मेरी इस छोटी सी दुनिया में आप सब का स्वागत है.... अब अपने बारे में क्या बताऊँ... सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है, ये ज़मी दूर तक हमारी है, मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ, जिससे यारी है उससे यारी है... वो आये हमारे घर में खुदा की कुदरत है, कभी हम उनको तो कभी अपने घर को देखते हैं...
29.9.11
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26.9.11
खाप पंचायतों के सामने अबला है नारी
खाप पंचायतों के सामने अबला है नारी
वो बस मान्या का शरीर चाहता था!
यह नर क्या जाने विदित नारी मन को ?
करा रहा है बस अपमान इसका
कभी पिता, कभी पति, कभी प्रेमी, कभी पुत्र बन कर.
नारी जीवन करूणा से भरा
कैसे छिपे इसकी अनंत व्यथा
आज धरा को बता दो
समेट ले अपनी सब सत्ता
देखते हैं, यह नर कब तक
करेगा विकृत नारी सम्मान को,
ना होगी नारी
ना होगी कोई अभिप्रेरणा इसका झूठा आडम्बर
नहीं करा सकेगा तब
मानसी भाव को बेबस
हे ईश!
मिटा दे नारी को इस धरा से
दे नर को बस नर का दान
बचा लें यहाँ नपुंसक अपने घर का मान.
24.9.11
अनपढ़ और गंवारों के समूह में शामिल होने का आमंत्रण पत्र
20.9.11
पुरुषनिर्मित सौन्दर्यकसौटी पर ही खुद को तोलती है औरतें
विचित्र तो यह है कि स्त्री की मुक्ति का अहसास होने के बावजूद आज भी स्त्री पुरुषनिधार्रित सौन्दर्यमानकों के खांचों में खुद को फिट करने की होड. में शामिल है।
आज भी उनका सौंदर्यबोध उनका सपना पुरुष की नज़रों में सुन्दर लगना ही है। उनकी चाहत है ऐसी देह, जो पुरुष को आकर्षित कर सके, जिस पर पुरुष मुग्ध हो जाए। ऐसी कसौटी जिस पर वह सराही जाये, जिसे पुरुषों ने ही गढ़ा है। यानी ३६.२४.३६ की गोरी, कोमल, नाज़ुक, नफीज़ दिखने वाली एक ऐसी देहयष्टि, जो पुरुषों को मुग्ध कर सके या उनमें हजारों में एक का स्वामी होने का आभास पैदा कर सके।
यूँ तो आकर्षित करने का इम्पल्स पशुओं में भी होती है लेकिन वह प्रकृति द्वारा प्रदत्त निधारित और निश्चित आचरण होता है। मनुष्य अपना आचरण खुद तय करता है, इसलिए स्त्री यदि अपने अनुकूल आचरण तय करती है, तो वह ज्यादा आत्मनिर्भर बन सकती है। देह का ही मामला लें। कामकाजी महिला को चुस्तदुरुस्त, हाजिर जवाब, हिलमिल कर काम करने का स्वभाव, सूचनाओं से लैस और साहसी होना जरूरी होता है, छुईमुई बनना नहीं। ऐसा होने पर कार्यस्थल पर वह पुरुषों में व्याप्त कामुक नजरों का मुकाबला ज्यादा मुस्तैदी से कर सकती है। यदि वह नाज़ुक, नफीज़ या फिगर के घेरे में ही सीमित रहे अथवा इसी चक्कर में रहे कि वह पुरुष की नज़र में कैसी लगती है, तो उसका काम प्रभावित होता है और बहुत से पुरुष उसके आश्रयदाता बनकर उसके बदले काम करने का प्रलोभन देकर, उसे अपने वश में करने का प्रयास करने लगते हैं।
आखिर स्त्रियों में भी, मर्दों द्वारा अपनी तुष्टि व आनंद के लिए गढ़ी गई एक तिलस्माई लेकिन कठपुतलीनुमा छवि वाली स्त्री की कसौटी यानी एक नाज़ुक , पतलीदुबली, गोरी, बड़े बड़े उरोज, गुदगुदे और बड़े बड़े नितम्ब, लम्बा कद, पतली कमर, लम्बी उंगलियां, छोटे पांव, लम्बी गर्दन, लम्बे व चमकदार बालों वाली स्त्री के प्रति सम्मोहन क्यों है? पुरुष एक ऐसी ही कमनीय स्त्री की कामना करता है और ऐसी ही स्त्री को अपनी अंकशायिनी बनने के काबिल समझता व मानता है। ऐसी ही स्त्री उसे आकर्षित करती है। ऐसी स्त्री उसकी अंकशायिनी तो बनती है पर प्रायः वह उसके आदर की पात्र नहीं होती। पुरुष भोगने के पहले और बाद में भी ऐसी सुन्दर स्त्री के चरित्र को प्रायः शंकालु और हेय नजरों से देखता है। वह उस परपुरुष को मोहने का आरोप तक लगा कर खुद को दोष मुक्त कर लेता है। इससे साफ ज़ाहिर है कि पुरुष एक कमजद्रोर स्त्री की ही कामना करता है की जिस पर वह हावी हो सके जिसे वह अपने वश में रख सके। किन्तु स्त्रीयों खुद को पुरुष अभीप्रिय छवि में फिट करने को आतुर रहती है। इसका जवाब स्त्री का पुरुषवादी मानसिकता से आतंकित होना ही है।
हांलांकि मुझे बाजारवादी मॉडल या फिल्मी दुनिया को ऐसी स्त्री से बिल्कुल ऐतराज नहीं है लेकिन उनके सौंदर्य का मापदंड पुरुष ने निर्धारित किया है। और पुरुष प्रायः केवल स्त्री की देह को देखता है, देहधारी की क्षमता और काबिलियत को नज.रअंदाज कर देता है। वह, यानी स्त्री कितनी गुणवान है, कितनी सामाजिक है, गुणवान या ईमानदार है, यह पुरुषों के लिए मायने नहीं रखता। बस कितनी मुग्धकारी तस्वीरसी लगती है वही उनकी कसौटी है। विडम्बना तो यह है कि अज्ञानवश अधिकांश स्त्रियाँ भी इसी पुरुष दृष्टी से ही सोचती हैं। सुन्दर लगना स्त्रियित्व तो क्या मनुष्य का गुण है पर सुन्दर वस्तु बनना जड़ता का प्रतीक है, जीवन्त मनुष्य का नहीं। स्त्राी जरूर सुन्दर लगे या सुन्दर लगने का प्रयास करे पर ,पुरुष के लिए भोग्या बनने के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि सुन्दरता एक गुण है, विशेषता है स्त्री का सुन्दर व आकर्षक लगना उसका स्वभाव है, गुण है एक मानवीय बोध है, जिसे आत्मसात किया जाना चाहिये वस्तु मान कर भोगना नहीं। अजीब विडम्बना है कि पुरुष ने स्त्री का मानक ऐसा गढ़ा है, जिसमें वह कमज़ोर व पराश्रित दिखती है। ऐसी नाजुक कि बिना पुरुष के सहारे आगे ही न बढ सके। किन्तु स्त्री ने पुरुष के लिए जो मानक गढ़ा है वह ठीक इसके उलट है। इसलिए हर पुरुष स्त्री के समक्ष खुद हृष्ट पुष्ट, बलिष्ठ व चुस्त दुरुस्त दिखने की चेष्टा करता है चूंकि स्त्रियों ने उसके लिए ऐसा ही मानक गढ रखा है! यानी ऐसा पुरुष जो उसे वश में रख सके। यही वह ग्रन्थि है जो सदियों से स्त्री के अवचेतन में उसके पोरपोर में ठूंसठूंस कर भरी जाती रही है कि उसे पुरुष के अधीन उसके वश में ही रहना है। स्त्री को अपने अर्न्तमन की यही गांठ खोलनी है और इसी से उसे मुक्त होना है।
हालांकि ये मानक व्यक्तिगत रुचि के अनुसार बदले भी हैं और बदल भी रहे हैं। पर प्रचारित प्रसारित व समाज में आदर्श केवल ऊपर वर्णित मानकों को ही माना गया है। किन्तु अब स्त्री पुरुष के सब मानदण्डों व नजरियों को बदलने की जरूरत है।
दरअसल स्त्रियों को खुद में अन्तेर्द्रिष्टि पैदा करनी होगी अधिकांश स्त्रियाँ पुरुष दृष्टि से ही ग्रस्त हैं। अभी तक स्त्रियाँ खुद भी दूसरी स्त्री को एक स्त्री के रूप में देखने की क्षमता हासिल नहीं कर सकीं हैं, इसीलिए वे स्त्री होने के नाते दूसरी स्त्री की त्रासदी को नहीं समझ पातीं। सासबहू का विवाद ऐसी ही सोच का परिणाम है। वे रिश्तों के संदर्भ में ही दूसरी औरत को समझती हैं। मां भी बेटी को बेटी यानी सन्तान के नाते ही पहचानती है और बेटी मां को मां के रिश्ते के नाते। दोनों एकदूसरे को एक औरत होने के नाते नहीं समझतीं। जिस दिन यह सोच निर्मित हो जाएगी, उस दिन स्त्री अपनी मुक्ति की आधी लडाई जीत लेगी।
सन्तान का मोह भी स्त्री को गुलाम बनाता है। ऐसा लगता है जैसे स्त्री ने ही सारी ममता का ठेका ले रखा है। पुरुष क्यों नहीं सन्तान के मोह में पडता? वह भी तो पिता होता है। सारा दायित्व औरत पर ही क्यों ? ये प्रश्न जवाब खोजते हैं।
पुरुषनिर्मित सौन्दर्यकसौटी पर ही खुद को तोलती है औरतें
विचित्र तो यह है कि स्त्री की मुक्ति का अहसास होने के बावजूद आज भी स्त्री पुरुषनिधार्रित सौन्दर्यमानकों के खांचों में खुद को फिट करने की होड. में शामिल है।
आज भी उनका सौंदर्यबोध उनका सपना पुरुष की नज़रों में सुन्दर लगना ही है। उनकी चाहत है ऐसी देह, जो पुरुष को आकर्षित कर सके, जिस पर पुरुष मुग्ध हो जाए। ऐसी कसौटी जिस पर वह सराही जाये, जिसे पुरुषों ने ही गढ़ा है। यानी ३६.२४.३६ की गोरी, कोमल, नाज़ुक, नफीज़ दिखने वाली एक ऐसी देहयष्टि, जो पुरुषों को मुग्ध कर सके या उनमें हजारों में एक का स्वामी होने का आभास पैदा कर सके।
यूँ तो आकर्षित करने का इम्पल्स पशुओं में भी होती है लेकिन वह प्रकृति द्वारा प्रदत्त निधारित और निश्चित आचरण होता है। मनुष्य अपना आचरण खुद तय करता है, इसलिए स्त्री यदि अपने अनुकूल आचरण तय करती है, तो वह ज्यादा आत्मनिर्भर बन सकती है। देह का ही मामला लें। कामकाजी महिला को चुस्तदुरुस्त, हाजिर जवाब, हिलमिल कर काम करने का स्वभाव, सूचनाओं से लैस और साहसी होना जरूरी होता है, छुईमुई बनना नहीं। ऐसा होने पर कार्यस्थल पर वह पुरुषों में व्याप्त कामुक नजरों का मुकाबला ज्यादा मुस्तैदी से कर सकती है। यदि वह नाज़ुक, नफीज़ या फिगर के घेरे में ही सीमित रहे अथवा इसी चक्कर में रहे कि वह पुरुष की नज़र में कैसी लगती है, तो उसका काम प्रभावित होता है और बहुत से पुरुष उसके आश्रयदाता बनकर उसके बदले काम करने का प्रलोभन देकर, उसे अपने वश में करने का प्रयास करने लगते हैं।
आखिर स्त्रियों में भी, मर्दों द्वारा अपनी तुष्टि व आनंद के लिए गढ़ी गई एक तिलस्माई लेकिन कठपुतलीनुमा छवि वाली स्त्री की कसौटी यानी एक नाज़ुक , पतलीदुबली, गोरी, बड़े बड़े उरोज, गुदगुदे और बड़े बड़े नितम्ब, लम्बा कद, पतली कमर, लम्बी उंगलियां, छोटे पांव, लम्बी गर्दन, लम्बे व चमकदार बालों वाली स्त्री के प्रति सम्मोहन क्यों है? पुरुष एक ऐसी ही कमनीय स्त्री की कामना करता है और ऐसी ही स्त्री को अपनी अंकशायिनी बनने के काबिल समझता व मानता है। ऐसी ही स्त्री उसे आकर्षित करती है। ऐसी स्त्री उसकी अंकशायिनी तो बनती है पर प्रायः वह उसके आदर की पात्र नहीं होती। पुरुष भोगने के पहले और बाद में भी ऐसी सुन्दर स्त्री के चरित्र को प्रायः शंकालु और हेय नजरों से देखता है। वह उस परपुरुष को मोहने का आरोप तक लगा कर खुद को दोष मुक्त कर लेता है। इससे साफ ज़ाहिर है कि पुरुष एक कमजद्रोर स्त्री की ही कामना करता है की जिस पर वह हावी हो सके जिसे वह अपने वश में रख सके। किन्तु स्त्रीयों खुद को पुरुष अभीप्रिय छवि में फिट करने को आतुर रहती है। इसका जवाब स्त्री का पुरुषवादी मानसिकता से आतंकित होना ही है।
हांलांकि मुझे बाजारवादी मॉडल या फिल्मी दुनिया को ऐसी स्त्री से बिल्कुल ऐतराज नहीं है लेकिन उनके सौंदर्य का मापदंड पुरुष ने निर्धारित किया है। और पुरुष प्रायः केवल स्त्री की देह को देखता है, देहधारी की क्षमता और काबिलियत को नज.रअंदाज कर देता है। वह, यानी स्त्री कितनी गुणवान है, कितनी सामाजिक है, गुणवान या ईमानदार है, यह पुरुषों के लिए मायने नहीं रखता। बस कितनी मुग्धकारी तस्वीरसी लगती है वही उनकी कसौटी है। विडम्बना तो यह है कि अज्ञानवश अधिकांश स्त्रियाँ भी इसी पुरुष दृष्टी से ही सोचती हैं। सुन्दर लगना स्त्रियित्व तो क्या मनुष्य का गुण है पर सुन्दर वस्तु बनना जड़ता का प्रतीक है, जीवन्त मनुष्य का नहीं। स्त्राी जरूर सुन्दर लगे या सुन्दर लगने का प्रयास करे पर ,पुरुष के लिए भोग्या बनने के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि सुन्दरता एक गुण है, विशेषता है स्त्री का सुन्दर व आकर्षक लगना उसका स्वभाव है, गुण है एक मानवीय बोध है, जिसे आत्मसात किया जाना चाहिये वस्तु मान कर भोगना नहीं। अजीब विडम्बना है कि पुरुष ने स्त्री का मानक ऐसा गढ़ा है, जिसमें वह कमज़ोर व पराश्रित दिखती है। ऐसी नाजुक कि बिना पुरुष के सहारे आगे ही न बढ सके। किन्तु स्त्री ने पुरुष के लिए जो मानक गढ़ा है वह ठीक इसके उलट है। इसलिए हर पुरुष स्त्री के समक्ष खुद हृष्ट पुष्ट, बलिष्ठ व चुस्त दुरुस्त दिखने की चेष्टा करता है चूंकि स्त्रियों ने उसके लिए ऐसा ही मानक गढ रखा है! यानी ऐसा पुरुष जो उसे वश में रख सके। यही वह ग्रन्थि है जो सदियों से स्त्री के अवचेतन में उसके पोरपोर में ठूंसठूंस कर भरी जाती रही है कि उसे पुरुष के अधीन उसके वश में ही रहना है। स्त्री को अपने अर्न्तमन की यही गांठ खोलनी है और इसी से उसे मुक्त होना है।
हालांकि ये मानक व्यक्तिगत रुचि के अनुसार बदले भी हैं और बदल भी रहे हैं। पर प्रचारित प्रसारित व समाज में आदर्श केवल ऊपर वर्णित मानकों को ही माना गया है। किन्तु अब स्त्री पुरुष के सब मानदण्डों व नजरियों को बदलने की जरूरत है।
दरअसल स्त्रियों को खुद में अन्तेर्द्रिष्टि पैदा करनी होगी अधिकांश स्त्रियाँ पुरुष दृष्टि से ही ग्रस्त हैं। अभी तक स्त्रियाँ खुद भी दूसरी स्त्री को एक स्त्री के रूप में देखने की क्षमता हासिल नहीं कर सकीं हैं, इसीलिए वे स्त्री होने के नाते दूसरी स्त्री की त्रासदी को नहीं समझ पातीं। सासबहू का विवाद ऐसी ही सोच का परिणाम है। वे रिश्तों के संदर्भ में ही दूसरी औरत को समझती हैं। मां भी बेटी को बेटी यानी सन्तान के नाते ही पहचानती है और बेटी मां को मां के रिश्ते के नाते। दोनों एकदूसरे को एक औरत होने के नाते नहीं समझतीं। जिस दिन यह सोच निर्मित हो जाएगी, उस दिन स्त्री अपनी मुक्ति की आधी लडाई जीत लेगी।
सन्तान का मोह भी स्त्री को गुलाम बनाता है। ऐसा लगता है जैसे स्त्री ने ही सारी ममता का ठेका ले रखा है। पुरुष क्यों नहीं सन्तान के मोह में पडता? वह भी तो पिता होता है। सारा दायित्व औरत पर ही क्यों ? ये प्रश्न जवाब खोजते हैं।
18.9.11
महाभारत की गांधारी बन चुकी है UP सरकार
12.9.11
गूगल, ऑरकुट और फेसबुक के दोस्तों, पाठकों, लेखकों और टिप्पणिकर्त्ताओं के नाम एक बहुमूल्य संदेश
11.9.11
संस्कृति खतरे में है……कोई तो बचाने आओ
सवाल यह कि क्या सच है और क्या नहीं? आज देश में उबाल आ गया है (जैसा बासी कढ़ी में आता है) अदालत के धारा 377 के ऊपर अपना निर्णय देने के बाद से। संस्कृति क्षरण का मामला दिख रहा है; देश की सभ्यता संकट में आती दिख रही है।
इस अदालती फैसले का बुरा तो हमें भी लगा क्यों लगा यह समझ नहीं आया? समलैंगिकों को देश की मुख्यधारा में जोड़ने का कोई एक यही तरीका नहीं था कि इसे कानूनी मदद दे दी जाये। ये तो वैसा ही हो गया जैसे कि डकैतों, चोरों, बलात्कारियों को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए कानूनी सेरक्षण दे दिया जाये।
सहमति से बालिग स्त्री-स्त्री का और पुरुष-पुरुष का सम्बन्ध बनता है तो वह कानूनी अपराध नहीं है। बिना हत्या किये यदि डकैती डाल दी जाती है तो वह डकैती नहीं। बलात्कार किया जाये और महिला को शारीरिक चोट न पहुँचे या फिर वह गर्भवती न हो तो बलात्कार अपराध नहीं। समझ गये आप क्या कहना चाह रहे हैं हम?
जहाँ तक संस्कृति की बात है तो देश की संस्कृति को लोगों ने इतना सहज बना दिया है कि हर कोई उसकी व्याख्या करने लगता है। समलैंगिकता के समर्थकों ने तो कह दिया कि वेद-पुराण में भी ऐसे सम्बन्धों के बारे में चर्चा है। यहाँ गौर किया जाये कि समलैंगिकता का समर्थन करने वाली तादाद युवा वर्ग की है, लगभग शत-प्रतिशत। हास्यास्पद तो यह है कि जिस पीढ़ी को अपने माँ-बाप का, अपने परिवार की संस्कृति का पता नहीं वह हमारे वेद-पुराणों को पढ़ का उसका व्याख्यान दे रही है। जिस पीढ़ी को सहज सेक्स के बारे में ज्ञात नहीं वह वेद-पुराणों में सेक्स सम्बन्धों का चित्र प्रस्तुत कर रही है।
समलैंगिकता के सम्बन्धों का वेद-पुराणों में हवाला देने वाले बतायें कि कौन से वेद में इस तरह का वर्णन है? खजुराहो और कामसूत्र का जो लोग उदाहरण प्रस्तुत करते हैं वे यह बात अच्छी तरह जान लें कि इन साहित्यों की रचना इसी तरह के भ्रष्ट कामियों को राह दिखाने के लिए की गई थी।
अब कुछ संस्कृति के कथित रक्षकों के लिए भी। वह यह कि जो लोग भगवान राम को काल्पनिक मानते हैं वे शंबूक वध का सहारा लेकर समूची हिन्दू जाति, भगवान राम और सवर्ण जाति को गाली देते घूमते हैं। कृपया बताया जाये कि यदि उनकी दृष्टि में भगवान राम काल्पनिक हैं तो शंबूक वध कहाँ से वास्तविक है?
इसी तरह माता सीता का नाम लेकर समूचे पुरुष समाज को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। स्त्री के ऊपर अत्याचार का वर्णन किया जाता है। कितनी-कितनी बार अग्निपरीक्षा देने की दुहाई दी जाती है। ऐसा करने वालीं स्त्रियाँ, महिला सशक्तिकरण की समर्थक महिलायें उसी परिवार की एक महिला उर्मिला के त्याग को भूल जातीं हैं। सीता जी का नाम लेकर स्वयं को पुरुष वर्ग से टकराने तक की ताकत दिखाने वालीं महिलायें क्या उसी उर्मिला का नाम लेकर अपनी सास या ससुर की सेवा कर सकतीं हैं? बिना पति के घर-परिवार को चला सकतीं हैं? आज आलम यह है कि घर में आते ही एकल परिवार की अवधारणा को पुष्ट करने लगतीं हैं।
संस्कृति के नाम पर क्या हो रहा है, क्या होना चाहिए यह किसी को सही से ज्ञात नहीं। समलैंगिकता के नाम पर हो रहे हो-हल्ले से कुछ और हो या न हो उन लोगों के हौंसले अवश्य बढ़ेंगे जो प्राकृतिक सेक्स में असफल इसी तरह के अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों की आस में लगे रहते हैं।
8.9.11
विवादों से घिरते जा रहे हैं स्वामी अग्निवेश
हाल ही अन्ना हजारे की टीम से अलग हुए स्वामी अग्निवेश एक बार फिर विवादों से घिरने लगे हैं। वस्तुस्थिति तो ये है कि उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो गई है। अन्ना की टीम में रहने के दौरान भी कुछ लोग उनके बारे में अलग ही राय रखते थे। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उनके बारे में अंटशंट टिप्पणियां आती रहती थीं, लेकिन जैसे ही वे अन्ना से अलग हुए हैं, उनके बारे में उनके बारे में सारी मर्यादाएं ताक पर रख कर टीका-टिप्पणियां होने लगी हैं। हालत ये है कि आजीवन सामाजिक क्षेत्र में काम करने का संकल्प लेने वाले अग्निवेश को अब कांगे्रस का एजेंट बन कर सियासी दावपेंच चलाने में मशगूल बताया जा रहा है।
असल में स्वामी अग्निवेश मूलत: अन्ना हजारे की टीम में शामिल नहीं थे। वैसे भी उनका अपना अलग व्यक्तित्व रहा है, इस कारण अन्ना हजारे के आभामंडल को पूरी तरह से स्वीकार किए जाने की कोई संभावना नहीं थी। कम से कम अरविंद केजरीवाल व किरण बेदी की तरह अन्ना हजारे का हर आदेश मानने को तत्पर रहने की तो उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। सामाजिक क्षेत्र में पहले से सक्रिय स्वामी अन्ना से जुड़े ही एक मध्यस्थ के रूप में थे। वे उनकी टीम का हिस्सा थे भी नहीं, मगर ऐसा मान लिया गया था कि वे उनकी टीम में शामिल हो गए हैं। और यही वजह रही कि उनसे भी वैसी ही उम्मीद की जा रही थी, जैसी कि केजरीवाल व किरण से की जा सकती है।
जहां तक मध्यस्थता का सवाल है, उसमें कोई बुराई नहीं है। मध्यस्थ का अर्थ ही ये है कि जो दो पक्षों में बीच-बचाव करे और वह दोनों ही पक्षों में विश्वनीय हो। तभी तो दोनों पक्ष उसके माध्यम से बात करने को राजी होते हैं। मगर समस्या तब उत्पन्न हुई, जब इस बात की जानकारी हुई कि वे पूरी तरह से कांग्रेस का साथ देते हुए मध्यस्थता कर रहे हैं तो अन्ना व उनकी टीम को ऐतराज होना स्वाभाविक था। जैसा कि आरोप है, वे तो अन्ना की टीम को ही निपटाने में जुट गए थे। जाहिर तौर पर उनकी यह हरकत अन्ना टीम सहित उनके सभी समर्थकों को नागवार गुजरी। बुद्धिजीवियों में मतभेद होना स्वाभाविक है, मगर यदि मनभेद की स्थिति आ जाए तो संबंध विच्छेद की नौबत ही आती है। कदाचित कुछ मुद्दों पर स्वामी अन्ना से सहमत न हों, मगर उन्हीं मुद्दों को लेकर अन्ना के खिलाफ काम करना कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। संतोष हेगड़े को ही लीजिए। उनके भी कुछ मतभेद थे, मगर उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था। उनको लेकर कोई राजनीति नहीं कर रहे थे।
जैसी कि जानकारी है, अन्ना टीम को पता तो पहले ही लग गया था कि स्वामी क्या कारस्तानी कर रहे हैं, मगर आंदोलन के सिरे तक पहुंचने से पहले वह चुप रहने में ही भलाई समझ रही थी। जानती थी कि अगर मतभेद और विवाद पहले ही उभर आए तो परेशानी ज्यादा बढ़ जाएगी। और यही वजह रही कि जब अन्ना का आंदोलन एक मुकाम पर पहुंच गया और उसकी सफलता का जश्न मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर इस बात की समीक्षा की जा रही थी कि कौन लंका ढ़हाने के लिए विभीषण की भूमिका अदा कर रहा है। उसमें सबसे पहले नाम आया स्वामी अग्निवेश का। इसी सिलसिले में उनका का एक कथित वीडियो यूट्यूब पर डाल दिया गया। जिससे यह साबित हो रहा था कि वे थे तो टीम अन्ना में, मगर कांग्रेस का एजेंट बन कर काम कर रहे थे। वीडियो में उन्हें कथित रूप से हजारे पक्ष को पागल हाथी की संज्ञा देते हुए दिखाया गया है। वीडियो में वह कपिल जी से यह भी कह रहे हैं कि सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए ताकि कोई संसद पर दबाव नहीं बना सके।
जहां तक वीडियो की विषय वस्तु का प्रश्न है, स्वयं अग्निवेश भी स्वीकार कर रहे हैं कि वह गलत नहीं है, मगर उनकी सफाई है कि इस वीडियो में वे जिस कपिल से बात कर रहे हैं, वे केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल नहीं हैं, बल्कि हरिद्वार के प्रसिद्ध कपिल मुनि महाराज हैं। बस यहीं उनका झूठ सामने आ गया। मौजूदा इंस्टंट जर्नलिज्म के दौर में मीडिया कर्मी कपिल मुनि महाराज तक पहुंच गए। उन्होंने साफ कह दिया कि उन्होंने पिछले एक वर्ष से अग्निवेश से बात ही नहीं की। साथ ये भी बताया कि हरिद्वार में उनके अतिरिक्त कोई कपिल मुनि महाराज नहीं है। यानि कि यह स्पष्ट है कि स्वामी सरासर झूठ बोल रहे हैं। जाहिर तौर पर इस प्रकार की हरकत को धोखाधड़ी ही कहा जाएगा।
जहां तक अग्निवेश का अन्ना टीम छोडऩे का सवाल है, ऐसा वीडियो आने के बाद ऐसा होना ही था, मगर स्वयं अग्निवेश का कहना है कि वे केजरीवाल की शैली से नाइत्तफाकी रखते थे, इस कारण बाहर आना ही बेहतर समझा। इस बात में तनिक सच्चाई भी लगती है, क्यों कि अन्ना की टीम में दूसरे नंबर के लैफ्टिनेंट वे ही हैं। कुछ लोग तो यहां तक भी कहते हैं कि अन्ना की चाबी भी केजरवाल ही हैं। बहरहाल, दूसरी ओर केजरीवाल का कहना है कि स्वामी इस कारण नाराज हो कर चले गए क्योंकि आखिरी दौर की बातचीत में अन्ना की ओर से उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना को उनके बारे में पुख्ता जानकारी मिल चुकी थी, इसी कारण उनसे थोड़ी दूरी बनाने का प्रयास किया गया होगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि हजारे पहली बार अनशन पर बैठे तो स्वामी ही मध्यस्थ के रूप में आगे आए थे, मगर उनकी भूमिका पर संदेह होने के कारण ही उन्हें लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट बना कर सरकार से बात करने वाली टीम में शामिल नहीं किया गया, जब कि स्वामी ने बहुत कोशिश की कि उन्हें जरूर शामिल किया जाए। बस तभी से स्वामी समझ गए कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली है। इसी कारण जब हजारे ने 16 अगस्त से अनशन पर बैठने का फैसला किया तो अग्निवेश ने आलोचना की थी। अनशन शुरू होने से लेकर तिहाड़ जेल से बाहर आने तक स्वामी गायब रहे, मगर फिर नजदीक आने की कोशिश की तो अन्ना की टीम ने उनसे किनारा शुरू कर दिया।
खैर, यह पहला मौका नहीं कि उनकी ऐसी जलालत झेलनी पड़ी हो। इससे पूर्व आर्य समाज, जो कि उनके व्यक्तित्व का आधार रहा है, उस तक ने उनसे दूरी बना ली थी। ताजा मामले में भी आर्य समाज के प्रतिनिधियों ने उन्हें धोखेबाज बताते हुए सावधान रहने की सलाह दी है। माओवादियों से बातचीत के मामले में भी उनकी कड़ी आलोचना हो चुकी है। अब देखना यह है कि आगे वे क्या करते हैं? सरकार की किसी पेशकश को स्वीकार करते हैं या फिर से सामाजिक क्षेत्र में जमीन तलाशते हैं?
tejwanig@gmail.com
5.9.11
तुम साथ साथ हो ना ?
|
2.9.11
कुछ तुम कहो कुछ मैं कहु |: खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव
खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव
खूब चलता है ब्लॉग जगत में औरत और मर्द का भेद भाव
आप भाई बंधुओ को ये पोस्ट पड़ कर अच्छा और बुरा दोनों तरह का विचार आये गा पे क्या करू मैं ये पोस्ट करने पैर मजबूर हु पर पे पोस्ट मैने भी कही से कॉपी कर के इस में कुछ फेर बदल कर के पोस्ट किया है
प्रायः देखा जाता है की ९०% पाठक सिर्फ पढ़कर चले जाते हैं, ९% पाठक कुछ थोडा बहुत लिख जाते हैं सिर्फ १ प्रतिशत पाठक ऐसे होते है जो की सक्रिय रूप से टिप्पणी देकर जाते हैं.
तो इसका मतलब एक प्रतिशत लोग आपके ब्लॉग से सक्रिय रूप से जुड़े रहते हैं.
और यह बात सभी ब्लोगों के लिए भी नहीं है. अलग अलग ब्लॉग में प्रतिशत घट या बड़ सकता है किसी ब्लॉग में टिप्पणी करने वाले ९० % भी हो सकते हैं. मगर सामान्यतया यह सत्य पाया गया है की ज्यादातर पाठक बिना कोई टिप्पणी किये चले जाते हैं. अब पाठक भी क्या करें ब्लोग्स की भीड़ ही इतनी हो गयी है. कितने ब्लोग्स पर टिप्पणी करे. पाठक को अगर कुछ रोचक मिल जाता है तो वह टिप्पणी कर जाता है, नहीं तो वह किसी दुसरे ब्लॉग का रूख करता है, वैसे हिंदी ब्लॉग जगत में एक बात है औरत और मर्द का भेद भाव खूब चलता है, किसी भी महिला ब्लोगर का ब्लॉग उठा कर देख लीजिये लगभग लगभग अधिकतर ब्लोगर टिप्पणियों के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करते मिलेंगे. जो कोई ब्लोगर कविता का क भी नहीं समझता हो वाह वाह करता मिलेगा और बेचारे मर्द ब्लोगरों को अपने लेख के लिए टिप्पणियों के लिए तरसता पाओगे. मैंने देखा की पिछले सप्ताह एक साथी ब्लोगर ने चित्र प्रतियोगिता आरम्भ की मगर को उनके ब्लॉग पर एक टिप्पणी भी करने नहीं गया और स्तनों का जोड़ा नामक शीर्षक वाले ब्लॉग पर टिप्पणियों की मारामारी हो रही थी
खेर यह तो चलता रहेगा इस संसार का नियम है ये. हमें तो खोज करनी पड़ेगी की हमारे ब्लॉग पर ज्यादा से ज्यादा लोग कैसे जुड़ें और अपनी प्रतिक्रिया छोड़ कर जाएँ .
मैंने इन्टरनेट पर कुछ उपाय तलाश किये जिससे टिप्पणीकर्ताओं की संख्या बड़ सके. वो इस प्रकार हैं
१- टिप्पणियां आमंत्रित करें – मैंने देखा है की जब मुझे किसी पोस्ट पर टिप्पणिया चाहिए होती है तो बहुत कम मिलती है और जब नहीं तो भरमार हो जाती है. हमें पोस्ट के भीतर से ही टिप्पणियों को आमंत्रित करना चाहिए पोस्ट कुछ ऐसी होनी चाहिए की पाठक को टिप्पणी करने की आवशयकता पड़े. टिप्पणियां सिर्फ वाह वाह और शाबाशी के लिए नहीं वह आपकी कमी, आपकी गलती और आपकी अज्ञानता को इंगित कर सकती है. इसलिए पोस्ट में ऐसा कुछ लिखना चाहिए की पाठक आपसे टिप्पणी से संपर्क करे.
२. प्रश्न पूछे - पोस्ट के भीतर प्रश्न पूछें. पोस्ट में सवाल करने से निश्चित रूप से पाठक अपनी टिप्पणियों से जवाब देकर जाते हैं.
३. खुली पोस्ट लिखें - ऐसी पोस्ट लिखें जो की आपने पूरी लिख तो दी लेकिन ऐसा लगे की आपने सारे टोपिक कवर नहीं किये. पाठक को लगे की उस टोपिक के बारे में लिखना चाहिए.
४. टिप्पणी का जवाब दें - अगर आपकी पोस्ट पर आप स्वयं ही टिप्पणी नहीं करते हैं तो कोई और भाल क्यों? अगर कोई आपके ब्लॉग पर टिप्पणी करता है तो उसका जवाब उसे अवश्य दें . इससे आपके पाठकों को लगता है की उनकी टिप्पणी आपके लिए महत्व रखती है.
५. यदि कोई आपके ब्लॉग पर कठोर टिप्पणी कर जाये तो उसका जवाब विनती पूर्वक लहजे में दें .
६. विवादस्पद पोस्ट लिखें (मेरी राय में तो मत लिखें, क्यूँ किसी की भावनाओं को भड़काया जाये ) इससे टिप्पणियां काफी मिल जाती है .
और काफी प्रयास के बाद भी टिप्पणियां प्राप्त नहीं हो तो याद ही न की क्या बोलना है “मुझे मेरी किसी पोस्ट के लिए टिप्पणियों की आवशयकता नहीं मेरा काम है लिखना और मैं लिखता रहूँगा”