विचित्र तो यह है कि स्त्री की मुक्ति का अहसास होने के बावजूद आज भी स्त्री पुरुषनिधार्रित सौन्दर्यमानकों के खांचों में खुद को फिट करने की होड. में शामिल है।
आज भी उनका सौंदर्यबोध उनका सपना पुरुष की नज़रों में सुन्दर लगना ही है। उनकी चाहत है ऐसी देह, जो पुरुष को आकर्षित कर सके, जिस पर पुरुष मुग्ध हो जाए। ऐसी कसौटी जिस पर वह सराही जाये, जिसे पुरुषों ने ही गढ़ा है। यानी ३६.२४.३६ की गोरी, कोमल, नाज़ुक, नफीज़ दिखने वाली एक ऐसी देहयष्टि, जो पुरुषों को मुग्ध कर सके या उनमें हजारों में एक का स्वामी होने का आभास पैदा कर सके।
यूँ तो आकर्षित करने का इम्पल्स पशुओं में भी होती है लेकिन वह प्रकृति द्वारा प्रदत्त निधारित और निश्चित आचरण होता है। मनुष्य अपना आचरण खुद तय करता है, इसलिए स्त्री यदि अपने अनुकूल आचरण तय करती है, तो वह ज्यादा आत्मनिर्भर बन सकती है। देह का ही मामला लें। कामकाजी महिला को चुस्तदुरुस्त, हाजिर जवाब, हिलमिल कर काम करने का स्वभाव, सूचनाओं से लैस और साहसी होना जरूरी होता है, छुईमुई बनना नहीं। ऐसा होने पर कार्यस्थल पर वह पुरुषों में व्याप्त कामुक नजरों का मुकाबला ज्यादा मुस्तैदी से कर सकती है। यदि वह नाज़ुक, नफीज़ या फिगर के घेरे में ही सीमित रहे अथवा इसी चक्कर में रहे कि वह पुरुष की नज़र में कैसी लगती है, तो उसका काम प्रभावित होता है और बहुत से पुरुष उसके आश्रयदाता बनकर उसके बदले काम करने का प्रलोभन देकर, उसे अपने वश में करने का प्रयास करने लगते हैं।
आखिर स्त्रियों में भी, मर्दों द्वारा अपनी तुष्टि व आनंद के लिए गढ़ी गई एक तिलस्माई लेकिन कठपुतलीनुमा छवि वाली स्त्री की कसौटी यानी एक नाज़ुक , पतलीदुबली, गोरी, बड़े बड़े उरोज, गुदगुदे और बड़े बड़े नितम्ब, लम्बा कद, पतली कमर, लम्बी उंगलियां, छोटे पांव, लम्बी गर्दन, लम्बे व चमकदार बालों वाली स्त्री के प्रति सम्मोहन क्यों है? पुरुष एक ऐसी ही कमनीय स्त्री की कामना करता है और ऐसी ही स्त्री को अपनी अंकशायिनी बनने के काबिल समझता व मानता है। ऐसी ही स्त्री उसे आकर्षित करती है। ऐसी स्त्री उसकी अंकशायिनी तो बनती है पर प्रायः वह उसके आदर की पात्र नहीं होती। पुरुष भोगने के पहले और बाद में भी ऐसी सुन्दर स्त्री के चरित्र को प्रायः शंकालु और हेय नजरों से देखता है। वह उस परपुरुष को मोहने का आरोप तक लगा कर खुद को दोष मुक्त कर लेता है। इससे साफ ज़ाहिर है कि पुरुष एक कमजद्रोर स्त्री की ही कामना करता है की जिस पर वह हावी हो सके जिसे वह अपने वश में रख सके। किन्तु स्त्रीयों खुद को पुरुष अभीप्रिय छवि में फिट करने को आतुर रहती है। इसका जवाब स्त्री का पुरुषवादी मानसिकता से आतंकित होना ही है।
हांलांकि मुझे बाजारवादी मॉडल या फिल्मी दुनिया को ऐसी स्त्री से बिल्कुल ऐतराज नहीं है लेकिन उनके सौंदर्य का मापदंड पुरुष ने निर्धारित किया है। और पुरुष प्रायः केवल स्त्री की देह को देखता है, देहधारी की क्षमता और काबिलियत को नज.रअंदाज कर देता है। वह, यानी स्त्री कितनी गुणवान है, कितनी सामाजिक है, गुणवान या ईमानदार है, यह पुरुषों के लिए मायने नहीं रखता। बस कितनी मुग्धकारी तस्वीरसी लगती है वही उनकी कसौटी है। विडम्बना तो यह है कि अज्ञानवश अधिकांश स्त्रियाँ भी इसी पुरुष दृष्टी से ही सोचती हैं। सुन्दर लगना स्त्रियित्व तो क्या मनुष्य का गुण है पर सुन्दर वस्तु बनना जड़ता का प्रतीक है, जीवन्त मनुष्य का नहीं। स्त्राी जरूर सुन्दर लगे या सुन्दर लगने का प्रयास करे पर ,पुरुष के लिए भोग्या बनने के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि सुन्दरता एक गुण है, विशेषता है स्त्री का सुन्दर व आकर्षक लगना उसका स्वभाव है, गुण है एक मानवीय बोध है, जिसे आत्मसात किया जाना चाहिये वस्तु मान कर भोगना नहीं। अजीब विडम्बना है कि पुरुष ने स्त्री का मानक ऐसा गढ़ा है, जिसमें वह कमज़ोर व पराश्रित दिखती है। ऐसी नाजुक कि बिना पुरुष के सहारे आगे ही न बढ सके। किन्तु स्त्री ने पुरुष के लिए जो मानक गढ़ा है वह ठीक इसके उलट है। इसलिए हर पुरुष स्त्री के समक्ष खुद हृष्ट पुष्ट, बलिष्ठ व चुस्त दुरुस्त दिखने की चेष्टा करता है चूंकि स्त्रियों ने उसके लिए ऐसा ही मानक गढ रखा है! यानी ऐसा पुरुष जो उसे वश में रख सके। यही वह ग्रन्थि है जो सदियों से स्त्री के अवचेतन में उसके पोरपोर में ठूंसठूंस कर भरी जाती रही है कि उसे पुरुष के अधीन उसके वश में ही रहना है। स्त्री को अपने अर्न्तमन की यही गांठ खोलनी है और इसी से उसे मुक्त होना है।
हालांकि ये मानक व्यक्तिगत रुचि के अनुसार बदले भी हैं और बदल भी रहे हैं। पर प्रचारित प्रसारित व समाज में आदर्श केवल ऊपर वर्णित मानकों को ही माना गया है। किन्तु अब स्त्री पुरुष के सब मानदण्डों व नजरियों को बदलने की जरूरत है।
दरअसल स्त्रियों को खुद में अन्तेर्द्रिष्टि पैदा करनी होगी अधिकांश स्त्रियाँ पुरुष दृष्टि से ही ग्रस्त हैं। अभी तक स्त्रियाँ खुद भी दूसरी स्त्री को एक स्त्री के रूप में देखने की क्षमता हासिल नहीं कर सकीं हैं, इसीलिए वे स्त्री होने के नाते दूसरी स्त्री की त्रासदी को नहीं समझ पातीं। सासबहू का विवाद ऐसी ही सोच का परिणाम है। वे रिश्तों के संदर्भ में ही दूसरी औरत को समझती हैं। मां भी बेटी को बेटी यानी सन्तान के नाते ही पहचानती है और बेटी मां को मां के रिश्ते के नाते। दोनों एकदूसरे को एक औरत होने के नाते नहीं समझतीं। जिस दिन यह सोच निर्मित हो जाएगी, उस दिन स्त्री अपनी मुक्ति की आधी लडाई जीत लेगी।
सन्तान का मोह भी स्त्री को गुलाम बनाता है। ऐसा लगता है जैसे स्त्री ने ही सारी ममता का ठेका ले रखा है। पुरुष क्यों नहीं सन्तान के मोह में पडता? वह भी तो पिता होता है। सारा दायित्व औरत पर ही क्यों ? ये प्रश्न जवाब खोजते हैं।
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