26.9.11

खाप पंचायतों के सामने अबला है नारी


खाप पंचायतों के सामने अबला है नारी

: ऑनर के नाम पर लगातार हो रहा है डिसऑनर किलिंग : मरने वालों में सबसे ज्‍यादा संख्‍या महिलाओं की : महिला समाज नारीत्व का अभिशाप आज भी झेल रहा है। परंपरा-रिवाजो को निभाने का बोझ केवल नारी के कंधो पर ही डाल दिया गया है। कभी इसकी बलि जाति, गोत्र, परम्पराओं के नाम पर दी जाती है तो कभी महान बनाने का आडम्बर किया जाता है! आधुनिकता की दौड़ में विश्व आगे बढ़ रहा है और हमारा देश जाति, धर्म, सम्प्रदाय के चक्रव्यूह से निकलने में असमर्थ है। सच्‍चाई तो यह है कि देश में दिन प्रतिदिन बुराईयां बढ़ती जा रही हैं। आज भी हमारे देश में लड़कियों को खुली हवा में सांस लेने की आज़ादी नहीं है। आज भी गाँव में जाति, गोत्र, परिवार की इज्ज़त के नाम पर होने वाली हत्याओं की बात आती है तो इसमें लड़कियों और औरतों की संख्या अधिक होती है। सामंतवादी विचारधाराओं ने अपनी खाप पंचायत बना ली, जो अपने निहित लाभ के लिये अपना-अपना फरमान जारी करते है। फरमान न मानने वाले का सामाजिक बहिष्कार किया जाता हैं या मृत्युदंड की सजा सुनाई जाती है!
क्या हैं ये खाप पंचायतें और क्या इन्हें ऐसे निर्णय लेने का आधिकारिक या प्रशासनिक स्वीकृति हासिल है? रियायती पंचायतें या कहे खाप पंचायतें या कहे पारंपरिक पंचायतें, जिन्हें न आधिकारिक मान्यता प्राप्त है न ही न्यायिक अधिकार, फिर भी ये प्रभावशाली हैं! इन पंचायत में प्रभावशाली जातियों या गोत्र का दबदबा रहा है, या यूं कहे इनकी सामंतवादी नीतियां चलती हैं, और जो इनका फरमान न माने उन्हें शक्तिदंड तो भोगना ही पड़ता है, चाहे कोई भी क्यों न हो। एक गोत्र या फिर एक बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं। जिस गोत्र के जिस इलाके में ज्यादा प्रभावशाली लोग होते है, उसी का खाप पंचायत में दबदबा रहता है। आज इन पंचायतों का दबदबा सबसे ज्यादा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में है, जहां लड़कियों की जनसंख्या कम है! और वो उनपर अपना नियंत्रण खोना नहीं चहते हैं, चाहे उनकी अपनी औलाद घुटकर-घुटकर क्यों न मर जाये!
हाल ही में आई कई खबरें चौंका देने वाली थी। कमलेश यादव व खुशबू शर्मा की हत्या, दूसरी कुलदीप और मोनिका की हत्या, मनोज-बबली की हत्या आदि ऐसी कई मौतें इस बात का हवाला देती हैं। रोज़ एक हत्या ऑनर किलिंग या कहें तो डिसऑनर किलिंग के तहत हो रही है। युवा पत्रकार निरुपमा की मौत से हम और हमारा समाज अछूता नहीं है। इज्ज़त की खातिर ऑनर किलिंग या यानी डिसऑनर किलिंग का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। अपने झूठा अभिमान को बचाने की झूठी कवायद हो रही है। रोज़-रोज़ मासूमों की बलि चढ़ती जा रही है, जो एक बीमार मस्तिष्कता की उत्पति है!
आज देश में हर घंटे अनेकों अपराध हो रहे है, बलात्कार, चोरी ,लूट, आतंकवादी घटनाएं और सांप्रदायिक दंगे, पर हमने यह कहीं नहीं सुना कि किसी पंचायत या पिता ने अपने बलात्कारी बेटे को मृत्युदंड दिया हो, उसका सामाजिक निष्कासन किया गया हो। उल्टा उसे बचाने की कवायद शुरू होती है और पुलिस प्रशासन पर आरोप लगता है कि उसके बेटे को गलत फंसाया गया, कभी किसी आतंकी के पिता ने या पंचायत ने उसके लिए फतवा जारी किया है, जो रोज़-रोज़ न जाने कितने बेगुनाह मौत की भेंट चढ़ा रहे है? उसके लिए समाज को कोई चिंता नहीं है। आज अगर इस महान पंचायत और महान लोगों का बेटा जुआ खेले, लड़कियों को प्रताड़ित करे, शराब पिए तो कोई भी सज़ा नही होती पर यदि किसी औरत या लड़की से कोई भी गुनाह हो जाये तो यह पंचायत अपने असली रूप में आकर अपने तेवर दिखाती है। आज भी किसी महिला या लड़की को अपने जीवन के प्रति निर्णय लेने का अधिकार नही है! आज भी लड़कियों को भेड़-बकरियों या गाय की तरह एक खूंटे में बांध दिया जाता है, जहां उसे अपने समाज, बिरादरी की परंपरा निभानी पडती है। आज भी कोई नारी जातीय या धार्मिक परम्परा को तोड़ने की हिम्मत नही कर सकती और यदि तोड़े तो उसके लिए मौत ही एक रास्ता होता है!
आज प्रश्न उठता है कि हम कब सुधरेंगे? क्या आज भी हम उन्हीं दकियानूसी परम्पराओं का निर्वाह करते रहेंगे?आज हमारे देश को आज़ाद हुए इतने साल हो गए पर आज भी ठीक ढंग से लोकतंत्र की स्थापना नही हो पाई है! जानते है क्यों? क्योंकि हम अभी भी अपनी-अपनी जाति का बोझ ढो रहे है। अपनी परम्पराओं को गलत ना मानकर दूसरों की परम्पराओं पर लांछन लगा रहे है! वास्तव में हमारे देश का जातिवाद का यह स्वरुप पिछले दो तीन हज़ार वर्षो से बिगड़ा है! मै सोचती हूँ कि हमारे देश की वर्तमान राजनीति ही मात्र जिम्मेवार नही है बल्कि हमारे देश के इतिहास को पढेंगे तो पाएंगे कि कुछ राज्यों में कुछ हद तक जातिवाद की भावना थी, पर वो इतनी गहरी और खराब नही थी जितनी की आज है। ऑनर किलिंग के नाम पर मासूमो का खून बहाना बंद होना चाहिए। खाप के लोगो को समझना होगा की इस देश में कानून अपने हाथ में लेना खतरनाक है, इसे रोकना होगा।
कुछ हकीकत जबानी 

खबर की कीमत और पत्रकारिता का स्‍याह पन्‍ना
Wednesday, 28 July 2010 16:46 संजीव शर्मा 
: एक पत्रकार का दर्द : इसके लिये वो महिला को नग्न करता था : बदमाश मुझ पर भूखे भेडि़यों की तरह टूट पड़े : इस बार मुझसे इस्तीफा ले लिया गया : मीडिया जब भी अपना मुंह खोलता है या अपनी कलम से बोलता है तो अपने लिए नहीं बल्कि इस गूंगे-बहरे समाज के लिए. एक मीडियाकर्मी के लिए ख़बर की चाहत जुनून के किस हद तक होती है, इस सवाल का जवाब पत्रकार बंधु अच्छी तरह जानते हैं. समाज का दर्द हम देख नहीं सकते और अपने दर्द में कभी उफ तक करना हमें मंजूर नहीं होता. कुछ दर्द ऐसा भी होता है जो बदलते समय के साथ और गहरा होता जाता है. और कई बार यही दर्द जेहन से निकल कर कागज के पन्‍नों पर उतर आता है. और फिर पन्‍ना कभी कभी बहुत सीख दे जाता है. मैंने भी इन पन्‍नों से बहुत कुछ सीखा है. इन्‍हीं यादों का झरोखा आज मैं खोलने को मजबूर हुआ हूं.

ये बात कुछ साल पहले की है. मैं उस समय एक टीवी न्यूज़ एजेंसी में काम कर रहा था. मेरे लिये ये सौभाग्य की बात थी पूरे जिले में मै अकेला टीवी पत्रकार था, पर परेशान कर देने वाली बात ये थी, काफी हाथ-पांव मारने के बाद भी मेरे हाथ महीने में महज पांच-छह ख़बरे ही लग पाती थी। खबरों के लिए कई बार तो सैकडों किलोमीटर का सफर भी तय करना पडता था. लेकिन न कभी रास्ते छोटे हुए और ना ही मेरी हिम्मत कम हुई. ख़बर खोजने की चाहत में मैं हमेशा अपने कान और आंख खुली रखता, एक बार अचानक मेरे हाथ एक ऐसा कागज लगा जिसमे लिखा था हर समस्या का समाधान है हमारे पास, साथ ही ये भी कि वो तांत्रिक निःसंतान को मनचाहा बच्चा भी दे सकता है.

मैंने ये सारी जानकारी अपने न्यूज़ डेस्क तक पहुंचाई मुझे कहा गया ख़बर बना कर भेजो.मैंने तुरंत जाल बिछाया क्योंकि ये ख़बर मेरे लिये चुनौती भरी थी, एक जोड़े को मैने उस तांत्रिक के पास भेजा. उन लोगों ने संतान ना होने की बात तांत्रिक को बताई. तांत्रिक ने कहा बिल्‍कुल बच्चा हो जायेगा, बस रोज मेरे पास आना होग, क्‍योंकि थोड़ा इलाज करना पड़ेगा. एक बार मैं खुद भी उस तांत्रिक बाबा के पास पहुंचा क्योंकि मैं मामले का जायजा खुद लेना चाहता था. इस बार भी उसने वही बात कही. तांत्रिक के पास मेरे अलावा और कई महिलाएं भी आई हुई थी, जिनके साथ बाबा पर्दे के अन्दर क्या कुछ करता था, ये कहना यहां पर मेरे लिये आसान नहीं है.

दरअसल ये बाबा सभी महिलाओं को बोलता था उनके अन्दर कोई आत्मा घुस गयी है, जिसे वो निकाल सकता है. इसके लिये वो महिला को नग्न करता था, आगे क्या होता होगा ये समझने के लिये दिमाग पर ज्यादा जोर डालने की जरूरत नहीं है. मैंने ये बात भी अपने न्यूज़ डेस्क को बता दी अब बारी अपने मिशन को अंजाम तक पहुंचाने की थी. इस बार मै एक लड़की के साथ उस तांत्रिक के पास पहुंचा ही था कि वहां पहले से मौजूद कुछ बदमाश मुझ पर भूखे भेडि़यों की तरह टूट पड़े. दस लोगों के बीच में मैं अकेला था. जहां जहां उनका दिल किया वहां वहां वो अपनी ताकत की अजमाइश किए. मैं भी अपने सामर्थ्‍य के हिसाब से मुकाबला करता रहा.

किसी तरह बचकर मैंने वहां से डीएसपी को फोन किया, क्योंकि आगे उन सब का मुकाबला कर पाना संभव नहीं था, फिर एक पत्रकार होने के नाते इस तरह मारपीट करना मेरी नज़रों में न कल सही था और ना ही आज है. इस दौरान अपने बचाव में मैं जो कुछ मुझ से हो सका वो सब किया.जख्मी हालत में मैं तुरंत थाने पहुंचा मुझ पर हमला करने वाले भी भाग चुके थे. अभी थाने के अन्दर बैठे मुझे चंद मिनट भी नहीं हुये थे कि अचानक मोबाइल की घंटी बज उठी. ये कॉल मेरे एजेंसी के न्यूज़ डेस्क, नोयडा से थी. बात करने वाले वो अधिकारी थे जो कभी हमें ख़बरों के लिए जूझना सिखाते थे. महोदय ने मुझसे यह नहीं पूछा कि हालत कैसी है, क्या हुआ तुम्हारे साथ, बल्कि सीधा फरमान सुनाओ दिया गया कि चुपचाप नोएडा पहुंचो.

पुलिस मुझे जख्मी हालत में अस्पताल ले गयी. वहां मेरा मेडिकल कराया गया. तभी वहां के डॉक्टर को पता चला कि मै पत्रकार हूं तो उन्‍होंने धीरे से कहा भाई साहब एक टीवी पत्रकार है संजीव शर्मा, उनकी ख़बरें बड़ी अच्छी होती हैं, मैं उन्‍हें जानता तो नहीं परंतु वो आपकी मदद कर सकते हैं. ये सुनने के बाद मैं रोने लगा. मैंने डॉक्‍टर को बताया कि मैं ही संजीव शर्मा हूं. फर्क सिर्फ इतना है कि खबर बनाने वाला आज खुद खबर बन गया है. डॉक्टर साहब ने कहा आप मेरे बेटे जैसे हो इसलिए एक सलाह देता हूँ, इस समाज की बुराइयों से लड़ना बड़ा कठिन है. ये सब आगे भी होता रहेगा लेकिन कभी हार मत मानना. एक बार पेज थ्री फिल्म जरूर देखना, आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा. मैंने डॉक्टर को धन्‍यवाद कहा और बाहर निकला. डॉक्‍टर साहब की सीख आज भी मेरे अंदर जिंदा है और जिंदा रहेगी. एक पल मुझे लगा शहर की मीडिया और मीडियाकर्मी मेरा साथ देंगे. लेकिन यहां मैं गलत था, कोई मेरे साथ खड़ा नहीं हुआ. जिनसे मुझे सबसे ज्यादा उम्मीद थी उन्‍होंने ही सबसे पहले मेरा साथ इस मुश्किल घड़ी में छोड़ दिया. लेकिन मैंने हार नहीं मानी तांत्रिक और तांत्रिक के गुंड़ों के खिलाफ थाने में मामला दर्ज करवा दिया. हां, लेकिन एक पत्रकार होने की हैसियत से नहीं बल्कि एक आम नागरिक की हैसियत से.

अगले रोज मैं नोएडा रवाना हो गया. न्यूज़ एजेंसी ने मेरे इस बहादुरी के लिए पुरस्‍कार पहले से ही तैयार रखा हुआ था. मुझसे कहा गया आप कुछ समय के लिये रिपोर्टिंग नहीं करेंगे. मुझे ये समझ में नहीं आया आखिर कंपनी ने ये फैसला क्‍यों लिया है. फिर पता चला कि मुझ पर आरोप लगाया गया है कि मैंने तांत्रिक से दस हजार रूपये मांगे थे. मैंने न्‍यूज एजेंसी ज्‍वाइन करने के बाद प्रॉपटी खरीदी. इन आरोपो का जवाब मैंने कम्पनी को नहीं दिया. कारण साफ है जब उनके नज़रों में हम बेईमान हैं तो इमानदारी का सबूत देने की जरूरत क्या है. हां, मैंने पांच बिस्वा जमीन खरीदी, लेकिन ये पैसे मेरे उस पिता के थे, जो आर्मी में लम्बे समय से गुमशुदा है. ये पैसा मेरी माता जी को आसाम राईफल्स ने दिया था. और ये जमीन सिर्फ एक लाख चालीस हजार रूपये की थी, न की करोड़ों की. क्या बीस साल की नौकरी में मेरे पिता ने इतने पैसे भी नहीं कमाये होंगे कि वो अपने बच्चो के लिए पांच बिस्‍वा जमीन खरीद सकें.

मैंने अपने बेगुनाही का जवाब नहीं दिया, लेकिन असलियत सामने आने के बाद खुद तांत्रिक ने पुलिस में लिखित बयान दिया कि गलती मेरी है. मुझे माफ कर दिया जाये, मैं शहर छोड कर चला जाउंगा. मेरा मकसद ही था उस तांत्रिक को शहर से बाहर करना ताकि अंधविश्‍वास में अंधी होकर फिर कोई महिला उस हैवान के हवस की शिकार न बनें. ये अलग बात है कि इस कामयाबी के बदले मेरी नौकरी और इज्जत दोनों दांव पर लग गयी. मेरी इमानदारी के दस्तावेज थाने में आज भी मौजूद है.

इधर, नोयडा से बहादुरी का खिताब लेकर मैं अपने घर वापस पहुंच चुका था. फिर कम्पनी से फोन आया, मुझसे एक बार फिर नोयडा में हाजिरी दर्ज करवाने के लिये कहा गया. इस बार मुझसे इस्तीफा ले लिया गया और कहा गया आपके खिलाफ काफी शिकायतें हैं. मेरे खिलाफ शहर के ही एक नेता ने कम्पलेंट की थी, जिसके साइबर कैफे में बीएफ चलती थी. उसके खिलाफ हुई जांच की सीआईडी की टीम में मैं भी शामिल था. वर्तमान में ये मामला न्यायालय में विचाराधीन है. कम्पनी ने मुझे नौकरी से निकाल दिया. मैं कई महीने बेरोजगार रहा. लेकिन हर काली रात के बाद जिस तरह नई सुबह होती है, उसी तरह मेरी जिंन्दगी में उजाला आया. मुझे दिल्ली के एक उभरते एनसीआर न्यूज चैनल में नौकरी मिल गयी. इस चैनल में भी मेरे खिलाफ काफी कंम्पलेंट गयी लेकिन मुझे चैनल की तरफ से कभी कुछ नहीं बोला गया, क्योंकि उन्हें मुझ पर और मेरे इमान पर भरोसा था.

मेरा उस न्यूज़ एजेंसी से आज सिर्फ चंद सवाल हैं-

1. क्या एक मिशन में फेल होने का मतलब नौकरी से हाथ धौना होता है ? 
2. स्कूल में जाने वाला बच्चा भी फेल हो जाता है, इसका मतलब क्या वो गद्दार है ?
3. इंडिया क्रिकेट टीम भी हमेशा नहीं जीतती, इस हार को मैच फिक्सिंग कहा जाए ? 
4. किसी की चंद झूठी लाइनें क्या हमारे कैरियर को खत्म कर सकती हैं?
5. दो साल का रिश्ता चैबीस घंटे में कैसे टूट सकता है ?
6. विश्वास नहीं था तो अपना पत्रकार क्यो बना दिया ?
7. क्या हम पत्रकार आप के लिए चवीइंगम हैं, चूसों और थूक डालो ?

एक रिपोर्टर से न्यूज़ रूम के डेस्क इंचार्ज और रिपोर्टर से एसआईटी हेड का रास्ता आसान नहीं होता. मैंने ये रास्ता तय किया और अपने आपको साबित भी किया. लेकिन अपने दस साल के छोटे से अनुभव में बहुत कुछ सीखा, जहां विश्वास है वहां सबकुछ है, जहां विश्वास नहीं वहां कुछ नही. अगर मैं तांत्रिक वाले मिशन में कामयाब नहीं हुआ तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण ये था कि मैंने ये जानकारी उस इंसान के साथ शेयर की जिन्‍हें बहुत कुछ मानता था. लेकिन वो मेरी बात को रोटी की तरह पचा नहीं सके और उन्होंने ये जानकारी तांत्रिक को दे दी. खैर हर मोड़ हर दिन हर लम्हां हमें कुछ सीखाता है और हमे सीखना भी चाहिए इसी का नाम है जिन्दगी लाइव.

लेखक संजीव शर्मा पत्रकार हैं
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क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार