29.9.11

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दोस्तों, आज आपको एक हिंदी ब्लॉगर की कथनी और करनी के बारें में बता रहा हूँ. यह श्रीमान जी हिंदी को बहुत महत्व देते हैं. इनके दो ब्लॉग आज ब्लॉग जगत में काफी अच्छी साख रखते हैं. अपनी पोस्टों में हिंदी का पक्ष लेते हुए भी नजर आते हैं. लेकिन मैंने पिछले दिनों हिंदी प्रेमियों की जानकारी के लिए इनके एक ब्लॉग पर निम्नलिखित टिप्पणी छोड़ दी. जिससे फेसबुक के कुछ सदस्य भी अपनी प्रोफाइल में हिंदी को महत्व दे सके, क्योंकि उपरोक्त ब्लॉगर भी फेसबुक के सदस्य है. मेरा ऐसा मानना है कि-कई बार हिंदी प्रेमियों का जानकारी के अभाव में या अन्य किसी प्रकार की समस्या के चलते मज़बूरी में हिंदी को इतना महत्व नहीं दें पाते हैं, क्योंकि मैं खुद भी काफी चीजों को जानकारी के अभाव में कई कार्य हिंदी में नहीं कर पाता था. लेकिन जैसे-जैसे जानकारी होती गई. तब हिंदी का प्रयोग करता गया और दूसरे लोगों भी जानकारी देता हूँ.जिससे वो भी जानकारी का फायदा उठाये. लेकिन कुछ व्यक्ति एक ऐसा "मुखौटा" पहनकर रखते हैं. जिनको पहचाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती हैं. आप आप स्वयं देखें कि-इन ऊँची साख रखने वाले ब्लॉगर के क्या विचार है उपरोक्त टिप्पणी पर. मैंने उनको जवाब भी दे दिया है. आप जवाब देकर मुझे मेरी गलतियों से भी अवगत करवाए. किसी ने कितना सही कहा कि-आज हिंदी की दुर्दशा खुद हिंदी के चाहने वालों के कारण ही है. मैं आपसे पूछता हूँ कि-क्या उपरोक्त टिप्पणी "विज्ञापन" के सभी मापदंड पूरे करती हैं. मुझे सिर्फ इतना पता है कि मेरे द्वारा दी गई उपरोक्त जानकारी से अनेकों फेसबुक के सदस्यों ने अपनी प्रोफाइल में अपना नाम हिंदी में लिख लिया है. अब इसको कोई "विज्ञापन' कहे या स्वयं का प्रचार कहे. बाकी आपकी टिप्पणियाँ मेरा मार्गदर्शन करेंगी.
नोट: मेरे विचार में एक "विज्ञापन" से विज्ञापनदाता को या किसी अन्य का हित होना चाहिए और जिस संदेश से सिर्फ देशहित होता हो. वो कभी विज्ञापन नहीं होता हैं. ..

26.9.11

खाप पंचायतों के सामने अबला है नारी


खाप पंचायतों के सामने अबला है नारी

: ऑनर के नाम पर लगातार हो रहा है डिसऑनर किलिंग : मरने वालों में सबसे ज्‍यादा संख्‍या महिलाओं की : महिला समाज नारीत्व का अभिशाप आज भी झेल रहा है। परंपरा-रिवाजो को निभाने का बोझ केवल नारी के कंधो पर ही डाल दिया गया है। कभी इसकी बलि जाति, गोत्र, परम्पराओं के नाम पर दी जाती है तो कभी महान बनाने का आडम्बर किया जाता है! आधुनिकता की दौड़ में विश्व आगे बढ़ रहा है और हमारा देश जाति, धर्म, सम्प्रदाय के चक्रव्यूह से निकलने में असमर्थ है। सच्‍चाई तो यह है कि देश में दिन प्रतिदिन बुराईयां बढ़ती जा रही हैं। आज भी हमारे देश में लड़कियों को खुली हवा में सांस लेने की आज़ादी नहीं है। आज भी गाँव में जाति, गोत्र, परिवार की इज्ज़त के नाम पर होने वाली हत्याओं की बात आती है तो इसमें लड़कियों और औरतों की संख्या अधिक होती है। सामंतवादी विचारधाराओं ने अपनी खाप पंचायत बना ली, जो अपने निहित लाभ के लिये अपना-अपना फरमान जारी करते है। फरमान न मानने वाले का सामाजिक बहिष्कार किया जाता हैं या मृत्युदंड की सजा सुनाई जाती है!
क्या हैं ये खाप पंचायतें और क्या इन्हें ऐसे निर्णय लेने का आधिकारिक या प्रशासनिक स्वीकृति हासिल है? रियायती पंचायतें या कहे खाप पंचायतें या कहे पारंपरिक पंचायतें, जिन्हें न आधिकारिक मान्यता प्राप्त है न ही न्यायिक अधिकार, फिर भी ये प्रभावशाली हैं! इन पंचायत में प्रभावशाली जातियों या गोत्र का दबदबा रहा है, या यूं कहे इनकी सामंतवादी नीतियां चलती हैं, और जो इनका फरमान न माने उन्हें शक्तिदंड तो भोगना ही पड़ता है, चाहे कोई भी क्यों न हो। एक गोत्र या फिर एक बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं। जिस गोत्र के जिस इलाके में ज्यादा प्रभावशाली लोग होते है, उसी का खाप पंचायत में दबदबा रहता है। आज इन पंचायतों का दबदबा सबसे ज्यादा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में है, जहां लड़कियों की जनसंख्या कम है! और वो उनपर अपना नियंत्रण खोना नहीं चहते हैं, चाहे उनकी अपनी औलाद घुटकर-घुटकर क्यों न मर जाये!
हाल ही में आई कई खबरें चौंका देने वाली थी। कमलेश यादव व खुशबू शर्मा की हत्या, दूसरी कुलदीप और मोनिका की हत्या, मनोज-बबली की हत्या आदि ऐसी कई मौतें इस बात का हवाला देती हैं। रोज़ एक हत्या ऑनर किलिंग या कहें तो डिसऑनर किलिंग के तहत हो रही है। युवा पत्रकार निरुपमा की मौत से हम और हमारा समाज अछूता नहीं है। इज्ज़त की खातिर ऑनर किलिंग या यानी डिसऑनर किलिंग का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। अपने झूठा अभिमान को बचाने की झूठी कवायद हो रही है। रोज़-रोज़ मासूमों की बलि चढ़ती जा रही है, जो एक बीमार मस्तिष्कता की उत्पति है!
आज देश में हर घंटे अनेकों अपराध हो रहे है, बलात्कार, चोरी ,लूट, आतंकवादी घटनाएं और सांप्रदायिक दंगे, पर हमने यह कहीं नहीं सुना कि किसी पंचायत या पिता ने अपने बलात्कारी बेटे को मृत्युदंड दिया हो, उसका सामाजिक निष्कासन किया गया हो। उल्टा उसे बचाने की कवायद शुरू होती है और पुलिस प्रशासन पर आरोप लगता है कि उसके बेटे को गलत फंसाया गया, कभी किसी आतंकी के पिता ने या पंचायत ने उसके लिए फतवा जारी किया है, जो रोज़-रोज़ न जाने कितने बेगुनाह मौत की भेंट चढ़ा रहे है? उसके लिए समाज को कोई चिंता नहीं है। आज अगर इस महान पंचायत और महान लोगों का बेटा जुआ खेले, लड़कियों को प्रताड़ित करे, शराब पिए तो कोई भी सज़ा नही होती पर यदि किसी औरत या लड़की से कोई भी गुनाह हो जाये तो यह पंचायत अपने असली रूप में आकर अपने तेवर दिखाती है। आज भी किसी महिला या लड़की को अपने जीवन के प्रति निर्णय लेने का अधिकार नही है! आज भी लड़कियों को भेड़-बकरियों या गाय की तरह एक खूंटे में बांध दिया जाता है, जहां उसे अपने समाज, बिरादरी की परंपरा निभानी पडती है। आज भी कोई नारी जातीय या धार्मिक परम्परा को तोड़ने की हिम्मत नही कर सकती और यदि तोड़े तो उसके लिए मौत ही एक रास्ता होता है!
आज प्रश्न उठता है कि हम कब सुधरेंगे? क्या आज भी हम उन्हीं दकियानूसी परम्पराओं का निर्वाह करते रहेंगे?आज हमारे देश को आज़ाद हुए इतने साल हो गए पर आज भी ठीक ढंग से लोकतंत्र की स्थापना नही हो पाई है! जानते है क्यों? क्योंकि हम अभी भी अपनी-अपनी जाति का बोझ ढो रहे है। अपनी परम्पराओं को गलत ना मानकर दूसरों की परम्पराओं पर लांछन लगा रहे है! वास्तव में हमारे देश का जातिवाद का यह स्वरुप पिछले दो तीन हज़ार वर्षो से बिगड़ा है! मै सोचती हूँ कि हमारे देश की वर्तमान राजनीति ही मात्र जिम्मेवार नही है बल्कि हमारे देश के इतिहास को पढेंगे तो पाएंगे कि कुछ राज्यों में कुछ हद तक जातिवाद की भावना थी, पर वो इतनी गहरी और खराब नही थी जितनी की आज है। ऑनर किलिंग के नाम पर मासूमो का खून बहाना बंद होना चाहिए। खाप के लोगो को समझना होगा की इस देश में कानून अपने हाथ में लेना खतरनाक है, इसे रोकना होगा।

वो बस मान्‍या का शरीर चाहता था!


: इंटरनेट के जाल में फंसी लड़की की कहानी : झूठे प्रेम का सब्‍जबाग दिखाकर उसकी भावनाओं से खेलना चाहता था भावेश : सुबह का समय था, मान्या अपने ऑफिस में बैठी अपने कंप्यूटर में कुछ मेल पढ़ रही थी और उनके उत्तर दे रही थी कि अचानक उसने एक फ्रेंड रिक्‍वेस्‍ट देखा, उसने सोचा यह कौन है, चलो उसका प्रोफाइल देखते है? मन में आए विचार के अनुसार वह उस प्रोफाइल पर गई और उसे पढ़ने लगी...नाम-भावेश, पता बनारस और विचारों से एक कन्‍फ्यूजिंग इन्सान...पर शब्दों में आदर्श महिलाओं के प्रति उच्च विचारधारा! उसके प्रोफाइल को पढ़कर मान्या को लगता है, चलो एक अच्छा व्‍यक्ति लग रहा है, उसने भावेश के दोस्ती के निमंत्रण को सह्दय स्वीकार कर लिया और अपने कार्यो में लग गई. दूसरे दिन सुबह जब मान्या ने अपना कंप्यूटर खोला तो भावेश को ऑनलाइन पाया और भावेश ने मान्या को सुबह का नमस्ते भी भेजा। मान्या ने भी उन्हें सादगी से जवाब दिया और अपने रोजमर्रा के कामों में लग गई. ऐसा कई दिनों तक चलता रहा.
एक दिन सुबह मान्या अपनी एक मित्र से बात कर रही थी, तभी भावेश ने उसे सुबह का नमस्ते किया, उसने उन्हें जवाब दिया और भावेश के पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर देने लगी. भावेश मान्या से कहता है- खुद की तलाश हमेशा कठिन होती है और जो एक बार खुद को खो देता है, उसे ढूंढना मुश्किल हो जाता है. इसके बाद भावेश ने लिखा- हम भावेश हैं, आपका नाम क्या है? मान्या सिंह. मान्या- कहां से? भावेश- बनारस से हूँ, यहाँ की सुबह बेहद सुन्दर होती है, रेत के बंजरों पर बादलों की गड़गड़ाहट हमेशा अच्छी लगती है. मान्या -यह हमने सुना है, गंगा का किनारा और संतो की बाणी और शंखो की धुन. भावेश -आप कहां से? मान्या- हम लखनऊ से हैं, "सिटी ऑफ़ नवाब्‍स." भावेश- जानकर अच्छा लगा, मैं भी कभी-कभी वहां आता हूँ और मुझे लखनऊ वैसे भी कभी अजनबी जैसा नहीं लगा. मान्या- यह जानकर ख़ुशी हुई कि आप को हमारा शहर अच्छा लगता है.भावेश- कुछ अलग सा है. आप क्या करती हैं? मान्या- कुछ नहीं एक जॉब की तलाश कर रही हूँ! अच्छा अब हम चलते हैं, आप से फिर बात होगी! खुश रहिए और अपना ख्याल रखियेगा. लेकिन भावेश मान्या को बड़ा अजीब उत्तर देता है. भावेश- मुझे तो ख़ुशी होनी ही थी, दोस्ती का हाँथ जो पहले हमने बढ़ाया था.
अगले दिन सुबह के समय मान्या ऑनलाइन होती है और भावेश को अच्छी सुबह की बधाई देती है. पर भावेश उससे कहता है कि मेरे सपने पूरे नहीं होते, जब कोई कहता है-जा तेरे सपने पूरे हों, तो हंसी आती है. मान्या कहती है- मेरे सपने पूरे हो या न हों पर मैं कोशिश जरुर करती हूं और आप इतनी निराशावादी बातें क्यों करते है? भावेश- नहीं, निराशावादी मैं तो हूँ ही नहीं! बात सपनों के सच होने की और न होने की है. शायद इसलिये सपने नहीं देखता. कल आप बात करते-करते अचानक चली गईं तो मैंने आपकी प्रोफाइल पढ़ी, कुछ अलग हटकर था. मान्या ने उत्तर दिया हम ऐसे ही हैं, और इस तरह उनकी बातों का सिलसिला चलने लगा, पर भावेश के दिल में क्या चल रहा था, वो इस सच से अनजान थी! चार-पांच दिन के बाद भावेश ने मान्या से उसका फ़ोन नंबर मांगा. पहले तो मान्या मना कर देती है! पर बाद में भावेश की बातों पर विश्‍वास कर के अपना नंबर उसे दे देती है! उसी दिन भावेश ने मान्या से कहा कि वो उससे बहुत प्यार करता है, पर मान्या ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.
उसी वक्त भावेश उससे कहता है-मान्या तुम्हें हमसे प्यार करना ही होगा. यह बात मान्या को बड़ी अजीब सी लगती है. मान्या को लगा कि देखो यह अपनी बात के पीछे लग गए हैं, हम इन्हें अच्छी तरह से जानते भी नहीं हैं और यह हमसे कहते हैं-हमसे प्यार करते है! क्या ऐसे भी कोई किसी को प्यार करता है, पर भावेश का पागलपन बढ़ता ही जा रहा था. मान्या को उनसे डर सा लगने लगा! तब मान्या भावेश से कहती है कि अगर वो उसे प्यार करते हैं तो उससे विवाह कर लें. पर भावेश विवाह करने से मना कर देता है और अपने परिवार की बहुत सी समस्या बताता है... उसकी बहन का विवाह आजीवन नहीं हो सकता तो वो कैसे विवाह कर सकता है और उसकी एक भाभी हैं, जिसकी और उनके बच्चो की उसे ही देखभाल करनी है, क्योंकि उसके भाई की मृत्यु सड़क दुर्घटना में हो गयी है और उनकी माँ चाहती है कि वो अपनी विधवा भाभी से शादी कर ले.
मान्या कहती है कि अगर ऐसा है तो उसे अपनी भाभी से प्यार का प्रस्ताव रखना चाहिए न की उससे. इसपर भावेश कहता है- वो मान्या से प्यार करता है, किसी और से शादी नहीं कर सकता. मान्या भावेश के इस शब्दजाल में फंस जाती है! मान्या को लगता है- शायद  भावेश सच बोल रहा है. वो उसके प्रेम-प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती है. मान्या कहती है- भावेश मुझसे विवाह कर लो तो  हम-दोनों एक साथ हर समस्या का सामना कर लेंगे. भावेश नहीं मानता है और कहता है- वो आजीवन बिना विवाह के ही रहेगा. पता नहीं क्यों मान्या उसकी बातों पर भरोसा कर लेती है और भावेश से कहती है कि वो दोस्त की तरह से आजीवन रह सकते हैं, पर भावेश नहीं मानता है. एक दिन भावेश मान्या के शहर उससे मिलने आता है. उस दिन मान्या बहुत खुश होती है, क्योंकि जीवन में पहली बार किसी अपने से मिलने जा रही होती है, पर जब वो भावेश से मिलती है तो उसकी आत्मा कहती है कि कहीं कुछ गलत है. वो भावेश को सब से मिलाती है पर भावेश उसे किसी से पहचान कराने से भी डरता है और बस वह उससे कुछ ऐसी डिमांड करता है जो कोई भी लड़की पूरे नहीं कर सकती हो. मान्या उसकी इच्छा पूरा करने से मना कर देती है. वह भावेश को बहुत समझाती है कि वो एक अच्छा दोस्त बन सकती है, पर भावेश का बर्ताव बड़ी अजीब सा हो जाता है, क्‍योंकि भावेश का मकसद सिर्फ मान्या के शारीर को पाना था!
बड़ा अजीब सा लग रहा था मान्या को, क्या यह वही इंसान है, जो उससे रो-रो कर कहता था कि वो उससे प्यार करता है और उसक बिना जी नहीं सकता ? यह वो नहीं कोई अजनबी सा इन्सान लग रहा है! पर वो तो इस इंसान से प्यार करने लगी थी. उसने तो इस इंसान के साथ अपना पूरा जीवन बिताने के सपने देखे थे. उसके पास भावेश पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था, क्योंकि वो इस इंसान से दिल से जुड़ गयी थी. भावेश चला जाता है और मान्या उसे चाह कर भी नहीं रोक पाती. धीरे-धीरे समय का चक्र आगे बढता है. मान्या का विश्वास भावेश से हटने लगता है. भावेश की रोज नयी महिला मित्रों की संख्या बढने लगती है तो वो मान्या को भूलने लगता है. वो उससे बात नहीं करता. उसके फोन का भी जवाब नहीं देता. मान्या दिन पर दिन मरती जा रही थी और वो अपने लिए कुछ नहीं कर पा रही थी. आज उसे वो बातें बेमानी लगती हैं- प्यार उससे करो, जो प्‍यार तुमसे करे. इसी बात पर विश्वास करके ही तो उसने भावेश से प्यार किया था!
एक दिन मान्या भावेश को फोन करती है और बहुत सारी बातें करती है. इसी बीच भावेश उस औरत का नाम लेता है, जिसे वो अपनी भाभी बताता था! तब मान्या भावेश से पूछती है कि तुम्हें  आज सच बताना होगा क्या रिश्ता है तुम्हारा इस औरत से? तब भावेश कहता है- उसने उस औरत से शादी कर ली है, क्योकि शादी करना उसकी मजबूरी थी. वो मान्या से मिलता है और बहुत सारी झूठी कहानियां सुनाता है, पर मान्या को उसकी किसी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था. कहा जाता है सच अपने आप बोलता है. किस्मत ने भी सच जानने में मान्या का साथ दिया. इस मुलाकात के कुछ दिन बाद ही भावेश के सहकर्मी से बात होती है, जिसकी पहचान भावेश ने मान्‍या से करा दी थी. वो मान्या को बताता है कि भावेश की शादी तो दस-ग्‍यारह साल पूर्व ही हो चुकी है  और उसके दो बच्चे भी हैं, आज उसकी शादी की सालगिरह है. यह सुनकर मान्या के पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाती है, उसकी आंखों के सामने अंधेरा सा छा जाता हैं. उसे कुछ भी सुनाई नहीं देता और कुछ भी नहीं दिखाई देता, मानो किसी ने उसके सारे सपने एक ही झटके में तोड़ दिए हो! जो इंसान उसके सामने महान बनने का ढोंग कर रहा था, आज उसका गंदा और बदनुमा चेहरा उसके सामने आ गया था.
वह भावेश से चीख-चीख कर पूछती है- अगर वो शादी-शुदा था तो उसने उससे प्यार का झूठा नाटक क्यों किया? उसके जज्बातों से क्यों खेला? भावेश के पास मान्या के एक भी प्रश्न का उतर नहीं था, और ना ही सच का सामना करने की हिम्मत, क्योंकि उस इन्सान का झूठ सामने आ चुका था. एक और लड़की के विश्‍वास के साथ एक कमीना इन्सान खेल चुका था. वो लाचार थी क्योंकि वो एक ऊंचे कद का इन्सान था! कुछ दिन बाद पता चलता है कि यह इन्सान न जाने कितने महिलाओं और लड़कियों के जीवन से खेल चुका है और अभी भी खेल रहा है! तब उसने अपने नाम और चरित्र की परवाह किये बिना भावेश का सच दुनिया के सामने लाने का प्रयास भी किया! पर उसका यह प्रयास निरर्थक रहा क्योंकि उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था. उस इन्सान के पिता और पत्नी को जब मान्‍या ने यह बात बताई तो भावेश की पत्नी ने मान्या के चरित्र पर ही सवालिया निशान लगा दिया! भावेश ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी अपना गुनाह छुपाने के लिए. उसने मान्या को तो जान से मारने की धमकी तक दे डाली!
मान्या ने हर किसी से सहायता  मांगी, पर उसकी लाचारगी ने उसे हर जगह से खाली ही लौटाया. मान्या पूरी तरह से टूट चुकी थी, उसके जीवन के सारे रास्ते खत्म हो चुके थे, पर उसने हर नहीं मानी और उसने इसका न्याय भगवान पर छोड़ दिया.  इस सच्‍ची घटना को मैंने भी कहानी की शक्ल दे दी. अब देखते हैं अंत क्या होता है इस सच्‍ची कहानी का! पर मैं जानती हूँ कि आज के परिवेश में हार सिर्फ और सिर्फ नारी की ही होती है! कोई कितना भी सच क्यों न बोले पर उसका सच पुरुष के सामने बौना हो जाता है! कितनी बड़ी विडंबना है कि सच को अपनी बात साबित करने के लिया मरना पड़ता है और जब सब खतम हो जाता है तो लोग चंद आंसू बहाने के लिए चले आते हैं!
इस घटना को मैंने अपनी आंखों के सामने घटते देखा है. मेरी लाचारगी और बेबसी ये है कि मैं भी इस मामले में अब कुछ भी नहीं कर सकती! तब लगा कि इसे समाज के सामने रखना चाहिए. समाज ही इस सच पर निर्णय करे. पर जानती हूँ, यहाँ भी हार नारी की ही होगी! क्योंकि नारी ही नारी की दुश्मन होती है! यदि एक नारी दूसरी नारी के साथ हो तो कोई उसे वेश्या या रखैल कहने का साहस नहीं कर सकता! ना ही कोई उसे डायन  कहकर उसके जीभ काट सकता है,  ना ही वस्‍त्रविहीन करके उसे पूरे गाव में घुमा सकता है! पर मुझे पता है, यह सब होता रहा है औरा यह आगे भी होता रहेगा, क्‍योंकि कोई भी युग तभी बदलेगा जब इंसानों के अंदर इंसानियत जागेगी. और हर भावेश को अपनी गलती पर शर्मिंदगी होगी और पश्‍चाताप होगा! जब कोई औरत किसी की बेचारगी पर ताने नहीं मारेगी. ये कविता नारी के पीड़ा को व्‍यक्‍त करती है और जब तक इसे बदला नहीं जायेगा तब तक मान्‍या जैसी लड़कियों को दुख झेलते रहना पड़ेगा.
है यह नारी हृदय पीड़ा से भरा, 
यह नर क्या जाने विदित नारी मन को ?
करा रहा है बस अपमान इसका
कभी पिता, कभी पति, कभी प्रेमी, कभी पुत्र बन कर.
नारी  जीवन करूणा से भरा 
कैसे छिपे इसकी अनंत व्यथा
आज धरा को बता  दो
समेट ले अपनी सब सत्ता
देखते हैं, यह  नर कब तक
करेगा विकृत नारी सम्मान को,
ना होगी नारी
ना होगी कोई अभिप्रेरणा इसका झूठा आडम्बर
नहीं करा सकेगा तब
मानसी भाव को बेबस
हे ईश! 
मिटा दे नारी को इस धरा से
दे नर को बस नर का दान
बचा लें यहाँ नपुंसक अपने घर का मान.

24.9.11

अनपढ़ और गंवारों के समूह में शामिल होने का आमंत्रण पत्र

दोस्तों, क्या आप सोच सकते हैं कि "अनपढ़ और गँवार" लोगों का भी कोई ग्रुप इन्टरनेट की दुनिया पर भी हो सकता है? मैं आपका परिचय एक ऐसे ही ग्रुप से करवा रहा हूँ. जो हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु हिंदी प्रेमी ने बनाया है. जो अपना "नाम" करने पर विश्वास नहीं करता हैं बल्कि अच्छे "कर्म" करने के साथ ही देश प्रेम की भावना से प्रेरित होकर अपने आपको "अनपढ़ और गँवार" की संज्ञा से शोभित कर रहा है.अगर आपको विश्वास नहीं हो रहा, तब आप इस लिंक पर "हम है अनपढ़ और गँवार जी" जाकर देख लो. वैसे अब तक इस समूह में कई बुध्दिजिवों के साथ कई डॉक्टर और वकील शामिल होकर अपने आपको फक्र से अनपढ़ कहलवाने में गर्व महसूस कर रहे हैं. क्या आप भी उसमें शामिल होना चाहेंगे?  फ़िलहाल इसके सदस्य बहुत कम है, मगर बहुत जल्द ही इसमें लोग शामिल होंगे. कृपया शामिल होने से पहले नियम और शर्तों को अवश्य पढ़ लेना आपके लिए हितकारी होगा.एक बार जरुर देखें.
हिंदी मैं नाम लिखने की भीख मांगता एक पत्रकार- 
मुझ "अनपढ़ और गँवार" नाचीज़(तुच्छ) इंसान को ग्रुप/समूह के कितने सदस्य अपनी प्रोफाइल में अपना नाम पहले देवनागरी हिंदी में लिखने के बाद ही अंग्रेजी लिखकर हिंदी रूपी भीख मेरी कटोरे में डालना चाहते है.किसी भी सदस्य को अपनी प्रोफाइल में नाम हिंदी में करने में परेशानी हो रही हो तब मैं उसकी मदद करने के लिए तैयार हूँ. लेकिन मुझे प्रोफाइल में देवनागरी "हिंदी" में नाम लिखकर "हिंदी" रूपी एक भीख जरुर दें. आप एक नाम दोंगे खुदा दस हजार नाम देगा. आपके हर सन्देश पर मेरा "पंसद" का बटन क्लिक होगा. दे दो मुझे दाता के नाम पे, मुझे हिंदी में अपना नाम दो, दे दो अह्ल्ला के नाम पे, अपने बच्चों के नाम पे, अपने माता-पिता के नाम पे. दे दो, दे दो मुझे हिंदी में अपना नाम दो. पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें.

20.9.11

पुरुषनिर्मित सौन्दर्यकसौटी पर ही खुद को तोलती है औरतें


विचित्र तो यह है कि स्त्री की मुक्ति का अहसास होने के बावजूद आज भी स्त्री पुरुषनिधार्रित सौन्दर्यमानकों के खांचों में खुद को फिट करने की होड. में शामिल है।


आज भी उनका सौंदर्यबोध उनका सपना पुरुष की नज़रों में सुन्दर लगना ही है। उनकी चाहत है ऐसी देह, जो पुरुष को आकर्षित कर सके, जिस पर पुरुष मुग्ध हो जाए। ऐसी कसौटी जिस पर वह सराही जाये, जिसे पुरुषों ने ही गढ़ा है। यानी ३६.२४.३६ की गोरी, कोमल, नाज़ुक, नफीज़ दिखने वाली एक ऐसी देहयष्टि, जो पुरुषों को मुग्ध कर सके या उनमें हजारों में एक का स्वामी होने का आभास पैदा कर सके।

यूँ तो आकर्षित करने का इम्पल्स पशुओं में भी होती है लेकिन वह प्रकृति द्वारा प्रदत्त निधारित और निश्चित आचरण होता है। मनुष्य अपना आचरण खुद तय करता है, इसलिए स्त्री यदि अपने अनुकूल आचरण तय करती है, तो वह ज्यादा आत्मनिर्भर बन सकती है। देह का ही मामला लें। कामकाजी महिला को चुस्तदुरुस्त, हाजिर जवाब, हिलमिल कर काम करने का स्वभाव, सूचनाओं से लैस और साहसी होना जरूरी होता है, छुईमुई बनना नहीं। ऐसा होने पर कार्यस्थल पर वह पुरुषों में व्याप्त कामुक नजरों का मुकाबला ज्यादा मुस्तैदी से कर सकती है। यदि वह नाज़ुक, नफीज़ या फिगर के घेरे में ही सीमित रहे अथवा इसी चक्कर में रहे कि वह पुरुष की नज़र में कैसी लगती है, तो उसका काम प्रभावित होता है और बहुत से पुरुष उसके आश्रयदाता बनकर उसके बदले काम करने का प्रलोभन देकर, उसे अपने वश में करने का प्रयास करने लगते हैं।

आखिर स्त्रियों में भी, मर्दों द्वारा अपनी तुष्टि व आनंद के लिए गढ़ी गई एक तिलस्माई लेकिन कठपुतलीनुमा छवि वाली स्त्री की कसौटी यानी एक नाज़ुक , पतलीदुबली, गोरी, बड़े बड़े उरोज, गुदगुदे और बड़े बड़े नितम्ब, लम्बा कद, पतली कमर, लम्बी उंगलियां, छोटे पांव, लम्बी गर्दन, लम्बे व चमकदार बालों वाली स्त्री के प्रति सम्मोहन क्यों है? पुरुष एक ऐसी ही कमनीय स्त्री की कामना करता है और ऐसी ही स्त्री को अपनी अंकशायिनी बनने के काबिल समझता व मानता है। ऐसी ही स्त्री उसे आकर्षित करती है। ऐसी स्त्री उसकी अंकशायिनी तो बनती है पर प्रायः वह उसके आदर की पात्र नहीं होती। पुरुष भोगने के पहले और बाद में भी ऐसी सुन्दर स्त्री के चरित्र को प्रायः शंकालु और हेय नजरों से देखता है। वह उस परपुरुष को मोहने का आरोप तक लगा कर खुद को दोष मुक्त कर लेता है। इससे साफ ज़ाहिर है कि पुरुष एक कमजद्रोर स्त्री की ही कामना करता है की जिस पर वह हावी हो सके जिसे वह अपने वश में रख सके। किन्तु स्त्रीयों खुद को पुरुष अभीप्रिय छवि में फिट करने को आतुर रहती है। इसका जवाब स्त्री का पुरुषवादी मानसिकता से आतंकित होना ही है।

हांलांकि मुझे बाजारवादी मॉडल या फिल्मी दुनिया को ऐसी स्त्री से बिल्कुल ऐतराज नहीं है लेकिन उनके सौंदर्य का मापदंड पुरुष ने निर्धारित किया है। और पुरुष प्रायः केवल स्त्री की देह को देखता है, देहधारी की क्षमता और काबिलियत को नज.रअंदाज कर देता है। वह, यानी स्त्री कितनी गुणवान है, कितनी सामाजिक है, गुणवान या ईमानदार है, यह पुरुषों के लिए मायने नहीं रखता। बस कितनी मुग्धकारी तस्वीरसी लगती है वही उनकी कसौटी है। विडम्बना तो यह है कि अज्ञानवश अधिकांश स्त्रियाँ भी इसी पुरुष दृष्टी से ही सोचती हैं। सुन्दर लगना स्त्रियित्व तो क्या मनुष्य का गुण है पर सुन्दर वस्तु बनना जड़ता का प्रतीक है, जीवन्त मनुष्य का नहीं। स्त्राी जरूर सुन्दर लगे या सुन्दर लगने का प्रयास करे पर ,पुरुष के लिए भोग्या बनने के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि सुन्दरता एक गुण है, विशेषता है स्त्री का सुन्दर व आकर्षक लगना उसका स्वभाव है, गुण है एक मानवीय बोध है, जिसे आत्मसात किया जाना चाहिये वस्तु मान कर भोगना नहीं। अजीब विडम्बना है कि पुरुष ने स्त्री का मानक ऐसा गढ़ा है, जिसमें वह कमज़ोर व पराश्रित दिखती है। ऐसी नाजुक कि बिना पुरुष के सहारे आगे ही न बढ सके। किन्तु स्त्री ने पुरुष के लिए जो मानक गढ़ा है वह ठीक इसके उलट है। इसलिए हर पुरुष स्त्री के समक्ष खुद हृष्ट पुष्ट, बलिष्ठ व चुस्त दुरुस्त दिखने की चेष्टा करता है चूंकि स्त्रियों ने उसके लिए ऐसा ही मानक गढ रखा है! यानी ऐसा पुरुष जो उसे वश में रख सके। यही वह ग्रन्थि है जो सदियों से स्त्री के अवचेतन में उसके पोरपोर में ठूंसठूंस कर भरी जाती रही है कि उसे पुरुष के अधीन उसके वश में ही रहना है। स्त्री को अपने अर्न्तमन की यही गांठ खोलनी है और इसी से उसे मुक्त होना है।

हालांकि ये मानक व्यक्तिगत रुचि के अनुसार बदले भी हैं और बदल भी रहे हैं। पर प्रचारित प्रसारित व समाज में आदर्श केवल ऊपर वर्णित मानकों को ही माना गया है। किन्तु अब स्त्री पुरुष के सब मानदण्डों व नजरियों को बदलने की जरूरत है।


दरअसल स्त्रियों को खुद में अन्तेर्द्रिष्टि पैदा करनी होगी अधिकांश स्त्रियाँ पुरुष दृष्टि से ही ग्रस्त हैं। अभी तक स्त्रियाँ खुद भी दूसरी स्त्री को एक स्त्री के रूप में देखने की क्षमता हासिल नहीं कर सकीं हैं, इसीलिए वे स्त्री होने के नाते दूसरी स्त्री की त्रासदी को नहीं समझ पातीं। सासबहू का विवाद ऐसी ही सोच का परिणाम है। वे रिश्तों के संदर्भ में ही दूसरी औरत को समझती हैं। मां भी बेटी को बेटी यानी सन्तान के नाते ही पहचानती है और बेटी मां को मां के रिश्ते के नाते। दोनों एकदूसरे को एक औरत होने के नाते नहीं समझतीं। जिस दिन यह सोच निर्मित हो जाएगी, उस दिन स्त्री अपनी मुक्ति की आधी लडाई जीत लेगी।

सन्तान का मोह भी स्त्री को गुलाम बनाता है। ऐसा लगता है जैसे स्त्री ने ही सारी ममता का ठेका ले रखा है। पुरुष क्यों नहीं सन्तान के मोह में पडता? वह भी तो पिता होता है। सारा दायित्व औरत पर ही क्यों ? ये प्रश्न जवाब खोजते हैं।

पुरुषनिर्मित सौन्दर्यकसौटी पर ही खुद को तोलती है औरतें


विचित्र तो यह है कि स्त्री की मुक्ति का अहसास होने के बावजूद आज भी स्त्री पुरुषनिधार्रित सौन्दर्यमानकों के खांचों में खुद को फिट करने की होड. में शामिल है।


आज भी उनका सौंदर्यबोध उनका सपना पुरुष की नज़रों में सुन्दर लगना ही है। उनकी चाहत है ऐसी देह, जो पुरुष को आकर्षित कर सके, जिस पर पुरुष मुग्ध हो जाए। ऐसी कसौटी जिस पर वह सराही जाये, जिसे पुरुषों ने ही गढ़ा है। यानी ३६.२४.३६ की गोरी, कोमल, नाज़ुक, नफीज़ दिखने वाली एक ऐसी देहयष्टि, जो पुरुषों को मुग्ध कर सके या उनमें हजारों में एक का स्वामी होने का आभास पैदा कर सके।

यूँ तो आकर्षित करने का इम्पल्स पशुओं में भी होती है लेकिन वह प्रकृति द्वारा प्रदत्त निधारित और निश्चित आचरण होता है। मनुष्य अपना आचरण खुद तय करता है, इसलिए स्त्री यदि अपने अनुकूल आचरण तय करती है, तो वह ज्यादा आत्मनिर्भर बन सकती है। देह का ही मामला लें। कामकाजी महिला को चुस्तदुरुस्त, हाजिर जवाब, हिलमिल कर काम करने का स्वभाव, सूचनाओं से लैस और साहसी होना जरूरी होता है, छुईमुई बनना नहीं। ऐसा होने पर कार्यस्थल पर वह पुरुषों में व्याप्त कामुक नजरों का मुकाबला ज्यादा मुस्तैदी से कर सकती है। यदि वह नाज़ुक, नफीज़ या फिगर के घेरे में ही सीमित रहे अथवा इसी चक्कर में रहे कि वह पुरुष की नज़र में कैसी लगती है, तो उसका काम प्रभावित होता है और बहुत से पुरुष उसके आश्रयदाता बनकर उसके बदले काम करने का प्रलोभन देकर, उसे अपने वश में करने का प्रयास करने लगते हैं।

आखिर स्त्रियों में भी, मर्दों द्वारा अपनी तुष्टि व आनंद के लिए गढ़ी गई एक तिलस्माई लेकिन कठपुतलीनुमा छवि वाली स्त्री की कसौटी यानी एक नाज़ुक , पतलीदुबली, गोरी, बड़े बड़े उरोज, गुदगुदे और बड़े बड़े नितम्ब, लम्बा कद, पतली कमर, लम्बी उंगलियां, छोटे पांव, लम्बी गर्दन, लम्बे व चमकदार बालों वाली स्त्री के प्रति सम्मोहन क्यों है? पुरुष एक ऐसी ही कमनीय स्त्री की कामना करता है और ऐसी ही स्त्री को अपनी अंकशायिनी बनने के काबिल समझता व मानता है। ऐसी ही स्त्री उसे आकर्षित करती है। ऐसी स्त्री उसकी अंकशायिनी तो बनती है पर प्रायः वह उसके आदर की पात्र नहीं होती। पुरुष भोगने के पहले और बाद में भी ऐसी सुन्दर स्त्री के चरित्र को प्रायः शंकालु और हेय नजरों से देखता है। वह उस परपुरुष को मोहने का आरोप तक लगा कर खुद को दोष मुक्त कर लेता है। इससे साफ ज़ाहिर है कि पुरुष एक कमजद्रोर स्त्री की ही कामना करता है की जिस पर वह हावी हो सके जिसे वह अपने वश में रख सके। किन्तु स्त्रीयों खुद को पुरुष अभीप्रिय छवि में फिट करने को आतुर रहती है। इसका जवाब स्त्री का पुरुषवादी मानसिकता से आतंकित होना ही है।

हांलांकि मुझे बाजारवादी मॉडल या फिल्मी दुनिया को ऐसी स्त्री से बिल्कुल ऐतराज नहीं है लेकिन उनके सौंदर्य का मापदंड पुरुष ने निर्धारित किया है। और पुरुष प्रायः केवल स्त्री की देह को देखता है, देहधारी की क्षमता और काबिलियत को नज.रअंदाज कर देता है। वह, यानी स्त्री कितनी गुणवान है, कितनी सामाजिक है, गुणवान या ईमानदार है, यह पुरुषों के लिए मायने नहीं रखता। बस कितनी मुग्धकारी तस्वीरसी लगती है वही उनकी कसौटी है। विडम्बना तो यह है कि अज्ञानवश अधिकांश स्त्रियाँ भी इसी पुरुष दृष्टी से ही सोचती हैं। सुन्दर लगना स्त्रियित्व तो क्या मनुष्य का गुण है पर सुन्दर वस्तु बनना जड़ता का प्रतीक है, जीवन्त मनुष्य का नहीं। स्त्राी जरूर सुन्दर लगे या सुन्दर लगने का प्रयास करे पर ,पुरुष के लिए भोग्या बनने के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि सुन्दरता एक गुण है, विशेषता है स्त्री का सुन्दर व आकर्षक लगना उसका स्वभाव है, गुण है एक मानवीय बोध है, जिसे आत्मसात किया जाना चाहिये वस्तु मान कर भोगना नहीं। अजीब विडम्बना है कि पुरुष ने स्त्री का मानक ऐसा गढ़ा है, जिसमें वह कमज़ोर व पराश्रित दिखती है। ऐसी नाजुक कि बिना पुरुष के सहारे आगे ही न बढ सके। किन्तु स्त्री ने पुरुष के लिए जो मानक गढ़ा है वह ठीक इसके उलट है। इसलिए हर पुरुष स्त्री के समक्ष खुद हृष्ट पुष्ट, बलिष्ठ व चुस्त दुरुस्त दिखने की चेष्टा करता है चूंकि स्त्रियों ने उसके लिए ऐसा ही मानक गढ रखा है! यानी ऐसा पुरुष जो उसे वश में रख सके। यही वह ग्रन्थि है जो सदियों से स्त्री के अवचेतन में उसके पोरपोर में ठूंसठूंस कर भरी जाती रही है कि उसे पुरुष के अधीन उसके वश में ही रहना है। स्त्री को अपने अर्न्तमन की यही गांठ खोलनी है और इसी से उसे मुक्त होना है।

हालांकि ये मानक व्यक्तिगत रुचि के अनुसार बदले भी हैं और बदल भी रहे हैं। पर प्रचारित प्रसारित व समाज में आदर्श केवल ऊपर वर्णित मानकों को ही माना गया है। किन्तु अब स्त्री पुरुष के सब मानदण्डों व नजरियों को बदलने की जरूरत है।


दरअसल स्त्रियों को खुद में अन्तेर्द्रिष्टि पैदा करनी होगी अधिकांश स्त्रियाँ पुरुष दृष्टि से ही ग्रस्त हैं। अभी तक स्त्रियाँ खुद भी दूसरी स्त्री को एक स्त्री के रूप में देखने की क्षमता हासिल नहीं कर सकीं हैं, इसीलिए वे स्त्री होने के नाते दूसरी स्त्री की त्रासदी को नहीं समझ पातीं। सासबहू का विवाद ऐसी ही सोच का परिणाम है। वे रिश्तों के संदर्भ में ही दूसरी औरत को समझती हैं। मां भी बेटी को बेटी यानी सन्तान के नाते ही पहचानती है और बेटी मां को मां के रिश्ते के नाते। दोनों एकदूसरे को एक औरत होने के नाते नहीं समझतीं। जिस दिन यह सोच निर्मित हो जाएगी, उस दिन स्त्री अपनी मुक्ति की आधी लडाई जीत लेगी।

सन्तान का मोह भी स्त्री को गुलाम बनाता है। ऐसा लगता है जैसे स्त्री ने ही सारी ममता का ठेका ले रखा है। पुरुष क्यों नहीं सन्तान के मोह में पडता? वह भी तो पिता होता है। सारा दायित्व औरत पर ही क्यों ? ये प्रश्न जवाब खोजते हैं।

18.9.11

महाभारत की गांधारी बन चुकी है UP सरकार




आज सुबह उठा तो चाय के साथ मेरे भंडारी जो मेरा खाना बनता है उसने हिंदुस्तान लाइव अख़बार दे दिया पहले नज़र उन जगहों मुख्य खबर पे पड़ी जिस को पहले भी अपनी आखो से भुगत चूका हु और उस कहानी को याद नहीं करना चाहता पर आज वो कहानी बार बस याद आ ही गई इसी वजह से मैं उस कहानी को बाया करता हु क्या पता मेरा दर्द कुछ कम पड़े



आज न्यू पेपर की हड लाइन है की ( विदेशियों को रिझाने में फीकी पड़ी ताज की चमक )
जहा तक ये बात सही है वो तो समझ में आती है पर UP सरकार इन बातो पे ध्यान भी तो नहीं देती है उनकी आँखों पे पट्टी पड़ी है ये तो महाभारत की गांधारी बन चुकी है करोडो रूपये देके हर न्यूज़ चैनल पे UP सरकार के बारे में बखान किया जाता है वो भी ३० मिनट तक का टीवी जगत का सब से बड़ा TV Add उन पे अखबार वालो की नजर नहीं गई है गई है तो वो कुछ कह नहीं सकते पर आज तो बात ताज महल की हो रही है में तो असे ही राजनीती नहीं समझा ता हु और न ही समझाना चाहता हु
बात २१-२२ /८/२०११ की है मेरे दोस्त अमित जी अगरवाल ने में फ़ोन किया और कहा की मथुरा चलते है कृष्ण जन्मास्टमी भी है २२ तारीख को तो पहले आगरा चलते है फिर २२ तारीख को वृन्दावन आजायेंगे मेने कहा ठीक है हम दोनों २१ तारीख को सुबह सुबह ६ बजे वाली बस से आगरा चले गए ११: बजे ११:३० बजे हम दोनों आगरा पहुंचे फिर होटल में रूम लिया और कुछ आराम करने के बाद दोनों आगरा की सेर पे निकल गए जिस आगरा के बारे में सोचता था अखबारों में और किताबो में जिस ताज महल को देखता था आज उस ताज महल को देखने पंहुचा था मन बाद खुश और पर्फुलित था

पहले तो दोनों पतेह्पुर सीकरी गए वह का नज़ारा देखने के बाद तो हम दोनों दोस्त आगरा फोर्ट और फिर आगरा का वो ताज महल देखने गए जिस के बार में सोच सोच के मस्तिषक भी कुछ नहीं सोच पा रहा था
पर ये क्या वह तो इतनी लम्बी लाइन लगी थी की शायद कल तक ticket नहीं मिलती में तो वही पे बैठ गया और पानी पि रहा था बस में सोच ही रहा था की ताज महल को तो कल सुबह सुबह देखने आना पड़ेगा पर कल वृन्दावन भी निकलना था इसी वजह से मैं बता सोच ही रहा था की मेरे दोस्त ने टिकेट लेके आज्ञा और कहा की चल अपना जुगाड़ हो गया मेने कहा केसे पर उसने कोई जवाब नहीं दिया था मुझे कुछ शक हो रहा था पर लाइन को देखा कर में चुप रह गया में अमित के पीछे पीछे चलने लगा आगरा के मैं द्वारा से दाहिने साईट चल ने लगे फिर हमारे पीछे पीछे कुछ विदेशी सेलानी भी चल रहे थे हम सब लोग कुल मिलके १२-१३ लोग थे जिस आदमी के पीछे हम सब लोग चल रहे थे वो कभी इस गली में जाता कभी उस गली में जाता १ आदमी उन गलियों से सिदा होके नहीं निकला सकता पर कभी समय के बाद सब लोगो को वो आगरा के पिछले दरवाजे के सामने लाकर रुका और मेरे दोस्त ने उस के हाथ में १ सो का नोट रख दिया और सब विदेसी सेलानियो से ३०० -३०० रूपये ले रहा था और वो सब लोग बड़े आराम से दे रहे थे और साथ में धन्यवाद भी कह रहे थे ये देख के तो मुझे पता नहीं क्या हो गया में उस बन्दे से लड़ाई करने पे उतारू हो गया वही पे ताज महल के दरवाजे पे पुलिश भी खडी थी पर उन पुलिश वालो ने तो कुछ कहा ही नहीं मेने पता नहीं क्या क्या कहा और उन दिनों तो अन्ना अजरे का अनसन भी चल रहा था उस अनसन में आगरा का भी मह्तवपूर्ण योगदान रहा था
बस इस से ही नहीं हुवा जो ticket वहा पे दी जाती है वो ticket बहार आते वक़त वापिस लेली जाती है फिर उनका वो लोग क्या करते है वो मुझे बताने की जरुरत भी नहीं है


मुझे आज बड़ा दुःख हो रहा है की जो UP सरकार टीवी पे ADD दिखाती है की सरकार ने Up राज्य का कितना विकाश किया है ये तो मुझे आगरा पहुचते ही पता चल गया था उन का नज़ारा मैं आप को १ बस का फोटो दिखा के करवाना चाहता हु
दिनेश पारीक


12.9.11

गूगल, ऑरकुट और फेसबुक के दोस्तों, पाठकों, लेखकों और टिप्पणिकर्त्ताओं के नाम एक बहुमूल्य संदेश

दोस्तों, मैं हिंदी में लिखी या की हुई टिप्पणी जल्दी से पढ़ लेता हूँ और समझ भी जाता हूँ. अगर वहां पर कुछ लिखने का मन करता है. तब टिप्पणी भी करता हूँ और कई टिप्पणियों का प्रति उत्तर भी देता हूँ या "पसंद" का बटन दबाकर अपनी सहमति दर्ज करता हूँ. अगर मुझे आपकी बात समझ में ही नहीं आएगी. तब मैं क्या आपकी विचारधारा पर टिप्पणी करूँगा या "पसंद" का बटन दबाऊंगा? कई बार आपके सुन्दर कथनों और आपकी बहुत सुन्दर विचारधारा को अंग्रेजी में लिखे होने के कारण पढने व समझने से वंचित रह जाता हूँ. इससे मुझे बहुत पीड़ा होती है, फिर मुझे बहुत अफ़सोस होता है.अत: आपसे निवेदन है कि-आप अपना कमेंट्स हिंदी में ही लिखने का प्रयास करें.
 आइये दोस्तों, इस बार के "हिंदी दिवस" पर हम सब संकल्प लें कि-आगे से हम बात हिंदी में लिखेंगे/बोलेंगे/समझायेंगे और सभी को बताएँगे कि हम अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी (और क्षेत्रीय भाषाओँ) को एक दिन की भाषा नहीं मानते हैं. अब देखते हैं, यहाँ कितने व्यक्ति अपनी हिंदी में टिप्पणियाँ करते हैं? अगर आपको हिंदी लिखने में परेशानी होती हो तब आप यहाँ (http://www.google.co.in/transliterate) पर जाकर हिंदी में संदेश लिखें .फिर उसको वहाँ से कॉपी करें और यहाँ पर पेस्ट कर दें. आप ऊपर दिए लिंक पर जाकर रोमन लिपि में इंग्लिश लिखो और स्पेस दो.आपका वो शब्द हिंदी में बदल जाएगा.जैसे-dhanywad = धन्यवाद.
 
दोस्तों, आखिर हम कब तक सारे हिन्दुस्तानी एक दिन का "हिंदी दिवस" मानते रहेंगे? क्या हिंदी लिखने/बोलने/समझने वाले अनपढ़ होते हैं? क्या हिंदी लिखने से हमारी इज्जत कम होती हैं? अगर ऐसा है तब तो मैं अनपढ़, गंवार व अंगूठा छाप हूँ और मेरी पिछले 35 सालों में इतनी इज्जत कम हो चुकी है, क्योंकि इतने सालों तक मैंने सिर्फ हिंदी लिखने/ बोलने/ समझने के सिवाय कुछ किया ही नहीं है. अंग्रेजी में लिखी/कही बात मेरे लिए काला अक्षर भैंस के बराबर है.
आप सभी यहाँ पर पोस्ट और संदेश डालने वाले दोस्तों को एक विनम्र अनुरोध है.आप इसको स्वीकार करें या ना करें. यह सब आपके विवेक पर है और बाकी आपकी मर्जी. जो चाहे करें. आपका खुद का मंच या ब्लॉग है. ज्यादा से ज्यादा यह होगा. आप जो भी पोस्ट और संदेश अंग्रेजी में डालेंगे.उसको हम(अनपढ़,अंगूठा छाप) नहीं पढ़ पायेंगे. अगर आपका उद्देश्य भी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपना संदेश पहुँचाने का है और आपके लिखें को ज्यादा व्यक्ति पढ़ें. तब हमारे सुझाव पर जरुर ध्यान देंगे. आपकी अगर दोनों भाषाओँ पर अच्छी पकड़ है. तब उसको ध्दिभाषीय में डाल दिया करें. अगर संभव हो तो हिंदी में डाल दिया करें या फिर ध्दिभाषीय में डाल दिया करें.मेरा विचार हैं कि अगर आपकी बात को समझने में किसी को कठिनाई होती है. तब आपको हमेशा उस भाषा का प्रयोग करना चाहिए जो दूसरों को आसानी से समझ आ जाये. बुरा ना माने. बात को समझे. जैसे- मुझे अंग्रेजी में लिखी बात को समझने में परेशानी होती है. पूरा लेख पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

11.9.11

संस्कृति खतरे में है……कोई तो बचाने आओ

आज हमारी इस ब्लाग पर यह पहली पोस्ट है। चूँकि सच बोलना मना है (शायद इस कारण कि कड़वा होता है या फिर इस कारण कि इसे सुनना कोई पसंद नहीं करता) चलिए कुछ लिखने के पहले शपथ कि जो कहेंगे सच कहेंगे (पता नहीं कितना) सच के सिवाय भी बहुत कुछ कहेंगे।
सवाल यह कि क्या सच है और क्या नहीं? आज देश में उबाल आ गया है (जैसा बासी कढ़ी में आता है) अदालत के धारा 377 के ऊपर अपना निर्णय देने के बाद से। संस्कृति क्षरण का मामला दिख रहा है; देश की सभ्यता संकट में आती दिख रही है।
इस अदालती फैसले का बुरा तो हमें भी लगा क्यों लगा यह समझ नहीं आया? समलैंगिकों को देश की मुख्यधारा में जोड़ने का कोई एक यही तरीका नहीं था कि इसे कानूनी मदद दे दी जाये। ये तो वैसा ही हो गया जैसे कि डकैतों, चोरों, बलात्कारियों को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए कानूनी सेरक्षण दे दिया जाये।
सहमति से बालिग स्त्री-स्त्री का और पुरुष-पुरुष का सम्बन्ध बनता है तो वह कानूनी अपराध नहीं है। बिना हत्या किये यदि डकैती डाल दी जाती है तो वह डकैती नहीं। बलात्कार किया जाये और महिला को शारीरिक चोट न पहुँचे या फिर वह गर्भवती न हो तो बलात्कार अपराध नहीं। समझ गये आप क्या कहना चाह रहे हैं हम?
जहाँ तक संस्कृति की बात है तो देश की संस्कृति को लोगों ने इतना सहज बना दिया है कि हर कोई उसकी व्याख्या करने लगता है। समलैंगिकता के समर्थकों ने तो कह दिया कि वेद-पुराण में भी ऐसे सम्बन्धों के बारे में चर्चा है। यहाँ गौर किया जाये कि समलैंगिकता का समर्थन करने वाली तादाद युवा वर्ग की है, लगभग शत-प्रतिशत। हास्यास्पद तो यह है कि जिस पीढ़ी को अपने माँ-बाप का, अपने परिवार की संस्कृति का पता नहीं वह हमारे वेद-पुराणों को पढ़ का उसका व्याख्यान दे रही है। जिस पीढ़ी को सहज सेक्स के बारे में ज्ञात नहीं वह वेद-पुराणों में सेक्स सम्बन्धों का चित्र प्रस्तुत कर रही है।
समलैंगिकता के सम्बन्धों का वेद-पुराणों में हवाला देने वाले बतायें कि कौन से वेद में इस तरह का वर्णन है? खजुराहो और कामसूत्र का जो लोग उदाहरण प्रस्तुत करते हैं वे यह बात अच्छी तरह जान लें कि इन साहित्यों की रचना इसी तरह के भ्रष्ट कामियों को राह दिखाने के लिए की गई थी।
अब कुछ संस्कृति के कथित रक्षकों के लिए भी। वह यह कि जो लोग भगवान राम को काल्पनिक मानते हैं वे शंबूक वध का सहारा लेकर समूची हिन्दू जाति, भगवान राम और सवर्ण जाति को गाली देते घूमते हैं। कृपया बताया जाये कि यदि उनकी दृष्टि में भगवान राम काल्पनिक हैं तो शंबूक वध कहाँ से वास्तविक है?
इसी तरह माता सीता का नाम लेकर समूचे पुरुष समाज को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। स्त्री के ऊपर अत्याचार का वर्णन किया जाता है। कितनी-कितनी बार अग्निपरीक्षा देने की दुहाई दी जाती है। ऐसा करने वालीं स्त्रियाँ, महिला सशक्तिकरण की समर्थक महिलायें उसी परिवार की एक महिला उर्मिला के त्याग को भूल जातीं हैं। सीता जी का नाम लेकर स्वयं को पुरुष वर्ग से टकराने तक की ताकत दिखाने वालीं महिलायें क्या उसी उर्मिला का नाम लेकर अपनी सास या ससुर की सेवा कर सकतीं हैं? बिना पति के घर-परिवार को चला सकतीं हैं? आज आलम यह है कि घर में आते ही एकल परिवार की अवधारणा को पुष्ट करने लगतीं हैं।
संस्कृति के नाम पर क्या हो रहा है, क्या होना चाहिए यह किसी को सही से ज्ञात नहीं। समलैंगिकता के नाम पर हो रहे हो-हल्ले से कुछ और हो या न हो उन लोगों के हौंसले अवश्य बढ़ेंगे जो प्राकृतिक सेक्स में असफल इसी तरह के अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों की आस में लगे रहते हैं।

8.9.11

विवादों से घिरते जा रहे हैं स्वामी अग्निवेश


हाल ही अन्ना हजारे की टीम से अलग हुए स्वामी अग्निवेश एक बार फिर विवादों से घिरने लगे हैं। वस्तुस्थिति तो ये है कि उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो गई है। अन्ना की टीम में रहने के दौरान भी कुछ लोग उनके बारे में अलग ही राय रखते थे। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उनके बारे में अंटशंट टिप्पणियां आती रहती थीं, लेकिन जैसे ही वे अन्ना से अलग हुए हैं, उनके बारे में उनके बारे में सारी मर्यादाएं ताक पर रख कर टीका-टिप्पणियां होने लगी हैं। हालत ये है कि आजीवन सामाजिक क्षेत्र में काम करने का संकल्प लेने वाले अग्निवेश को अब कांगे्रस का एजेंट बन कर सियासी दावपेंच चलाने में मशगूल बताया जा रहा है।
असल में स्वामी अग्निवेश मूलत: अन्ना हजारे की टीम में शामिल नहीं थे। वैसे भी उनका अपना अलग व्यक्तित्व रहा है, इस कारण अन्ना हजारे के आभामंडल को पूरी तरह से स्वीकार किए जाने की कोई संभावना नहीं थी। कम से कम अरविंद केजरीवाल व किरण बेदी की तरह अन्ना हजारे का हर आदेश मानने को तत्पर रहने की तो उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। सामाजिक क्षेत्र में पहले से सक्रिय स्वामी अन्ना से जुड़े ही एक मध्यस्थ के रूप में थे। वे उनकी टीम का हिस्सा थे भी नहीं, मगर ऐसा मान लिया गया था कि वे उनकी टीम में शामिल हो गए हैं। और यही वजह रही कि उनसे भी वैसी ही उम्मीद की जा रही थी, जैसी कि केजरीवाल व किरण से की जा सकती है।
जहां तक मध्यस्थता का सवाल है, उसमें कोई बुराई नहीं है। मध्यस्थ का अर्थ ही ये है कि जो दो पक्षों में बीच-बचाव करे और वह दोनों ही पक्षों में विश्वनीय हो। तभी तो दोनों पक्ष उसके माध्यम से बात करने को राजी होते हैं। मगर समस्या तब उत्पन्न हुई, जब इस बात की जानकारी हुई कि वे पूरी तरह से कांग्रेस का साथ देते हुए मध्यस्थता कर रहे हैं तो अन्ना व उनकी टीम को ऐतराज होना स्वाभाविक था। जैसा कि आरोप है, वे तो अन्ना की टीम को ही निपटाने में जुट गए थे। जाहिर तौर पर उनकी यह हरकत अन्ना टीम सहित उनके सभी समर्थकों को नागवार गुजरी। बुद्धिजीवियों में मतभेद होना स्वाभाविक है, मगर यदि मनभेद की स्थिति आ जाए तो संबंध विच्छेद की नौबत ही आती है। कदाचित कुछ मुद्दों पर स्वामी अन्ना से सहमत न हों, मगर उन्हीं मुद्दों को लेकर अन्ना के खिलाफ काम करना कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। संतोष हेगड़े को ही लीजिए। उनके भी कुछ मतभेद थे, मगर उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था। उनको लेकर कोई राजनीति नहीं कर रहे थे।
जैसी कि जानकारी है, अन्ना टीम को पता तो पहले ही लग गया था कि स्वामी क्या कारस्तानी कर रहे हैं, मगर आंदोलन के सिरे तक पहुंचने से पहले वह चुप रहने में ही भलाई समझ रही थी। जानती थी कि अगर मतभेद और विवाद पहले ही उभर आए तो परेशानी ज्यादा बढ़ जाएगी। और यही वजह रही कि जब अन्ना का आंदोलन एक मुकाम पर पहुंच गया और उसकी सफलता का जश्न मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर इस बात की समीक्षा की जा रही थी कि कौन लंका ढ़हाने के लिए विभीषण की भूमिका अदा कर रहा है। उसमें सबसे पहले नाम आया स्वामी अग्निवेश का। इसी सिलसिले में उनका का एक कथित वीडियो यूट्यूब पर डाल दिया गया। जिससे यह साबित हो रहा था कि वे थे तो टीम अन्ना में, मगर कांग्रेस का एजेंट बन कर काम कर रहे थे। वीडियो में उन्हें कथित रूप से हजारे पक्ष को पागल हाथी की संज्ञा देते हुए दिखाया गया है। वीडियो में वह कपिल जी से यह भी कह रहे हैं कि सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए ताकि कोई संसद पर दबाव नहीं बना सके।
जहां तक वीडियो की विषय वस्तु का प्रश्न है, स्वयं अग्निवेश भी स्वीकार कर रहे हैं कि वह गलत नहीं है, मगर उनकी सफाई है कि इस वीडियो में वे जिस कपिल से बात कर रहे हैं, वे केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल नहीं हैं, बल्कि हरिद्वार के प्रसिद्ध कपिल मुनि महाराज हैं। बस यहीं उनका झूठ सामने आ गया। मौजूदा इंस्टंट जर्नलिज्म के दौर में मीडिया कर्मी कपिल मुनि महाराज तक पहुंच गए। उन्होंने साफ कह दिया कि उन्होंने पिछले एक वर्ष से अग्निवेश से बात ही नहीं की। साथ ये भी बताया कि हरिद्वार में उनके अतिरिक्त कोई कपिल मुनि महाराज नहीं है। यानि कि यह स्पष्ट है कि स्वामी सरासर झूठ बोल रहे हैं। जाहिर तौर पर इस प्रकार की हरकत को धोखाधड़ी ही कहा जाएगा।
जहां तक अग्निवेश का अन्ना टीम छोडऩे का सवाल है, ऐसा वीडियो आने के बाद ऐसा होना ही था, मगर स्वयं अग्निवेश का कहना है कि वे केजरीवाल की शैली से नाइत्तफाकी रखते थे, इस कारण बाहर आना ही बेहतर समझा। इस बात में तनिक सच्चाई भी लगती है, क्यों कि अन्ना की टीम में दूसरे नंबर के लैफ्टिनेंट वे ही हैं। कुछ लोग तो यहां तक भी कहते हैं कि अन्ना की चाबी भी केजरवाल ही हैं। बहरहाल, दूसरी ओर केजरीवाल का कहना है कि स्वामी इस कारण नाराज हो कर चले गए क्योंकि आखिरी दौर की बातचीत में अन्ना की ओर से उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना को उनके बारे में पुख्ता जानकारी मिल चुकी थी, इसी कारण उनसे थोड़ी दूरी बनाने का प्रयास किया गया होगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि हजारे पहली बार अनशन पर बैठे तो स्वामी ही मध्यस्थ के रूप में आगे आए थे, मगर उनकी भूमिका पर संदेह होने के कारण ही उन्हें लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट बना कर सरकार से बात करने वाली टीम में शामिल नहीं किया गया, जब कि स्वामी ने बहुत कोशिश की कि उन्हें जरूर शामिल किया जाए। बस तभी से स्वामी समझ गए कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली है। इसी कारण जब हजारे ने 16 अगस्त से अनशन पर बैठने का फैसला किया तो अग्निवेश ने आलोचना की थी। अनशन शुरू होने से लेकर तिहाड़ जेल से बाहर आने तक स्वामी गायब रहे, मगर फिर नजदीक आने की कोशिश की तो अन्ना की टीम ने उनसे किनारा शुरू कर दिया।
खैर, यह पहला मौका नहीं कि उनकी ऐसी जलालत झेलनी पड़ी हो। इससे पूर्व आर्य समाज, जो कि उनके व्यक्तित्व का आधार रहा है, उस तक ने उनसे दूरी बना ली थी। ताजा मामले में भी आर्य समाज के प्रतिनिधियों ने उन्हें धोखेबाज बताते हुए सावधान रहने की सलाह दी है। माओवादियों से बातचीत के मामले में भी उनकी कड़ी आलोचना हो चुकी है। अब देखना यह है कि आगे वे क्या करते हैं? सरकार की किसी पेशकश को स्वीकार करते हैं या फिर से सामाजिक क्षेत्र में जमीन तलाशते हैं?
tejwanig@gmail.com

5.9.11

तुम साथ साथ हो ना ?


तुम साथ साथ हो ना ?



कभी मिलना कभी खोना कभी साथ साथ चलना
ये है जिंदगी का मेला तुम साथ-साथ हो ना


कहीं भीड़ है घनेरी, कहीं राह है अँधेरी
कहीं रौशनी की खुशियाँ, कहीं मछलियाँ सुनहरी
कभी सीढ़ियों पे चढ़ना
कभी ढाल पर फिसलना
ये है जिंदगी का मेला तुम साथ-साथ हो ना



कभी चर्खियों के चक्कर कही शोर यातना सा
कुछ फिकरे और धक्के कुछ मुफ्त बाँटना सा
रंगीन बुलबुलों सा
कभी आसमाँ में उड़ना
ये है जिंदगी का मेला तुम साथ-साथ हो ना



कहीं मौत का कुआँ तो कहीं मसखरों के जादू
कभी ढेर भर गुब्बारे कहीं मोगरों की खुशबू
कभी जिंदगी को सिलना
कभी मौत को पिरोना
ये है जिंदगी का मेला तुम साथ-साथ हो ना




2.9.11

कुछ तुम कहो कुछ मैं कहु |: खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव

कुछ तुम कहो कुछ मैं कहु |: खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव: खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव आप भाई बंधुओ को ये पोस्ट पड़ कर अच्छा और बुरा दोनों तरह का विचार आये गा पे क्या करू मैं ये...

खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव

खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव

आप भाई बंधुओ को ये पोस्ट पड़ कर अच्छा और बुरा दोनों तरह का विचार आये गा पे क्या करू मैं ये पोस्ट करने पैर मजबूर हु पर पे पोस्ट मैने भी कही से कॉपी कर के इस में कुछ फेर बदल कर के पोस्ट किया है

प्रायः देखा जाता है की ९०% पाठक सिर्फ पढ़कर चले जाते हैं, ९% पाठक कुछ थोडा बहुत लिख जाते हैं सिर्फ १ प्रतिशत पाठक ऐसे होते है जो की सक्रिय रूप से टिप्पणी देकर जाते हैं.

तो इसका मतलब एक प्रतिशत लोग आपके ब्लॉग से सक्रिय रूप से जुड़े रहते हैं.

और यह बात सभी ब्लोगों के लिए भी नहीं है. अलग अलग ब्लॉग में प्रतिशत घट या बड़ सकता है किसी ब्लॉग में टिप्पणी करने वाले ९० % भी हो सकते हैं. मगर सामान्यतया यह सत्य पाया गया है की ज्यादातर पाठक बिना कोई टिप्पणी किये चले जाते हैं. अब पाठक भी क्या करें ब्लोग्स की भीड़ ही इतनी हो गयी है. कितने ब्लोग्स पर टिप्पणी करे. पाठक को अगर कुछ रोचक मिल जाता है तो वह टिप्पणी कर जाता है, नहीं तो वह किसी दुसरे ब्लॉग का रूख करता है, वैसे हिंदी ब्लॉग जगत में एक बात है औरत और मर्द का भेद भाव खूब चलता है, किसी भी महिला ब्लोगर का ब्लॉग उठा कर देख लीजिये लगभग लगभग अधिकतर ब्लोगर टिप्पणियों के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करते मिलेंगे. जो कोई ब्लोगर कविता का क भी नहीं समझता हो वाह वाह करता मिलेगा और बेचारे मर्द ब्लोगरों को अपने लेख के लिए टिप्पणियों के लिए तरसता पाओगे. मैंने देखा की पिछले सप्ताह एक साथी ब्लोगर ने चित्र प्रतियोगिता आरम्भ की मगर को उनके ब्लॉग पर एक टिप्पणी भी करने नहीं गया और स्तनों का जोड़ा नामक शीर्षक वाले ब्लॉग पर टिप्पणियों की मारामारी हो रही थी

खेर यह तो चलता रहेगा इस संसार का नियम है ये. हमें तो खोज करनी पड़ेगी की हमारे ब्लॉग पर ज्यादा से ज्यादा लोग कैसे जुड़ें और अपनी प्रतिक्रिया छोड़ कर जाएँ .
मैंने इन्टरनेट पर कुछ उपाय तलाश किये जिससे टिप्पणीकर्ताओं की संख्या बड़ सके. वो इस प्रकार हैं

१- टिप्पणियां आमंत्रित करें – मैंने देखा है की जब मुझे किसी पोस्ट पर टिप्पणिया चाहिए होती है तो बहुत कम मिलती है और जब नहीं तो भरमार हो जाती है. हमें पोस्ट के भीतर से ही टिप्पणियों को आमंत्रित करना चाहिए पोस्ट कुछ ऐसी होनी चाहिए की पाठक को टिप्पणी करने की आवशयकता पड़े. टिप्पणियां सिर्फ वाह वाह और शाबाशी के लिए नहीं वह आपकी कमी, आपकी गलती और आपकी अज्ञानता को इंगित कर सकती है. इसलिए पोस्ट में ऐसा कुछ लिखना चाहिए की पाठक आपसे टिप्पणी से संपर्क करे.

२. प्रश्न पूछे - पोस्ट के भीतर प्रश्न पूछें. पोस्ट में सवाल करने से निश्चित रूप से पाठक अपनी टिप्पणियों से जवाब देकर जाते हैं.

३. खुली पोस्ट लिखें - ऐसी पोस्ट लिखें जो की आपने पूरी लिख तो दी लेकिन ऐसा लगे की आपने सारे टोपिक कवर नहीं किये. पाठक को लगे की उस टोपिक के बारे में लिखना चाहिए.

४. टिप्पणी का जवाब दें - अगर आपकी पोस्ट पर आप स्वयं ही टिप्पणी नहीं करते हैं तो कोई और भाल क्यों? अगर कोई आपके ब्लॉग पर टिप्पणी करता है तो उसका जवाब उसे अवश्य दें . इससे आपके पाठकों को लगता है की उनकी टिप्पणी आपके लिए महत्व रखती है.

५. यदि कोई आपके ब्लॉग पर कठोर टिप्पणी कर जाये तो उसका जवाब विनती पूर्वक लहजे में दें .

६. विवादस्पद पोस्ट लिखें (मेरी राय में तो मत लिखें, क्यूँ किसी की भावनाओं को भड़काया जाये ) इससे टिप्पणियां काफी मिल जाती है .

और काफी प्रयास के बाद भी टिप्पणियां प्राप्त नहीं हो तो याद ही न की क्या बोलना है “मुझे मेरी किसी पोस्ट के लिए टिप्पणियों की आवशयकता नहीं मेरा काम है लिखना और मैं लिखता रहूँगा”


क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार