्य प्रदेश के एक गांव में बाल विवाह रोकने के प्रयास में जुटी आंगनबाड़ी सुपरवाइजर शकुंतला वर्मा से नाराज़ एक युवक ने नृशंसता के साथ उसके दोनों हाथ काट डाले थे। इसी तरह के एक अन्य मामले में भंवरी बाई के साथ दुर्व्यवहार किया गया था।
यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट-2007 में बताया गया है कि हालांकि पिछले 20 सालों में देश में विवाह की औसत उम्र धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन बाल विवाह की कुप्रथा अब भी बड़े पैमाने पर प्रचलित है। रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में औसतन 46 फ़ीसदी महिलाओं का विवाह 18 साल होने से पहले ही कर दिया जाता है, जबकि ग्रामीण इलाकों कमें यह औसत 55 फ़ीसदी है। अंडमान व निकोबार में महिलाओं के विवाह की औसत उम्र 19।6 साल, आंध्र प्रदेश में 17।2 साल, चंडीगढ़ में 20 साल, छत्तीसगढ़ में 17.6 साल, दादर व नगर हवेली में 18.8 साल दमन व द्वीव में 19.4 साल, दिल्ली में 19.2 साल, गोवा में 22.2 साल, गुजरात में 19.2 साल, हरियाणा में 18 साल, हिमाचल प्रदेश में 19.1 साल, जम्मू-कश्मीर में 20.1 साल, झारखंड में 17.6 साल, कर्नाटक में 18.9 साल, केरल में 20.8 साल, लक्षद्वीप में 19.1 साल, मध्य प्रदेश में 17 साल, महाराष्ट्र में 18.8 साल, मणिपुर में 21.5, मेघालय में 20.5 साल, मिज़ोरम में 21.8 साल, नागालैंड में 21.6 साल, उड़ीसा में 18.9 साल, पांडिचेरी में 20 साल, पंजाब में 20.5 साल, राजस्थान में 16.6 साल, सिक्किम में 20.2 साल, तमिलनाडु में 19.9 साल, त्रिपुरा में 19.3 साल, उत्तरप्रदेश में 17.5 साल, उत्तरांचल में 18.5 साल और पश्चिम बंगाल में 18.4 साल है। गौरतलब है कि वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक़ देश में 18 साल से कम उम्र के 64 लाख लड़के-लड़कियां विवाहित हैं कुल मिलाकर विवाह योग्य कानूनी उम्र से कम से एक कराड़ 18 लाख (49 लाख लड़कियां और 69 लड़के) लोग विवाहित हैं। इनमें से 18 साल से कम उम्र की एक लाख 30 हज़ार लड़कियां विधवा हो चुकी हैं और 24 हज़ार लड़कियां तलाक़शुदा या पतियों द्वारा छोड़ी गई हैं। यही नहीं 21 साल से कम उम्र के करीब 90 हजार लड़के विधुर हो चुके हैं और 75 हजार तलाक़शुदा हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक़ राजस्थान देश के उन सभी राज्यों में सर्वोपरि है, जिनमें बाल विवाह की कुप्रथा सदियों से चली आ रही है। राज्य की 5.6 फ़ीसदी नाबालिग आबाद विवाहित है। इसके बाद मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, गोवा, हिमाचल प्रदेश और केरल आते हैं।
दरअसल , बाल विवाह को रोकने के लिए 1929 में अंग्रेजों के शासनकाल में बने शारदा एक्ट के बाद कोई क़ानून नहीं आया। शारदा एक्त में तीन बार संशोधन किए गए, जिनमें हर बाल विवाही के लिए लड़के व लड़की उम्र में बढ़ोतरी की गई। शारदा एक्ट के मुताबिक़ बाल विवाह गैरकानूनी है, लेकिन इस एक्ट में बाल विवाह को खारिज करने का कोई प्रावधान नहीं है। इसी बड़ी खामी के चलते यह कारगर साबित नहीं हो पाया। इस अधिनियम में अधिकतम तीन माह तक की सज़ा का प्रावधान है। विडंबना यह भी है कि शादा एक्ट के तहत बाल विवाह करने वालों को सज़ा का प्रावधान है, लेकिन बाल विवाह कराने वालों या इसमें सहयोग देने वालों को सीधे दंडित किए जाने का कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि दोषी पाए जाने पर नामामत्र सज़ा दी जा सकती है। इतना ही नहीं इस क़ानून की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि पहले तो इस संबंध में मामले ही दर्ज नहीं हो पाते और अगर हो भी जाते हैं तो दोषियों को सज़ा दिलाने में काफ़ी दिक्कत होती है। नतीजतन, दोषी या तो साफ बच निकलते हैं या फिर उन्हें मामूली सज़ा होती हैं। अंग्रेजों ने शारदा एक्ट में कड़ी सज़ा का प्रावधान नहीं किया और इसे दंड संहिता की बजाय सामाजिक विधेयक के माध्यम से रोकने की कोशिश की गई। दरअसल, अंग्रेज इस क़ानून को सख्त बनाकर भारतीयों को अपने खिलाफ़ नहीं करना चाहते थे।
अफ़सोस की बात यह भी है कि आज़ादी के बाद बाल विवाह को रोकने के लिए बड़े-बड़े दावे वाली सरकारों ने भी बाल विवाह को अमान्य या गैर जमानती अपराध की श्रेणी में लाने की कभी कोशिश नहीं की। महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग और मानवाधिकार आयोग भी बाल विवाह पर अंकुश लगाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की बजाय भाषणों पर ही जोर देते हैं।बाल विवाह अधिनियम-1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम-1955 की दफा-3 में विवाह के लिए अनिवार्य शर्तों में से एक यह भी है कि विवाह के सम लड़ी की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 साल होनी चाहिए। अगर विवाह के समय लड़के और लड़की की उम्र निर्धारित उम्र से कम हो तो इसकी शिकायत करने पर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-18 के तहत दोषी व्यक्ति को 15 दिन की कैद या एक हजार रुपये जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। कानून की नजर में भले ही इस तरह का विवाह दंडनीय अपराध हो, लेकिन इसके बावजूद इसे गैरकानूनी नहीं माना जाता और न ही इसे रद्द किया जा सकता है। इसके अलावा अगर हिंदू लड़की उम्र विवाह के समय 15 साल से कम है और 15 साल की होने के बाद वह अपने विवाह को स्वीकार करने में मना कर दे तो वह तलाक दे सकती है लेकिन अगर विवाह के समय उसकी उम्र 15 साल से ज्यादा (भले ही 18 साल से कम हो) हो तो वह इस आधार पर तलाक लेने की अधिकारी नहीं। हिंदू विवाह अधिनियम के मुताबिक विवाह के समय लड़की उम्र 18 साल से कम नहीं होनी चाहिए, लेकिन भारतीय दंड संहिता-1860 की दफा-375 के तहत 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ सहवास करना बलात्कार नहीं है।
क़ाबिले -गौर है कि भारतीय दंड संहिता-1860 की दफा-375(6) के मुताबिक किसी भी पुरुष द्वारा 16 साल से कम उम्र की लड़की के साथ उसकी सहमति या असहमति से किया गया सहवास बलात्कार है। भारतीय दंड संहिता की दफा-375 में 16 साल से कम उम्र की लड़ी के साथ बलात्कार की सजा कम से कम साल कैद और जुर्माना है, लेकिन इस उम्र की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार के मामले में पुरुषों को विशेष छूट मिल जाती है। इतना ही नहीं अपराधिक प्रक्रिया संहिता-1973 में बलात्कार के सभी तरह के मामले संगीन अपराध हैं और गैर जमानती हैं, लेकिन 12 साल तक की पत्नी के साथ बलात्कार के मामले संगीन नहीं हैं और जमानती भी हैं। इस तरह के भेदभाव पूर्ण कानूनों के कारण भी देश में पीड़ित महिलाओं को इंसाफ़ नहीं मिल पाता।देश के विभिन्न इलाकों में अक्षय तृतीया, तीज और बसंत पंचमी जैसे मौकों पर सामूहिक बाल विवाह कार्यक्रम आयोजित कर खेलने-कूदने की उम्र में बच्चों को विवाह के बंधन में बांध दिया जाता है। इन कार्यक्रमों में राजनीतिक दलों के नेता और प्रशासन के आला अधिकारी भी शिरकत कर बाल नन्हें दंपत्तियों को आशीष देते है।

25.4.11

सीख या शिक्षा

gulab kothari special article

विदेशों में भी यह सब कुछ दिखाई नहीं देता। वहां भोग भूमि होने से कोई अपेक्षा भी नहीं रखता। यहां कर्मयोग की भूमि है। यहां बच्चे आज भी मां-बाप का सम्मान करते हैं। मां-बाप की हर गलती को माफ करते रहते हैं। विश्व में अन्यत्र ऎसा दिखाई नहीं देता। यही देश के स्वर्णिम भविष्य का संकेत है।

नई पीढ़ी की माताएं स्वतंत्र रहकर जीना चाहती हैं। परिवार का उत्तरदायित्व उनको बोझ लगने लगा है। वह बेटी को भी स्त्रीत्व एवं मातृत्व की शिक्षा नहीं देती। उसे इस बात पर गर्व है कि उसके घर में बेटे-बेटी में किसी तरह का भेद भाव नहीं होता। जो बेटे को नहीं वह बेटी को भी नहीं। यही तो स्कूली शिक्षा का भी आधार है। बेटी के लिए तो ऎसी माता को कुमाता ही कहा जाना चाहिए। हमारे शास्त्र तो कहते हैं कि पूत कपूत हो सकता है, माता कुमाता नहीं हो सकती। नई मां ने, शिक्षित मां ने शास्त्रों को झूठा साबित कर दिया। और बेटियां पूरी उम्र मां की इस गलती की सजा पाती हैं। कभी उफ भी नहीं करतीं। मां की शिकायत, मां पर क्रोध, अथवा कोई प्रतिक्रिया भी नहीं करतीं। क्या ऎसी सपूत बेटियां पूजा करने लायक नहीं हंै? 

जब बेटे-बेटी दोनों ही सपूत हैं, सुसंस्कृत हैं, तब कमी कहां है कि इस देश को जिधर जाना चाहिए, उधर नहीं जा रहा। किसी अन्य ही दिशा, रसातल में जा रहा है। इसका उत्तर हमारी शिक्षा प्रणाली में देखा जा सकता है। ये हमारी मानवता और मानवीय संवेदना छीन लेती है। यांत्रिक एवं शुद्ध बौद्धिक एवं शारीरिक धरातल पर जीने को बाध्य कर देती है। व्यक्ति को स्वयं से अलग करके, भीतर से हटाकर, बाहर भटकने को सुख कहकर भ्रमित करती है। विज्ञान के नाम पर कोरी भौतिकवाद की अवधारणा परोसती है। व्यक्ति मानवीय मूल्यों को छोड़कर विषयों में गोते लगाता है। मुक्त होने की भूलकर पेट से, पूरी शक्ति के साथ, बंध जाता है। संस्कारों की नींव पहले ही मां ने नहीं डाली। 

शरीर पर जीवात्मा हावी हो जाता है। स्वतंत्रता के स्थान पर स्वच्छन्द जीना चाहता है। जिस शरीर को जीवात्मा छोड़कर आया है, उसी के अनुरूप इस मानवदेह का उपयोग करता है। इसी को तो जैविक संतान कहा जाता है। शरीर में मातृ-पितृ वंश की सात-सात पीढियों का अंश रहते हुए भी, प्रारब्ध में अच्छा कुल, साधन-सुविधाओं के रहते हुए भी व्यक्ति का जीवन आहार-निद्रा-भय-मैथुन (पशुवत्) में ही व्यतीत हो जाता है। पिछले कर्मो का सुख तो भोग जाता है, किन्तु नए कर्म उचित दिशा में नहीं करने से भविष्य या नए निर्माण की संभावनाएं नगण्य हो जाती हैं। व्यक्ति जो भोग रहा है उस सारे को अपने वर्तमान कर्म का फल ही मानकर भोग रहा है। इसमें प्रारब्ध का अंश मानने को वह तैयार ही नहीं है। अत: वह अपने कर्म और कर्मफल से अत्यघिक संतुष्ट है। 

बिना कर्म किए भी बीस-पच्चीस साल तक सुख भोगता है तब भी इस ओर उसका ध्यान नहीं जाता। इस मिथ्या दृष्टि ने  उसके जीवन का अवमूल्यन करना शुरू कर दिया। अब कर्म उसके लिए नित्य न होकर आवश्यकता से जुड़ गया। उसे विश्राम चाहिए, धन का भोग भी चाहिए और मनोरंजन भी। एक समय खाना खाने के लिए वह 3-4 घण्टे खर्चकर गर्व महसूस करता है। सिनेमा, टीवी या पिकनिक का क्रम उसके वर्तमान को घुन की तरह खाने लगा है। शरीर सुख, भले कितना ही क्षणिक, अल्पकालिक हो, उसकी प्राथमिकता बन गया। अत: वह दूसरों के लिए कष्ट पाने को भी तैयार नहीं होता। उसका जीवन 'पेट' तक, अपने परिवार तक ठहर जाता है। वसुधैव कुटुबकम् शायद द्वापर में ही रह गया। यहां आकर समझ में आता है कि शिक्षा ने जीवन को कैसे कछुए की तरह समेट दिया। शिक्षा का एक ही उपयोग रह गया - नौकरी प्राप्त करने लायक बन जाना, ताकि सुख से पेट भरकर जी सकें। यानि पेट भरना सीखने के लिए बीस साल की शिक्षा चाहिए और मां-बाप की उम्रभर की कमाई लगाने की जरूरत पड़ती है। कर्जा भी लेने की जरूरत पड़ जाती है।

दूसरी ओर इसी शिक्षा से व्यक्ति अकेला रहना सीख जाता है। पहला कारण होम-वर्क। इतना होम-वर्क कि अध्यापक नहीं पढ़ाए तो भी बच्चा पास तो हो ही जाएगा। दूसरा मां का डर। सन्तान के अच्छे नंबरों से ही मां के अहं की तुष्टि होती है। भले वह स्वयं कई बार फेल होने वाली रही हो। मां के दबाव के कारण तथा आज तो भ्रष्ट शिक्षकों के कारण टयूशन भी शिक्षा का अनिवार्य अंग बन गया है। स्कूल फीस के बराबर का नया खर्चा। इसने बच्चे का बचपन भी छीन लिया। यह है नई मां की ममता का प्रमाण।

तीसरा टीवी और इण्टरनेट। बच्चे इनसे हटते ही नहीं। माताएं प्रसन्न। क्योंकि बच्चे उनको तंग करते ही नहीं। न तो बच्चों को बाहर जाकर खेलने को प्रेरित किया जाता है, न ही घर आए मेहमानों से, परिजनों से मिलने के लिए। मां ही झूठ बोलकर बच्चों की गलती ढकती है। इनका सर्वागीण विकास तो होता ही नहीं। न समाज से जुड़ पाते हैं।

और सबसे बडे शत्रु हैं स्वयं शिक्षा पद्धति, पाठयक्रम और छुियों का कलैण्डर। इनका हमारी जीवन शैली से कोई लेना-देना ही नहीं है। संस्कृति शब्द का अपमान है शिक्षा। किसी भी स्कूल कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रम को देख लें। सिवाए मनोरंजन के और कुछ होता ही नहीं। हम बच्चों को यह समझा रहे हैं कि हमारी संस्कृति केवल नाचने-गाने की है। इसमें कौन आकर क्यों तालियां बजा जाते हैं, कुछ पता नहीं। देश की नाक तो कट रही है। इसी से हम स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। है न मेरा देश महान! बच्चों के जीवन का हाल भी शिक्षा में संस्कृति जैसा ही हो जाता है। मां-बाप खुश हैं कि बच्चों को अच्छे स्कूल में पशु बना रहे हैं। धन खर्च कर रहे हैं। सारे बच्चे रेल के डिब्बों की तरह एक जैसे फैक्ट्री से निकलते हैं। जबकि ईश्वर ने किसी दो को भी एक जैसा पैदा नहीं किया। सब अपने आप में अद्वितीय भी हैं। 

सब में उसी ईश्वर का अंश भी है, प्रारब्ध भी है। शिक्षा ने सब कुछ रूढि बताकर बाहर निकाल दिया। मां-बाप भी उसी शिक्षा की देन हैं। पूरे देश को इस शिक्षा ने शाश्वत आत्मा के धरातल से ही दूर कर दिया। ऋषियों के अनुभव भी शिक्षा में उपलब्ध नहीं हैं। प्रकृति जैसी चीज से जीवन का सरोकार ही नहीं रहा। ये सारा शिक्षा ने छीन लिया। जिसके पास बचा है, उससे भी कानून बनाकर छीनना चाहती है। यही आतंकवाद का भी कारण है और स्थानीय हिंसा का भी। क्योंकि सबकी मां मरती जा रही है। उसकी जगह बस एक औरत रह गई। इसी औरत की सन्तान से विश्व की औरतें त्रस्त हैं। ये सारा परिणाम बस एक शिक्षा से। 

शिक्षा एक और गारण्टी देती है-व्यक्ति को पूर्ण नहीं बनने देगी। वह कुछ काल सुविधाओं का सुख भोग सकता है, किन्तु जीवन में शान्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। न ही बीमारी उसका पीछा छोड़ेगी। जिस शरीर के आधार पर मुक्ति का स्वप्न देख पाता, वह तो आकण्ठ भोग में उतर गया। बाहर-बाहर दौड़ते-दौड़ते इतना आगे निकल गया कि फिर स्वयं तक लौट ही नहीं सकता। चाहे कितना भी योग सीख ले। न ही वह अपने जन्मदाता के साथ जी पाता है। जो अन्तर ईश्वर ने मानव और पशु में पैदा किया उसे शिक्षा ने मिटा दिया। विश्वभर में आज  का ही आतंक छाया हुआ है। चाहते हो शिक्षित होना?

24.4.11

कौन होगा साईं ट्रस्ट की 55 हजार करोड़ की संपत्ति का वारिस?

पुट्टपर्थी आंध्र प्रदेश के पुट्टपर्थी में धर्मगुरु 85 वर्षीय श्री सत्य साईं बाबा 28 मार्च से नाजुक हालत में हैं। उनकी तेजी से बिगड़ती हालत के बाद करीब 55 हजार करोड़ की संपत्ति के उत्तराधिकारी को लेकर कयास तेज हो गए हैं। सत्य साईं बाबा के बाद 165 देशों में फैले उनके साम्राज्य के सभी फैसले 1972 में स्थापित श्री सत्य साईं सेंट्रल ट्रस्ट (एसएससीटी) के अधीन हो जाएंगे।

संपत्तिपुट्टपर्थी में : सत्य साईं विश्वविद्यालय, 220 बिस्तरों वाला श्री सत्य साईं इंस्टीट्यूट ऑफ हायर मेडिकल साइंसेज, विश्व धर्म संग्रहालय चैतन्य ज्योति, तारामंडल, रेलवे स्टेशन, इनडोर और आउटडोर स्टेडियम, संगीत कॉलेज, प्रशासनिक भवन, हवाईअड्डा। अन्य स्थानों पर : बैंगलुरू में विशेष सुविधाओं वाला अस्पताल, कुछ अन्य अस्पताल (दो नेत्र अस्पताल भी शामिल), 165 देशों में 1,300 सत्य साईं बाबा केंद्र, 33 देशों में खोले गए स्कूल, डिजिटल रेडियो नेटवर्क। प्रशांति निलयम : पुट्टपर्थी में प्रशांति निलयम सत्य साईं बाबा का मुख्यालय है। गर्मियों में वे बैंगलुरू के बाहरी इलाके व्हाइट फील्ड में वृंदावन और कोडैकनाल में साईं श्रुति आश्रम में रहते हैं।

वारिसके. चक्रवर्ती : अनंतपुर के कलेक्टर रहे चक्रवर्ती ट्रस्ट के सचिव हैंएसवी गिरि : आंध्रप्रदेश आईएएस कैडर के इस अफसर ने सीवीसी पद से 1998 में इस्तीफा दिया। सत्य साईं यूनिवर्सिटी के कुलपति बने ये हैं ट्रस्ट के सदस्यइंदुलाल शाह : मुंबई के सीए पीएन भगवती : पूर्व सीजेआई नागानंद : प्रतिष्ठित वकील आरजे रत्नाकर : बाबा के भतीजे और ट्रस्ट में इकलौते रिश्तेदार जी. वेंकटरमन : ख्यात वैज्ञानिक, विदेश प्रभाग के उपाध्यक्ष माइकल गोल्डस्टेन : अंतरराष्ट्रीय सत्य साईं संगठन के अध्यक्ष जॉन हिस्लप : लेखक जी. श्रीनिवासन : बाबा के करीबी आइजेक टिगरेट बर्टन : सत्य साईं ट्रस्ट के बड़े दानदाता

विकल्पट्रस्ट के पास रहेंगे अधिकार चक्रवर्ती या गिरि में से किसी एक को निर्णय लेने के लिए अधिकृत किया जा सकता है। इससे हजारों करोड़ की संपत्ति का रखरखाव ट्रस्ट के पास ही रहेगा। सरकार करेगी अधिग्रहण आंध्र सरकार ने वित्त और स्वास्थ्य सचिवों को पुट्टपुर्थी भेजा था। तिरूपति की तर्ज पर राज्य सरकार हिंदू धर्म एवं परोपकारी निधि कानून के सहारे सत्य साईं सेंट्रल ट्रस्ट का अधिग्रहण कर लेगी। संबंधियों को रखा दूर बाबा के भाई आरवी जानकीराम ट्रस्ट में थे, जिनका 2005 में निधन हो गया। उनके बेटे आरजे रत्नाकर राजू को पिछले साल ट्रस्ट का सदस्य बनाया गया, लेकिन उनके पास फैसले लेने का हक नहीं है।

कैसे सत्यनारायण से बन गए सत्य साईं बाबा


आज विश्व भर में लाखों लोग श्री सत्य साईं बाबा के देहांत पर आंसू बहा रहे है। बाबा के दुनियाभर में करोड़ों भक्त हैं। श्री सत्य साईं बाबा को शिरडी साईं बाबा का अवतार के रूप में भी जाना जाता है। बहुत कम लोग जानते हैं कि साई बाबा विलक्षण प्रतिभा वाले एक साधारण बालक थे। इनका जन्म आन्ध्र प्रदेश के पुत्तपार्थी गांव में 23 नवंबर 1926 को हुआ था। वो बचपन से ही बड़े अक्लमंद और दयालु थे। वो संगीत, नृत्य, गाना, लिखना इन सबमें में काफी रुचि रखते थे। 


एक दिन अचानक 8 मार्च 1940 को जब वो कहीं जा रहे थे तो उनको एक बिच्छू ने डंक मार दिया। इसके कुछ दिनों बाद उनके व्यक्तित्व में खासा बदलाव देखने को मिला। वो अचानक संस्कृत में बोलना शुरू कर दिए जिसे वो जानते तक नहीं थे। 

पिता ने डॉक्‍टर को दिखाया लेकिन कोई भी इस चमत्‍कार को नहीं समझ सका। 23 मई 1940 को उनकी दिव्यता का लोगों को अहसास हुआ। सत्य साईं ने घर के सभी लोगों को बुलाया और चमत्कार दिखाने लगे। उनके पिता ने उनकी पिटाई की और पूछा कि तुम कौन हो सत्यनारायण ने कहा मैं साईं बाबा हूं।

उन्होंने अपने आप को शिरडी साईं बाबा का अवतार घोषित कर दिया। शिरडी साईं बाबा, सत्य साईं की पैदाइश से 8 साल पहले ही गुजर चुके थे। खुद को शिरडी साईं बाबा का अवतार घोषित करने के बाद सत्य साईं बाबा के पास श्रद्धालुओं की भीड़ जुटने लगी।

उन्होंने मद्रास और दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों की यात्रा की। उनके भक्तों की तादाद बढ़ गई। उन्‍होंने कई बार देश और विदेश की यात्रा की। वे अपने संबोधन सभा में कहते कि मैं यहां आपके दिल में प्यार और सद्भाव का दीप जलाने आया हूं। मैं किसी धर्म के प्रचार के‍ लिए या भक्‍त बनाने नहीं आया हूं।



आध्‍यात्मिक गुरु सत्‍य साईं बाबा का निधन हो गया है


बड़े दुःख के साथ मुझे   मुझे ये पोस्ट करनी पड़ रही है | की 
आध्‍यात्मिक गुरु सत्‍य साईं बाबा का निधन हो गया है

22.4.11

अन्ना का आह्वान भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंको

Hum Tum special article


किसन बाबूराव हजारे यानी अन्ना हजारे के बारे में कुछ लिखना कलम के साथ न्याय करना नहीं होगा, क्योंकि उनकी निस्वार्थ खूबियों की कतार इतनी लम्बी है कि समय के बीतने का एहसास नहीं होता। पद्मभूषण और पद्मश्री जैसे राष्ट्रीय सम्मान पा चुके समाजसेवक अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ी जंग छेड़ दी है। वे भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था के लिए जरूरी लोकपाल विधेयक की लड़ाई लड़ रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने वाले अन्ना हजारे से हाल ही हुई बातचीत के खास अंश।

आप भ्रष्टाचार रहित व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ रहे हैं। क्या वाकई लोकपाल विधेयक इस मंशा को पूरा कर सकेगा?
मुझे पूरा यकीन है कि लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था का निर्माण कर सकेगा। लोकपाल विधेयक में भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम उठाने की अनुशंसा की गई है। उसमें कहा गया है कि भ्रष्टाचार संबंधी शिकायत पर सबसे पहले संबंघित व्यक्ति को जेल भेज देना चाहिए बाद में तहकीकात की जाए। बडे भ्रष्टाचार में संबंघित व्यक्ति के अलावा परिवार के सभी सदस्यों की संपत्ति जब्त कर नीलाम कर देनी चाहिए। ए राजा जैसे लोगों को सीधा फांसी पर लटका देना चाहिए। लेकिन सवाल ये है कि यह सब सरकार के मुश्किल से गले उतर रहा है। 

मुसीबत में ऎसी कौनसी ताकत है जो आपको हमेशा आगे बढ़ने का हौसला देती रही?
पिछले 35 साल से संघर्ष कर रहा हूं। कोई है जो मेरे पीछे खड़ा मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहा है। ईश्वर पर मुझे पूरा भरोसा है, जब जिंदगी का मकसद त्याग, बलिदान और शुद्ध आचरण हो जाए तो ईश्वर भी आपके साथ खड़ा होता है। इस बात का एहसास मुझे होता रहा है।

समाज के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा आपको कैसे मिली?
मेरी उम्र करीब 26 साल की रही होगी, उन दिनों मेरी पोस्टिंग पंजाब से सटे खेमकरन में लगी हुई थी। लड़ाई में मेरे सारे साथी मारे गए, मुझे मामूली चोटें आइंü। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मानव जीवन का अर्थ क्या है, लेकिन लाख कोशिश के बाद भी मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिला। मैंने आत्महत्या करने का मन बना लिया। 

लेकिन ठीक उन्हीं दिनों मुझे विवेकानंद की किताब 'कॉल टु दि यूथ फॉर नेशन' मिली, वो किताब मेरे जीवन के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुई। मुझे जीवन का मकसद मिल गया कि समाजसेवा में ही जीवन का असली सुख है। और सच कहूं तो बड़े-बड़े उद्योगपतियों को ऎसा आनंद नहीं मिलता होगा जो मुझे लोगों का दर्द बांटने में मिलता है।

सुना है आप हर महीने अपनी  पेशन गांवों के विकास फंड में जमा कर देते हैं। तब आपका खर्च  कैसे चलता है?
मेरा अपना कोई खर्च नहीं है। बस एक वक्त का खाना और दो जोड़ी कपड़े। बच्चों के लिए चल रहे हॉस्टल से खाना मिल जाता है। 8 बाई 10 का एक कमरा है जिसके कोने में एक बिस्तर लगा हुआ है। हर महीने 6 हजार रूपए पेंशन आती है। वो किसी न किसी दीन दुखी की मदद में काम आ जाती है। अभी तक मुझे 25 लाख रूपए  नकद इनाम के रूप में मिल चुके हंै जिनसे हर महीने ब्याज आता है। उस ब्याज से हर साल किसी गरीब की बेटी की शादी हो जाती है।  

आर्मी का अनुशासन आपके जीवन में आज भी कायम है?
बिलकुल, आर्मी की लाइफ ने मुझे मेरा मकसद पूरा करने में बड़ी मदद की। अनुशासन ही था जिसके बूते रालेगन सिद्धी जैसे गांव की तस्वीर बदल सका। उस गांव में  80 फीसदी लोग भुखमरी में जीवन गुजार रहे थे। 40 शराब के ठेके थे। लेकिन आज वहां न तो एक शराब का ठेका है और न ही पूरे गांव में पान, गुटका, बीड़ी का कोई सेवन करता है। 

फिल्में देखना पसंद करते हैं?
आर्मी में जाने से पहले मुझे फिल्मों का शौक था। मैं 50 साल पहले की बात कर रहा हूं। लेकिन उसके बाद तो फिल्मों के नाम तक पता नहीं हैं। 

आपने जीवनभर अविवाहित रहने का फैसला क्यों किया ?
 मुझे अपने फैसले पर कोई पछतावा नहीं है बल्कि मुझे खुशी है कि मेरा परिवार इतना बड़ा है कि वहां मैं और मेरा जैसे शब्दों के लिए कोई जगह नहीं है। छोटा परिवार दुख देता है, जबकि बड़ा परिवार आनंद। 
पद्मभूषण और पद्श्री जैसे सम्मान आपके जीवन में कितने मायने रखते हैं।  
मैंने कोई भी काम सम्मान पाने के लिए नहीं किया और न ही मेरा जीवन में इनका कोई मतलब है। मैंने अपने लेटर हेड पर किसी सम्मान का जिक्र  नहीं किया।

अन्ना की जिंदगीसंघर्षो की दास्तां
अन्ना की शख्सियत बडे अनगढ़ तरीके से गढ़ी हुई है। 15 जून 1938 को महाराष्ट्र के अहमद नगर के भिंगर कस्बे में जन्मे अन्ना का बचपन बहुत गरीबी में गुजरा। पिता मजदूर थे। दादा फौज में। 

दादा की पोस्टिंग भिंगनगर में थी। वैसे अन्ना के पुरखों का गांव अहमद नगर जिले में ही स्थित रालेगन सिद्धि में था। दादा की मौत के सात साल बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया। अन्ना के छह भाई हैं। परिवार में तंगी का आलम देखकर अन्ना की बुआ उन्हें मुम्बई ले गईं। वहां उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की। परिवार पर कष्टों का बोझ देखकर वह दादर स्टेशन के बाहर एक फूल बेचनेवाले की दुकान में 40 रूपए की पगार में काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने फूलों की अपनी दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया। छठे दशक के आसपास वह फौज में शामिल हो गए। उनकी पहली पोस्टिंग बतौर ड्राइवर पंजाब में हुई। 

यहीं पाकिस्तानी हमले में वह मौत को धता बता कर बचे थे। इसी दौरान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से उन्होंने विवेकानंद की एक बुक को पढ़ने के बाद उन्होंने अपनी जिंदगी समाज को समर्पित कर दी। उन्होंने गांधी और विनोबा को भी पढ़ा। 1970 में उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प किया। मुम्बई पोस्टिंग के दौरान वह अपने गांव रालेगन आते-जाते रहे। चट्टान पर बैठकर गांव को सुधारने की बात सोचते रहते। जम्मू पोस्टिंग के दौरान 15 साल फौज में पूरे होने पर 1975 में उन्होंने वीआरएस ले लिया और गांव में आकर डट गए।

मॉडर्न बाबाओं की यूथ ब्रिगेड


<img alt="" src="http://rptool1.rajasthanpatrika.com/NewsImages/1-2011/gt01-f-1071245981.jpeg" class="alignnone" width="250" height="250" />
मॉडर्न बाबाओं की यूथ ब्रिगेड 


आज के यूथ ने धर्म, अध्यात्म और प्रवचन जैसे अनछुए समझे जाने वाले क्षेत्र में भी सेंधमारी कर ली है। नतीजा यह है कि धार्मिक चैनल्स और शहर में होने वाले प्रवचनों में यंग बाबाओं का बोलबाला है। जब ये बाबा मन को मोहने वाले बेहतरीन अंदाज, सारगर्भित भाषा में मंच पर ईश्वर का गुणगान करते हैं, तो लगता है मानो अमृत बंट रहा हो। प्रवचन कार्यक्रमों में युवाओं की धमाकेदार एंट्री पर खास पेशकश-  

कथावाचक नहीं शांतिदूत हैं
उनका पूरा नाम है देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज। उम्र 32 साल, लेकिन विचारों में इतना प्रवाह और आवाज में इतनी मधुरता कि जो सुने बस सुनता रह जाए। जब वे कृष्णभक्ति में डूबकर भजन सुनाते हैं तो सुनने वाले सुध-बुध खो बैठते हैं। धार्मिक चैनलों पर धाराप्रवाह से प्रवचन देने वाले ठाकुरजी महाराज मथुरा के रहने वाले हैं और कृष्णभक्ति उनमें कूट-कूटकर भरी है। छह साल की उम्र में ही वे घर छोड़कर वृंदावन पहुंच गए और श्रीधाम में रहने लगे। उन्होंने यहां लंबी साधना की और 18 साल की उम्र में पहली बार भजन संध्या में भाग लिया। इसके बाद तो वे लाखों भक्तों के मन में बस गए। देश के तमाम शहरों में उन्होंने भजन सुनाए, प्रवचन दिए तो उनकी कीर्ति देश के बाहर भी पहुंची। अमरीका, हांगकांग, स्वीडन, डेनमार्क, नार्वे, हालैंड जैसे देशों में धर्म और अध्यात्म की अलख जलाई ठाकुरजी महाराज ने। श्रीकृष्ण और राधा के परम भक्त ठाकुर जी महाराज सिर्फ अध्यात्म का प्रचार-प्रसार ही नहीं कर रहे हैं, जनजागरण की मुहिम भी चला रहे हैं। उनका ट्रस्ट गरीब बच्चों के लिए इंटरमीडियट तक की शिक्षा के लिए आवासीय स्कूल बनवा रहा है, जो दस एकड़ जमीन में फैला हुआ है। देश के मशहूर कथावाचक उन्हें 'शांतिदूत' की संज्ञा देते हैं। श्री निंबार्क संप्रदाय और श्याम शरण देवाचार्य कहते हैं, 'जिस तरह श्रीकृष्ण युद्ध से पहले दुर्योधन के पास शांतिदूत बनकर गए थे, उसी तरह ठाकुरजी दुनिया के सामने शांतिदूत बनकर शांति की अलख जगा रहे हैं।  

देवकीनंदन ठाकुरजी 
देश के अलावा विदेशों में भी भारतीय संस्कृति और श्री कृष्ण का महिमामंडन कर रहे हैं। स्वीडन, डेनमार्क जैसे दर्जनों देशों में उनके हजारों मुरीद हैं। 
देवकीनंदन ठाकुर


यूथ की पहली पसंद
बृजभूमि के पैगौन में 23 जुलाई 1984 को वैष्णव ब्राह्मण कुल मे संजीव कृष्ण ठाकुर का नाम श्रेष्ठ भागवत कथावाचकों में लिया जाता है। उनके कार्यक्रमों में महिला और बुजुर्ग ही नहीं युवाओं की भी अच्छी खासी तादाद रहती है। संजीव का रूझान बचपन से ही भजन-पूजन और प्रवचनों में रहा। नतीजा यह रहा कि वे बहुत कम उम्र में ही हमउम्र बच्चों के बीच प्रवचन देने लगे। संजीव पढ़ने में इतने कुशाग्र थे कि अध्यापक भी हैरत में पड़ जाते थे। उनकी संस्कृत में गजब की पकड़ थी। सात साल की उम्र में ही ठाकुर जी भागवत, रामायण, गीता, शिवपुराण आदि को अपनी दादी अम्मा को सुना दिया करते थे। नौ साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और 12 साल की उम्र में उन्हें व्यासपीठ की गद्दी मिल गई। देश के लगभग सभी हिस्सों और विदेशों में प्रवचन के जरिए धर्म की अलख जगाने वाले संजीव युवाओं की पहली पसंद हैं। 
संजीव कृष्ण

जगाई धर्म की अलख
पुलक सागर महाराज। उम्र सिर्फ 40 साल। दमकते चेहरे पर हल्की दाढ़ी और आंखों पर चश्मा। दुनिया भर के जैन धर्म के अनुयायियों के दिलों में बसते हैं पुलक सागर महाराज। वे धर्म का प्रचार करते हैं, संस्कारों की शिक्षा देते हैं। मुक्ति और मोक्ष का मार्ग बताते हैं, साथ ही धार्मिक कट्टरता, अंधविश्वास और जादू-टोने पर करारा हमला बोलते हैं। पुलक सागर महाराज ने स्नातक की पढ़ाई की और 1993 में ही सार्वजनिक जीवन का परित्याग कर दिया। प्रसिद्ध जैन मुनि विद्यासागर जी महाराज के साçन्नध्य में मिढ्याजी तीर्थ जबलपुर में उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया। 11 सितंबर 1995 को कानपुर के पास आनंदपुरी में उन्होंने दीक्षा ली और फिर जैन धर्म के प्रचार प्रसार में जुट गए। जैन मुनि पुलक सागर महाराज दिगंबर संत हैं। उनकी वाणी में जैसे कोई जादू है, जब वह प्रवचन करते हैं तो देखते ही देखते हजारों की भीड़ जमा हो जाती है। धार्मिक चैनल बड़े आदर के साथ उनके प्रवचन प्रसारित करते हैं। 
पुलक सागर

महिला गुरू भी पीछे नहीं
आमजन में भक्तिभाव जगाने और धर्म की जड़ को हरी रखने में युवा किशोर ही नहीं महिला गुरू भी खासी तादाद में आने लगी हैं। मां ऋतंभरा से लेकर  शिवानी बहन, बहन नमेश्वरी पंड्या, अमृतानंदमयी मां, आनंदमूर्ति गुरू मां, बह्मकुमारी, गुरू मां आनंदमयी समेत दर्जनों महिला गुरू लोगों को भक्ति रस में डूबोकर उन्हें शांति के मार्ग पर ले जाने की कोशिश कर रही हैं।
शिवानी बहन

हर जुबां पर हो राधानाम
उनके मुख से कृष्णवाणी सुनकर सुधबुध खोना आम बात है। 6 जुलाई 1984 को वृंदावन के श्रीधाम में जन्म लेने वाले गौरव कृष्ण, मृदुल कृष्ण जी के बेटे हैं। पंद्रहवीं शताब्दी में वृंदावन में हरिदासजी महाराज का जन्म हुआ। गौरव कृष्ण उसी परिवार का हिस्सा हैं। गौरव कृष्णजी श्रीमद्भागवत कथा वाचन में निपुण हैं। वैष्णवी परिवार में जन्मे गौरव शुरूआत से ही कृष्ण में आसक्ति रखने वाले रहे। गौरव कृष्ण की कई पीढियां प्रवचन के जरिए मशहूर रही हैं। अपने दादा आचार्य मूलचंद बिहारी शास्त्रीजी  और पिता आचार्य मृदुल कृष्ण शास्त्री का साçन्नध्य गौरव को खूब मिला। वे उनके साथ जाते और उनके रास्ते पर चलते हुए ईश्वर के गुणगान करने लगे। वे कई वेदों के ज्ञाता और संस्कृत के प्रकांड विद्वान हैं। गौरव कृष्ण ने अटारह साल की उम्र में पहली बार भागवत का पाठ किया। सात दिनों तक हजारों लोगों के सामने ऎसे पूरे पांडाल में भक्ति रस की गंगा बहने लगी। कहते है गौरव कृष्ण जब श्रीकृष्ण का गौरवगान करते हैं, तो लोगों को लगता है मानों उनके सामने कृष्ण अठखेलियां कर रहे हैं। कई देशों में भक्ति रस लुटाकर लाखों लोगों को राधेकृष्ण का प्रशंसक बना रहे हैं। कथाओं में हर बार नयापन और ताजगी लोगों को प्रभावित करती है। इतनी कम उम्र होने के बाद भी उनकी वाणी से लोग मंत्रमुग्ध हुए बगैर नहीं रह पाते।
गौरव कृष्ण

यदुनाथ जी महाराज
देश के युवा और ओजस्वी संतों में से एक हैं यदुनाथ जी। गुजरात यूनिवर्सिटी से उन्होंने उच्च शिक्षा ली और मन रम गया धर्म और अध्यात्म में। आज देश और दुनिया में उनकी कीर्ति फैली हुई है। अध्यात्म के साथ ही वह देश और समाज कल्याण से जुड़े कामों बढ़ चढ़कर भागीदारी करते हैं।

धराचार्य जी महाराज
वृंदावन के युवा संत धराचार्य जी देश के जाने माने कथावाचक हैं। श्रीमद्भागवत की कथा समेत कई वेदों के वे मर्मज्ञ माने जाते हैं। कृष्णभक्ति की परंपरा में देश के सबसे लोकप्रिय संतों और कथावाचकों में शामिल हंै धराचार्य जी का नाम। 

आनंद कृष्ण शास्त्री  
आनंद कृष्ण शास्त्री जी 20 वर्ष की आयु में निपुण कथावचक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इनकी कथा शैली इतनी सरस और सरल है कि हर वर्ग के श्रोता भरपूर आनंद लेते हैं। आनंद कृष्ण देश के कई हिस्सों और विदेशों में भी सनातन धर्म प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। 

20.4.11

क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ?

क्या  इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ?
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अपनी जान को दांव पर लगा देने वाले बुजुर्ग समाजसेवी अन्ना हजारे की तारीफों से आजकल मीडिया का हर कोना भरा हुआ है। नवभारत टाइम्स के इस ब्लॉग पर भी कई साथी ब्लॉगर (ताजा उदाहरण है रमाशंकर सिंह के ब्लॉग बतंगड़ की नई पोस्ट) यह काम कर चुके हैं। ठीक भी है। आखिर अन्ना कोई निजी लड़ाई तो लड़ नहीं रहे। भ्रष्टाचार से देश की बहुत बड़ी आबादी पीड़ित है और इन सबकी तरफ से पहलकदमी करते हुए अन्ना ने अगर आमरण अनशन का संकल्प कर लिया है तो यह कोई छोटी बात नहीं। हर संभव तरीके से अन्ना की इस मुहिम को न केवल समर्थन देना चाहिए बल्कि और मजबूत बनाते हुए इसे इसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए।
मगर सवाल यह है कि इसे मजबूत बनाने के क्या तरीके हो सकते हैं। एक तो यह कि इसकी तारीफ करते हुए शब्दों का पहाड़ खड़ा कर दिया जाए। आम तौर पर पूरा मीडिया यह काम कर ही रहा है। दूसरा तरीका यह है कि सांकेतिक और क्रमिक अनशन, रैली, मोमबत्ती मार्च आदि कार्यक्रमों के जरिए अन्ना की मुहिम को समर्थन दिया जाए। यह काम भी देश के तमाम हिस्सों में हो रहा है। इसके अलावा एक और तरीका है अन्ना की इस मुहिम को मजबूती देने का। वह है इस मुहिम के वैचारिक पक्षों की पड़ताल करते हुए इसकी कमजोरियों को रेखांकित किया जाए ताकि उसे दूर कर इस मुहिम को ज्यादा कारगर बनाया जा सके।

सच पूछें तो यह सबसे जरूरी काम है जो इस मुहिम के शुभचिंतकों को करना चाहिए। लेकिन, यही काम ढंग से होता नहीं दिख रहा। मुहिम का शोर तो बहुत हो रहा है, लेकिन इसे ज्यादा मजबूत, ज्यादा कारगर, ज्यादा तर्कसंगत बनाने की कोशिश कम से कम सार्वजनिक मंचों पर अपवादस्वरूप ही दिख रही है। चूंकि अन्ना हजारे का कोई निजी स्वार्थ नहीं है और सार्वजनिक कल्याण के भाव से सबके हित को देखते हुए उन्होंने यह मुहिम शुरू की है, इसलिए निश्चित तौर पर खुद अन्ना भी ऐसी किसी कोशिश का समर्थन ही करेंगे। मगर, यही बात उनके उन उत्साही समर्थकों के बारे में नहीं कही जा सकती, जो इस मुहिम का शोर मचाते हुए इसके लिए जीने-मरने का खोखला एलान करने को ही सफलता की गारंटी समझ बैठे हैं। बहुत संभव है कि ऐसी किसी कोशिश को ये उत्साही समर्थक मुहिम के विरोध के रूप में लें और ऐसा करने वालों को विरोधी खेमे का करार दें। यह भी एक वजह हो सकती है ऐसी किसी कोशिश के सामने न आने की।

मगर, यह जरूरी है। खासकर इसलिए भी कि अगर इस मुहिम के वैचारिक पक्ष की कमजोरियों पर एक नजर डालें तो साफ हो जाता है कि यह मुहिम अपने मौजूदा स्वरूप में दुश्मन का (अगर दुश्मन किसी खास व्यक्ति को नहीं बल्कि भ्रष्टाचार की सर्वव्यापी प्रवृत्ति को माना जाए) कुछ खास नहीं बिगाड़ सकती। अधिक से अधिक यह देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का माहौल बना सकती है लेकिन वह भी बहुत थोड़ी देर के लिए। अगर इस मुहिम ने अपने रंग-रूप और चरित्र में बड़े बदलाव नहीं किए तो प्रबल संभावना यही है कि कुछ ही दिनों में यह मुहिम देशवासियों के मन में जीत का झूठा एहसास दिलाते हुए समाप्त हो जाए। और अगर ऐसा होता है तो इसके लिए जिम्मेदार सरकार और विपक्ष में बैठी वे ताकतें नहीं होंगी जो रूप बदलने की कला में माहिर हैं और ज्यादातर मामलों में दुश्मन के ही वेश में दुश्मन के सामने जाती हैं ताकि लड़ाई के निर्णायक पलों में दुश्मन को अपने समर्थकों से खास मदद न मिल सके। इसके लिए जिम्मेदार होंगे वे लोग जो इस मुहिम के समर्थक हैं, इसे कामयाब बनाना चाहते हैं, लेकिन इसे मजबूत और कारगर बनाने की कोशिश नहीं कर रहे, यह सोचकर कि कहीं उन्हें विरोधी न मान लिया जाए।

बहरहाल, बात मुहिम की कमजोरियों की हो रही थी। इस मुहिम की सबसे बड़ी ताकत अगर अन्ना की निष्पक्ष और ईमानदार छवि है तो इसकी सबसे बड़ी कमजोरी इसका अराजनीतिक चरित्र है। ध्यान दें कि राजनीति का मतलब किसी खास दल से जुड़ाव ही नहीं है। अगर यह आंदोलन मौजूदा सभी राजनीतिक दलों को खारिज करता है और खुद को उन सबसे अलग रखता है तो यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन, अगर यह राजनीति मात्र को अपने एजेंडे से बाहर रखता है तो इसका मतलब यह जाने-अनजाने खुद को और लोगों को भुलावे में रख रहा है। यही इस आंदोलन का सबसे कमजोर बिंदु है और इसी वजह से इसका पिटना करीब-करीब तय है।

आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए।

पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार के राक्षस का खात्मा हो जाता है तो उन्हें कल नहीं आज कैबिनेट से निकाल फेंकना चाहिए। लेकिन क्या समस्या इतनी सरल है? क्या पवार को हटा देने से भ्रष्टाचार मिट जाएगा? कृपया यह न कहें कि कम से कम एक शुरुआत तो होगी। अन्ना ने अपनी जिंदगी शुरुआत के लिए दांव पर नहीं लगाई है, खात्मे के लिए लगाई है। हमारा मकसद भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत करना नहीं, बल्कि उस लड़ाई का निर्णायक और पॉजिटिव अंत करना है। क्या किसी पवार, किसी मोइली, किसी सिब्बल के कैबिनेट से हट जाने से यह मकसद हासिल हो जाएगा? कहने को तो कांग्रेस भी कह रही है कि उसने ए. राजा को कैबिनेट से हटाकर जेल तक पहुंचा दिया और इस प्रकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाया है। क्या उसके इस दावे को स्वीकार किया जा सकता है?

अन्ना सुधार चाहते हैं या सुधारों की मौत?

यह लीजिए आरएसएस ने तो अपने ही मुंह से सारी बातें स्वीकार कर लीं। कल तक इसी आरएसएस के लोग भगवा आतंकवाद का नाम सुनकर ही भड़क जाते थे। हिंदू समुदाय के किसी शख्स को आतंकवादी तो क्या, दंगाई कहने पर भी ये वैसे ही भड़कते थे। इनका घोषित स्टैंड रहा है कि चूंकि हिंदू सदियों से सहिष्णु और उदार रहा है, इसलिए इनकी अगुवाई में हिंदू समुदाय के मुट्ठी भर लोग दंगा, मारपीट, आगजनी, रेप और बम विस्फोट के चाहे जितने भी कांड कर लें, उन्हें दंगाई, रेपिस्ट, आतंकवादी वगैरह कहना हिंदुत्व का अपमान है और उस कथित अपमान पर ये सब बिफर जाते थे। मगर, इसी संघ ने अब 'इटैलियन देवी की कृपा से गद्दी पर बैठे' प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा है कि भगवा आतंकवादी उसके दुश्मन हैं।

संघ के सीनियर नेता सुरेश जोशी ने पत्र में कहा है कि मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी बर्खास्त कर्नल पुरोहित और कथित शंकराचार्य दयानंद पांडे संघ प्रमुख मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार की जान लेना चाहते थे।
दिलचस्प बात यह है कि इसके लिए हवाला भी उन्होंने उसी महाराष्ट्र एटीएस का दिया है जिस पर हिंदू विरोधी साजिश का आरोप लगाते हुए संघ नेता थकते नहीं थे। जोशी ने कहा है कि 'महाराष्ट्र एटीएस के पास इस बात के पक्के सबूत हैं कि मालेगांव ब्लास्ट के ये दोनों आरोपी संघ नेतृत्व की हत्या की साजिश कर रहे थे।'

गौर करें तो संघ नेतृत्व के रुख में यह बदलाव अचानक नहीं बल्कि धीरे-धीरे और सुविचारित ढंग से आया है। पहले संघ यह कहता था कि कांग्रेस की ईसाई प्रभावित सरकार हिंदुओं के खिलाफ साजिश कर रही है, उन्हें आतंकवादी साबित करना चाहती है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उसके बाद संघ ने यह कहना शुरू किया कि संघ में कट्टरपंथियों के लिए जगह नहीं है। और अब संघ ने कहा है कि भगवा आतंकवादी उसके दुश्मन हैं। इतना ही नहीं, संघ ने इसी 'हिंदूद्रोही सरकार' से यह भी अनुरोध किया है कि संघ के खिलाफ रची जा रही साजिश की पूरी जांच करवाए।

सवाल है कि संघ के रुख में यह बदलाव क्यों आ रहा है? आखिर जो संघ हिंदुत्व को बदनाम करने वाली सरकार से टकराने को तैयार था उसने सरकार के आगे इस मसले पर समर्पण क्यों कर दिया?

असल में संघ नेतृत्व को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि उसकी बीमार विचारधारा से उपजे खतरनाक कीटाणु उसके अपने संगठन पर किस कदर काबिज हो चुके हैं। संघ ने शुरू में बात को हवा में उड़ाने की कोशिश की, लेकिन भगवा आतंक की एक के बाद एक जुड़ती कड़ियों से उसके होश फाख्ता हो गए। सुरेश जोशी ने अपने पत्र में कर्नल पुरोहित और दयानंद पांडे का जिक्र तो किया है पर साध्वी प्रज्ञा समेत तमाम उन आरोपियों पर चुप्पी साध गए जो आतंकी घटनाओं में पुरोहित और पांडे के साथ रहे हैं। इस तथ्य को झुठलाना अब संघ के लिए भी संभव नहीं रह गया है कि असीमानंद से लेकर इन तमाम आरोपियों तक के संघ परिवार से जुड़े संगठनों में अच्छी पैठ थी और इनका संघ कैडर पर खासा प्रभाव भी था।

कारण यह है कि ये सब संघ की उसी विचारधारा से पोषित हो रहे थे जिससे संघ का सामान्य कैडर प्रभावित था और है। ये संघ के ही तर्कों को और आगे ले जा रहे थे। स्वाभाविक रूप से संघ का मौजूदा नेतृत्व इनके निशाने पर था। उस पर ये जरूरत से ज्यादा उदार, आलसी, डरपोक आदि होने का आरोप सामान्य कैडर के बीच लगाते थे और सामान्य कैडर इनसे प्रभावित भी होता था। संघ के अंदर इन कथित आतंकियों से प्रभावित कैडर की संख्या अच्छी-खासी है। इनका नेतृत्व पर इस बात के लिए दबाव भी है कि 'हिंदुत्व के इन योद्धाओं' का मुसीबत में साथ न छोड़ा जाए, बल्कि डटकर इनका साथ दिया जाए।

दरअसल, इन कैडर की गलती भी नहीं है। संघ नेतृत्व ने जैसी विचारधारा का पाठ उन्हें पढ़ाया है वे तो उसी पाठ को दोहरा रहे हैं। मगर, अपनी विचाराधारा की असलियत से वाकिफ संघ नेतृत्व के हाथ-पैर अब फूल रहे हैं। उसे इस बात का भी अंदाजा हो रहा है कि सांप्रदायिक घृणा का जो भस्मासुर उसने पैदा कर दिया है, वह अब तक भले दूसरों के सिर पर हाथ देता था, अब उसी केपीछे पड़ गया है। सो, इससे बचने के लिए अब संघ के नेता उसी सरकार की शरण में पहुंच गए हैं जिसे वह पानी पी-पी कर कोसते रहते थे।

सड़कों पर


सड़कों पर हो रही सभाएँ
राजा को-
धुन रही व्यथाएँ

प्रजा
कष्ट में चुप बैठी थी
शासक की किस्मत ऐंठी थी
पीड़ा जब सिर चढ़कर बोली
राजतंत्र की हुई ठिठोली
अखबारों-
में छपी कथाएँ

दुनिया भर
में आग लग गई
हर हिटलर की वाट लग गई
सहनशीलता थक कर टूटी
प्रजातंत्र की चिटकी बूटी
दुनिया को-
मथ रही हवाएँ

जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ

क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार