29.6.11

महिलाओं की दशा व सुधार के उपाय

भारत-वर्ष में पुरातन काल में नारी शक्ति का अत्यधिक महत्व था।यहाँ की संस्कृति में नारी को एक महान शक्ति के रूप में आदर-सम्मान दिया जाता रहा है।वैदिक काल में इस देवभूमि की नारी, सामाजिक-धार्मिक व आध्यात्मिक क्षेत्रों में पुरूष की सहभागिनी थी।गौरवपूर्ण अधिकार व सम्मान प्राप्त नारी आदिकाल से माँ ,बहन,प्रेयसी,पत्नी व पुत्री आदि रिश्तों को,दायित्वों को निभाती चली आ रही है।वैदिक काल में नारी ने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए,समाज व जीवन के हर क्षेत्र में अपना गौरव व सम्मान बढ़ाया था।भारत में हिन्दू शासकों के शासन काल तक नारी का सम्मान उच्चकोटि का था।महर्षि याज्ञवल्क्य का गार्गेय के साथ संवाद,जगतगुरु शंकराचार्य का मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती के साथ शास्त्रों,वेदों व कामशास्त्र पर शास्त्रार्थ आज भी स्मरणीय है।

मध्य काल में भारत-वर्ष में मुगल सल्तनत के विस्तार के साथ-साथ,भारतीय समाज व नारी की स्थिति बिगड़ती गई एवं नारी के सामने एक के बाद एक समस्यायें पैदा होती रहीं।मुगल काल वह काल था,जब भारतीय नारी ने अपने सतीत्व के रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने का कार्य किया।मध्य काल में भारतीय नारी का जीवन संकटग्रस्त था।शिक्षा लगभग समाप्त हो गई थी।इस मध्य काल में भी अपनी विद्वता,वीरता,लगन से अपना,अपने परिवार का,अपने समाज व देश का नाम स्वर्णाक्षरों मे। लिखने वाली रानी दुर्गावती,अहिल्याबाई,पद्मिनी,जीजाबाई आदि युगों-युगों तक प्रेरणा देती रहेंगी।नैतिकता,सदाचरण व ब्रह्मचर्य पालन में भारतीय पुरूषों की अपेक्षा श्रेष्ठतम् उदाहरण बार-बार पेश करने वाली भारतीय महिलाओं ने पुरातन काल,मध्य काल में ही नहीं वरन् ब्रितानिया हुकूमत के समय भी भारत की जंग-ए-आजादी में अपनी सक्रिय व अविस्मरणीय भूमिका निभाई है।राजा राम मोहन राय,स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द,महात्मा गाँधी ने भारतीय नारी की दशा को समझते हुए,नारी शिक्षा व अन्य क्रान्तिकारी सुधारों को प्रचारित-प्रसारित करने व लागू करवाने का महानतम् कार्य किया।भारत-पाक विभाजन के समय भी सतीत्व के रक्षार्थ,अपने नश्वर शरीर का त्याग करने वाली भारतीय महिलाओं की बलिदान की उच्च परम्परा के कारण ही भारतीय नारी सदैव सम्मान की पात्र रही है।आज भारतीय महिलायें शिक्षा व सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्रों में अगर अग्रणी स्थानों पर हैं तो वह भारत के इन्हीं महापुरूषों की सोच व प्रयासों का परिणाम है।

ब्रितानिया हुकूमत से लम्बे संघर्ष व अनगिनित बलिदानों के उपरांत आजादी हासिल करने के बाद,आजाद भारत के संविधान में भारतीय नारी को तमाम अधिकार प्रदान किये गये।शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए तमाम विद्यालयों की स्थापना की गई।आजाद भारत में दिनों-दिन राजनैतिक-सामाजिक क्षेत्रों व शिक्षा-रोजगार के क्षेत्रों में महिलाओं ने तेजी से तरक्की हासिल की।महिलाओं ने कामयाबी के कीर्तिमान स्थापित किये।एक प्रधानमंत्री व कुशल प्रशासक के रूप में इंदिरा गाँधी ने विश्व पटल पर अपने अमिट हस्ताक्षर कर के भारत-भूमि की शान में बढ़ोत्तरी की।वर्तमान समय में भी राजनैतिक क्षेत्र में महिला शक्ति का वर्चस्व कायम है।सोनिया गाँधी ,मीरा कुमार,ममता बनर्जी,मायावती,जयललिता आदि की नेतृत्व क्षमता व कार्यशैली का लोहा विपक्षी राजनैतिक दल भी मानते हैं।भारत के सर्वोच्च पद राष्टपति पर भी इस समय नारी शक्ति के रूप में श्रीमती प्रतिभा पाटिल आसीन हैं। सार्वजनिक जीवन व सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्रों में अपने विशेष योगदान के कारण सुभाषिनी अली,किरण बेदी ,मेघा पाटेकर का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है।

गौरवशाली इतिहास और कानूनी अधिकारों के बावजूद आज भारत में आम महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है।शीर्ष पदों पर महिलाओं के आसीन होने के बावजूद आज आम महिला को उसका अधिकार व सम्मान प्राप्त नहीं है।ग्रामीण अंचलों में नारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार होने के बावजूद अभी अज्ञान की कालिमा मिटी नहीं है।अशिक्षित महिलाओं का अपने अधिकारों की जानकारी न होना,उनका अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होना ही महिला की पीड़ा का,उसकी समस्या का सबसे बड़ा कारण है।विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से सरकारें महिलाओं को जागरूक करने का प्रयास गैर सरकारी संगठनों व सरकारी महकमों के माध्यम से जारी रखे हुए हैं।यह सत्य है कि बगैर शैक्षिक व कानूनी जागरूकता के वर्तमान युग में महिलाओं को अधिकार व सम्मान मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।यह दुर्भाग्यपूर्ण कटु सत्य है कि‘‘यत्र नारी पूज्यंते,तत्र देवता रमन्ते’’की अवधारणा वाले भारत देश में सामाजिक व पारिवारिक स्तर पर स्त्री की दशा सोचनीय व दयनीय है।समाज के नैतिक पतन का परिणाम है कि जन्मदात्री नारी को पारिवारिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है।

महिलाओ को भारत-वर्ष में कानून प्रदत्त तमाम अधिकार प्राप्त हैं।महिलाओं को घरेलू मामलों सम्बन्धी,ज़ायजाद सम्बन्धी,कार्य क्षेत्र सम्बन्धी,व्यक्तिगत सुरक्षा-संरक्षण सम्बन्धी,पंचायती राज व्यवस्था में भागीदारी सम्बन्धी और भी तमाम् हितकारी कानूनों का संरक्षण प्राप्त है।आम महिलाओं को अपना समय घर की चहारदीवारी में, पारिवारिक दायित्वों को पूरा करते हुए गुजारना पड़ रहा है।परिवार व रिश्तों को संजोने-सवारने का महती दायित्व निभाने वाली आम महिला आज अपने अधिकारों से वंचित है। जागरूकता व शिक्षा के अभाव में आम महिला के साथ पारिवारिक स्तर पर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।परिवार की इज्जत,बाल-बच्चों के पालन-पोषण एवं चौके -चूल्हे के चक्रव्यूह में फॅंसी नारी मन मसोस कर,अपना कर्तव्य निभाती चली जा रही है।यह ठीक है कि शीर्ष पदों पर महिलायें पहुँच कर महिला शक्ति का परचम लहरा रहीं है। परन्तु समाज की प्राथमिक इकाई परिवार में महिला अपनी जिम्मेंदारियों एवं घरेलू हिंसा के पाटों के बीच पिसती जा रही है।यदि आम महिलायें अपना कानूनी अधिकार जान जायें,उन अधिकारों की प्राप्ति के प्रति मुखरित हो जाये। तो परिवार व समाज में एक बड़ा भूचाल आ जायेगा।इससे बड़ा क्रान्तिकारी परिवर्तन महिलाओं के हित का कुछ और हो नहीं सकता कि आम महिला का जीवन शोषण मुक्त हो जाये।

महिला संरक्षण अधिनियम,2005 के तहत् महिलाओं को पारिवारिक हिंसा के विरूद्ध संरक्षण व सहायता का कानूनी अधिकार प्राप्त है।यदि कोई भी व्यक्ति अपने साथ रह रही किसी महिला को शारीरिक हिंसा अर्थात मारपीट करना,थप्पड़ मारना,ठोकर मारना, दांत से काटना,लात से मारना,मुक्का मारना,धक्का देना,धकेलना या किसी और तरीके से शारीरिक क्षति पहुंचता है,तो पीड़ित महिला महिला संरक्षण अधिनियम,2005 के तहत् सहायता प्राप्त कर सकती है।महिलाओं को लैंगिक हिंसा अर्थात बलात् लैंगिक मैथुन,जबरन अश्लील साहित्य पढ़ने या देखने को मजबूर करने पर,कोई अन्य प्रकार से अस्वीकार्य लैंगिक दुव्र्यवहार के खिलाफ भी महिला संरक्षण अधिनियम 2005 में अधिकार प्राप्त हैं।मौखिक और भावनात्मक हिंसा जिसमें अपमान,गलियां देना,चारित्रिक दोषारोपण,पुरूष संतान न होने के लिए अपमानित करना,दहेज की मांग ,शैक्षणिक संस्थान में अध्ययन से रोकने,नौकरी करने से मना करने,घर से निकलने पर,सामान्य परिस्थितियों में व्यक्तियों से मिलने पर रोक,विवाह करने के लिए जबरदस्ती,पसन्द शुदा व्यक्ति से विवाह पर रोक,आत्महत्या की धमकी देकर कोई कार्य करवाने की चेष्टा,मौखिक दुव्र्यवहार के साथ-साथ महिलाओं को आर्थिक हिंसा के विरूद्ध भी महिला संरक्षण अधिनियम,2005 में कानूनी अधिकार प्राप्त हैं।आर्थिक हिंसा की श्रेणी में महिला को या उसके बच्चों को गुजारा भत्ता न देना,खाना,कपड़े,दवाइयां न उपलब्ध कराना,महिला को रोजगार चलाने से रोकना या विघ्न डालना,रोजगार करने की अनुमति न देना,महिला द्वारा कमायें गये धन को उसे खर्च न करने देना,घर से निकालने की कोशिश करना,घरेलू उपयोग की वस्तुओं के उपयोग पर पाबन्दी लगाना,किराये के घर में रहने की स्थिति में किराया न देना आदि कृत्य आते है।।

यदि किसी महिला के साथ घरेलू हिंसा की जाती है तो वह महिला धारा18 व धारा19 के अधीन हिंसा करने वालों के विरूद्ध न्यायालय से आदेश प्राप्त कर सकती है।इन धाराओं के द्वारा महिला घरेलू हिंसा को रोकने के लिए साधारण आदेश अथवा विशेष आदेश की प्राप्ति कर सकती है।महिलाओं को धारा20 और धारा22 के अधीन अंतरिम धनीय अनुतोष के तहत् आदेश की प्राप्ति हो सकती है।घरेलू हिंसा की शिकार महिला को धारा5, धारा6, धारा7, धारा9, धारा10, धारा12, धारा14, धारा18 से धारा23 के तहत् अधिकार प्राप्त है।।इसमे। संरक्षण अधिकारी और सेवा प्रदाता की सहायता,संरक्षण,घरेलू हिंसा से बचाव के उपाय,घर में शांतिपूर्ण तरीके से रहने का अधिकार,घरेलू उपयोग की चीजों के उपयोग की अनुमति आदि अधिकार शामिल है।।

अब ध्यान देने की बात यह है कि यदि आज परिवार में महती जिम्मेदारी निभा रही आम महिला अपने इन अधिकारों की बहाली की मांग करने लगे तो क्या होगा?आम भारतीय जनमानस अपने परिवार की महिला से पारिवारिक जिम्मेंदारियों के साथ-साथ आर्थिक तरक्की में भी सहयोग तो चाहता है परन्तु महिला को उसका अधिकार देने के नाम पर त्यौरियां चढ़ा लेता है।अब भारत की महिलाओं को अपना अधिकार जानना व छीनना दोनों पड़ेगा।अब महिलाओं को अपने साथ होने वाले दुव्र्यवहार के विषय में मुखरित होना चाहिए।किसी व्यक्ति के द्वारा महिला से छेड़खानी करने पर महिला को दोषी मानना न्यायसंगत नहीं है।होना तो यह चाहिए कि जिसने गलती की है उसे सजा मिले परन्तु अधिकतर मामलों में महिलायें बदनामी के भय से मौन रहती हैं तथा जाने-अनजाने अपराध करने वाले की मदद कर देती हैं।सजा न मिलने के ही कारण ऐसे तत्व लोमहर्षक वारदातों को अंजाम दे देते हैं।स्कूली छात्राओं,कामकाजी महिलाओं के साथ ऐसी घटनायें रोजमर्रा की विषय वस्तुओं में शुमार हो चुकी हैं।

वर्तमान दौर में मॅंहगाई,आतंक के साये में जी रहे समाज व परिवार की महत्वपूर्ण सदस्या महिला वर्ग,दोहरी जिम्मेंदारी का बोझ उठाने को विवश है।चौके -चूल्हे की आग की तरह प्रतिदिन नारी के मन में आग जलती है।महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करके,समाज की अंहवादी सोच को बदल कर के हम रिश्तों,परिवार व समाज का पुनःनिर्माण कर सकते हैं।ऐसा तभी सम्भव हो पायेगा जबकि महिलायें स्वयं जागरूक होकर,अपने पैरों पर खड़ी होकर,अपने अधिकारों को जानें,उन्हें हासिल करें तथा कर्तव्य -पालन की दिशा में आगे बढ़ती रहें।


अन्ना हजारे की अक्ल आ गई ठिकाने


सारे राजनीतिज्ञों को पानी-पानी पी कर कोसने वाले, पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट बताने वाले और मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की सरकार बताने वाले गांधीवादी नेता अन्ना हजारे की अक्ल ठिकाने आ ही गई। वे समझ गए हैं कि यदि उन्हें अपनी पसंद का लोकपाल बिल पास करवाना है तो लोकतंत्र में एक ही रास्ता है कि राजनीतिकों का सहयोग लिया जाए। जंतर-मंतर पर अनशन करने से माहौल जरूर बनाया जा सकता है, लेकिन कानून जंतर-मंतर पर नहीं, बल्कि संसद में ही बनाया जा सकेगा। कल जब ये कहा जा रहा था कि कानून तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए जनप्रतिनिधि ही बनाएंगे, खुद को जनता का असली प्रतिनिधि बताने वाले महज पांच लोग नहीं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता था, मगर अब उन्हें समझ में आ गया है कि अनशन और आंदोलन करके माहौल और दबाव तो बनाया जा सकता है, वह उचित भी है, मगर कानून तो वे ही बनाने का अधिकार रखते हैं, जिन्हें वे बड़े ही नफरत के भाव से देखते हैं। इस कारण अब वे उन्हीं राजनीतिज्ञों के देवरे ढोक रहे हैं, जिन्हें वे सिरे से खारिज कर चुके थे। आपको याद होगा कि अपने-आपको पाक साफ साबित करने के लिए उन्हें समर्थन देने को आए राजनेताओं को उनके समर्थकों ने धक्के देकर बाहर निकाल दिया था। मगर आज हालत ये हो गई है कि समर्थन हासिल करने के लिए राजनेताओं से अपाइंटमेंट लेकर उनको समझा रहे हैं कि उनका लोकपाल बिल कैसे बेहतर है?
इतना ही नहीं, जनता के इस सबसे बड़े हमदर्द की हालत देखिए कि कल तक वे जनता को मालिक और चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता का नौकर करार दे रहे थे, आज उन्हीं नौकरों की दहलीज पर मालिकों के सरदार सिर झुका रहे हैं। तभी तो कहते है कि राजनीति इतनी कुत्ती चीज है कि आदमी जिसका मुंह भी देखना पसंद करता, उसी का पिछवाड़ा देखना पड़ जाता है। ये कहावत भी सार्थक होती दिखाई दे रही है कि वक्त पडऩे पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।
आइये, अब तस्वीर का एक और रुख देख लें। जाहिर सी बात है कि विपक्षी नेताओं से मिलने के पीछे अन्ना का मकसद ये है कि यदि उनका सहयोग मिल गया संसद में उनकी आवाज और बुलंदी के साथ उठेगी। मगर अन्ना जी गलतफहमी में हैं। माना कि सरकार को अस्थिर करने के लिए, कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने के लिए विपक्षी नेता अन्ना को चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं, मगर जब बात सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने की आएगी तो भला कौन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा। यह तो गनीमत है कि अन्ना जी जिस मुहिम को चला रहे हैं, उसकी वजह से उनकी जनता में इज्जत है, वरना वे ही राजनीतिज्ञ बदले में उनको भी दुत्कार कर भगा सकते थे कि पहले सभी को गाली देते थे, अब हमारे पास क्यों आए हो?
जरा अन्ना की भाषा और शैली पर भी चर्चा कर लें। सभी सियासी लोगों को भ्रष्ट बताने वाले अन्ना हजारे खुद को ऐसे समझ रहे हैं कि वे तो जमीन से दो फीट ऊपर हैं। माना कि सरकार के मंत्री समूह से लोकपाल बिल के मसौदे पर मतभेद है, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि आप चाहे जिसे जिस तरह से दुत्कार दें। खुद को गांधीवादी मानने वाले और मौजूदा दौर का महात्मा गांधी बताए जाने पर फूल कर कुप्पा होने वाले अन्ना हजारे को क्या ये ख्याल है कि गांधीजी कभी घटिया भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे। उनके सत्य-आग्रह में भाषा का संयम भी था। यदि कभी संयम खोया भी होगा तो उनकी मुहिम अंग्रेजों के खिलाफ थी, इस कारण उसे जायज ठहराया जाता सकता है। मगर अन्ना ने तो मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की ही सरकार बता दिया। ऐसा कह के उन्होंने अनजाने में पूरी जनता को काले अंग्रेज करार दे दिया है। जब ये सरकार हमारी है और हमने ही बनाई है तो इसका मतलब ये हुआ कि हम सब भी काले अंग्रेज हैं। मौजूदा सरकार कोई ब्रिटेन से नहीं आई है, हमने ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी है। हम पर थोपी हुई नहीं है। कल हमें पसंद नहीं आएगी तो हम दूसरों को मौका दे देंगे। पहले भी दे ही चुके हैं। सरकार से मतभेद तो हो सकता है, मगर उसके चलते उसे अंगे्रज करार देना साबित करता है कि अन्ना दंभ में आ कर भाषा का संयम भी खो बैठे हैं। असल बात तो ये है कि वे दूसरी आजादी के नाम पर जाने-अनजाने देश में अराजकता का माहौल बना रहे हैं।
वे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर इज्जत दे रहे थे, मगर अब जब बात नहीं बनी तो उन्हें ही सोनिया की कठपुतली करार दे रहे हैं। हालांकि यह सर्वविदित है कि सरकार का रिमोट कंट्रोल सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथ में है, उसमें ऐतराज भी क्या है, फिर गठबंधन का अध्यक्ष होने का मतलब ही क्या है, मगर अन्ना को अब जा कर समझ में आया है। तभी तो कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो सीधे और ईमानदार आदमी हैं लेकिन रिमोट कंट्रोल (सोनिया गांधी) समस्याएं पैदा कर रहा है। कल उन्हें आरएसएस का मुखौटा बताए जाने पर सोनिया से ही उम्मीद कर रहे थे कि वह कांग्रेसियों को ऐसा कहने से रोकें और आज उसी सोनिया से नाउम्मीद हो गए।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि उन्हें अपना ड्राफ्ट किया हुआ लोकपाल बिल ज्यादा अच्छा लगता है, और हो भी सकता है कि वही अच्छा हो, मगर उसे तय तो संसद ही करेगी। कम से कम अन्ना एंड कंपनी तो नहीं। यदि संसद नहीं मानती तो उसका कोई चारा नहीं है। ऐसे में यदि वे 16 अगस्त से फिर अनशन करते हैं तो वह संसद के खिलाफ कहलाएगा। सरकार की ओर से तो इशारा भी कर दिया गया है। उनके अनशन के हश्र पर ही टिप्पणियां आने लगी हैं। खैर, आगे-आगे देखिए होता है क्या?
आखिर में एक बात और। जब भी इस प्रकार अन्ना अथवा बाबा के बारे में तर्कपूर्ण आलोचना की जाती है तो उनके समर्थकों को बहुत मिर्ची लगती है। उन्हें लगता है कि लिखने वाला या तो कांग्रेसी है या फिर भ्रष्टाचार का समर्थक या फिर देशद्रोही। जिस मीडिया के सहारे आज देश में हलचल पैदा करने की स्थिति में आए हैं, उसी मीडिया को वे बिका हुआ कहने से भी नहीं चूकते। ऐसा प्रतीता होता कि अब केवल अन्ना व बाबा के समर्थक ही देशभक्त रह गए हैं। उनसे वैचारिक नाइत्तफाक रखने वालों को देश से कोई लेना-देना नहीं है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

27.6.11

एक नसीहत -DR. ANWER JAMAL

नाक़द्रा था जो भंवर में छोड़ गया
पानी में आपको जलता छोड़ गया

ग़ौर से इधर उधर भी तो देखिए
आप जैसे और कितने छोड़ गया

मायूस न हो मुस्कुरा कर भूल जा
एक गया , और बहुत छोड़ गया

हर शख़्स क़ाबिले ऐतबार कहाँ
एक तजर्बा ये नसीहत छोड़ गया

मायूसी के अंधेरों में उम्मीद रौशनी फैलाना ही हमारा मिशन है।
http://mushayera.blogspot.com

26.6.11

नवजात कन्याओं से छुटकारा पाने के आसान उपाय!


नवजात कन्याओं से छुटकारा पाने के आसान उपाय!


राजस्थान पत्रिका में छपने वाले विज्ञापन का शीर्षकराजस्थान पत्रिका ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया है। मकसद है कन्या हत्या रोकना। नवजात बच्चियों को जन्मते ही मार डालने की कुप्रथा पर विराम लगाना। पर इस विज्ञापन के बारे में कई पत्रकारों की राय है कि राजस्थान पत्रिका इस विज्ञापन की आड़ में कहीं न कहीं जाने या अनजाने में ही कन्या हत्या को बढ़ावा देने का काम कर रहा है। तर्क यह कि राजस्थान पत्रिका अखबार ने कन्या हत्या रोकने के लिए कन्या हत्या करने के पारंपरिक सभी तरीकों को विस्तार से बताया है और आखिर में एक छोटी सी अपील की है कि कन्या हत्या रोकें। क्या इसे जायज कहा जा सकता है? कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने पहली बार इस विज्ञापन के जरिए जाना कि नवजातों की हत्या इस तरह की जाती है या की जा सकती है।
ये तरीके कहीं न कहीं आपके दिमाग के कोने में दर्ज हो जाते हैं। हत्या के तरीकों का इतने विस्तार से वर्णन करना अपराध है। इन लोगों को कहना है कि हत्या के तरीके बताकर आप कहीं न कहीं शैतानी दिमाग या कच्चे दिमाग वाले मनुष्यों को और ज्यादा प्रशिक्षित कर रहे हैं, उकसा रहे हैं, आजमाने की प्रेरणा दे रहे हैं, और इस तरह, इस कुप्रथा को बढ़ावा देने में मददगार साबित हो रहे हैं। उधर, राजस्थान पत्रिका से जुड़े कुछ लोगों का कहना है कि दरअसल यह विज्ञापन पढ़ते समय आदमी के दिमाग में नवजात हत्या की प्रथा के प्रति घृणा पैदा होती है। उन्हें पता चलता है कि मासूमों को कितनी बेरहमी से इन सामान्य तरीकों के जरिए मार दिया जाता है। इस तरह यह विज्ञापन मनुष्य को जाग्रत करता है, संवेदनशील बनाता है, नवजात कन्या हत्या के प्रति घृणा से भर देता है। इस तरह यह विज्ञापन अपने मकसद में कामयाब है। विज्ञापनों के जरिए कोई सामान्य सी बात अलग तरीके से कही जाती है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों की नजर पड़े। यह क्रिएटिव वर्क है और इस विज्ञापन के जरिए कन्या हत्या रोकने के संदेश को बेहद मार्मिक तरीके से लोगों तक पहुंचाया जा रहा है।
आपकी क्या राय है? यह एक ऐसा संवेदनशील विषय है जिस पर हर किसी को अपना विचार व्यक्ति करना चाहिए ताकि इस बहस  के नतीजों से राजस्थान पत्रिका प्रबंधन को अवगत कराया जा सके और इस विज्ञापन को जारी करते रहने या रोकने के बारे में एक अनुरोध पत्र भेजा जा सके। नीचे राजस्थान पत्रिका में छपा विज्ञापन प्रकाशित किया जा रहा है। इसे देखें और अपनी राय इसी पोस्ट में कमेंट के जरिए दें।  -माडरेटर

राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित कन्या हत्या से संबंधित विज्ञापन

18.6.11

राजनीति की भेंट चढ़ गया बाबा रामदेव का आंदोलन

गांधीवादी अन्ना हजारे के सफल अनशन के बाद योग गुरू बाबा रामदेव का आंदोलन सफलता का किनारा छूते-छूते राजनीति के गर्त में डूब गया। बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर जाहिर तौर पर व्यापक विरोध प्रदर्शन अब भी देशभर में जारी है, मगर सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि बाबा की नब्बे फीसदी मांगों पर सहमति के बाद भी सरकार पुलिस कार्यवाही करने को मजबूर हो गई और बाद में जारी अनशन को तुड़वाने में सरकार ने कोई रुचि नहीं ली?
सक्रिय राजनीति में संतों की भागीदारी कितनी उचित?
वस्तुत: मौलिक सवाल ये उठा कि क्या किसी संन्यासी अथवा योग गुरू को सक्रिय राजनीति करनी चाहिए, लेकिन इसे यह तर्क दे कर नकार दिया गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना-रोकना ठीक नहीं है। इस सिलसिले में कहावत का उल्लेख प्रासंगिक लगता है, और वह ये कि कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। कमोबेश इसी स्थिति से बाबा रामदेव को गुजरना पड़ गया। अगर इतिहास पर नजर डालें तो संतों का राजनीति में आना सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए भी उनका राजनीति करना खास सफल नहीं हो पाया है। बाबा रामदेव से पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। ठीक इसी प्रकार न केवल बाबा का आंदोलन राजनीति का शिकार हो गया, अपितु वे खुद भी विवादास्पद हो गए। कहां तो पूर्व में राजनेता उनके यहां आशीर्वाद लेने को आतुर रहते थे और कहां अब आरोपों की बौछार हो रही है।
भाजपा व आरएसएस का समर्थन पड़ गया भारी
इसके कारणों पर नजर डालें तो कदाचित इसकी एक वजह ये समझ में आती है कि वे राजनीति की डगर पर कुछ ज्यादा ही आगे निकल पड़े। आंदोलन की शुरुआत में ही उनकी ओर से की गई यह घोषणा कि सारी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हैं और वे अपनी पार्टी बना कर उसे चुनाव मैदान में उतारेंगे। गुरू तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यम्भावी हो जाता है। व्यवस्था और सरकार की आलोचना करते-करते जब उनके प्रहार सीधे कांग्रेस पर ही होने लगे तो प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने भी उन पर निशाना साधना शुरू कर दिया। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाते हुए उन्हें ढोंगी ही करार दे दिया। जहां तक भाजपा का सवाल है, वह पहले तो देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों से अपने आपको अलग की रखे रही, लेकिन जैसे ही वे अनशन पर उतारू हो गए तो भाजपा व आरएसएस को लगा कि वे उनकी जमीन ही खिसका देंगे, इस कारण मजबूरी में समर्थन दे दिया। बाबा भी सहर्ष उस समर्थन को लेने को तैयार हो गए। बस यहीं गड़बड़ हो गई। बाबा रामदेव से गलती ये हुई कि वे अन्ना हजारे की तरह अपने आंदोलन को राजनेताओं से बचा नहीं पाए और जमाने में देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाली साध्वी ऋतम्भरा को ही मंच पर बैठा दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि बाबा को भाजपा का मुखौटा होने का आरोप सहना पड़ा।
इसलिए बदल गई आंदोलन की दिशा
जहां तक उनके आंदोलन के कामयाब होते-होते बिखर जाने का सवाल है, बाबा सरकार से नब्बे प्रतिशत मांगों पर सहमति हासिल करने और अनशन समाप्त करने का लिखित आश्वासन देने के बाद भी अज्ञात कारणों से डटे रहे। खुद उन्होंने ही घोषणा कर दी कि दूसरे दिन बड़ी तादात में उनके समर्थक अनशन स्थल पर आएंगे। ऐसे में सरकार उनकी मंशा के प्रति आशंकित हो गई और मात्र योग कराने की अनुमति होने और समर्थकों की अधिकतम संख्या पांच हजार होने की शर्त का बहाना बना कर पुलिस कार्यवाही कर बैठी। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सरकार ने आखिर किस वजह से जानते-बूझते हुए भी दमन का रास्ता अख्तियार कर लिया।
और इस प्रकार घटा ली अपनी प्रतिष्ठा
बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचलने की सर्वत्र भत्सर्ना हो रही है, लेकिन साथ ही बाबा की कुछ त्रुटियां भी चर्चा में हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोते दिखाई दिए तो दूसरी ओर खुद महिलाओं के कपड़े पहन कर दो घंटे तक अनशन परिसर में दुबके रहे। इतना ही नहीं वहां से भागने का प्रयास भी किया। इसमें भी चतुराईपूर्ण दंभ प्रकट किया। इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से कर बैठे। एक ओर सरकार की तानाशाही के लिए सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते रहे तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से सरकार को माफ भी कर दिया। कैसी विडंबना रही एक ओर तो अत्याचार को लेकर पूरा देश आक्रोश में रहा, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। बाबा को अन्ना हजारे से तुलना करके भी देखा जा रहा है कि वे कई बार बड़बोलापन कर जाते हैं, जबकि अन्ना संयत हो कर तर्कपूर्ण बात करते हैं। उनकी कुछ मांगों ने भी लोगों को यह चर्चा करने का मौका दे दिया कि उन्हें कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की पूरी समझ नहीं है और बाल हठ करते हुए आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा देने, बड़े नोट समाप्त करने, तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगों पर अड़ रहे हैं।
कुल जमा एक पवित्र मकसद के लिए कामयाबी के निकट पहुंचा आंदोलन फिस्स हो गया। इसकी प्रमुख वजह की ओर अन्ना का ये इशारा कुछ समझ में आता है कि वे भले ही शीर्षस्थ योग गुरू हैं, मगर उनमें आंदोलन चलाने की राजनीतिक व कूटनीतिक समझ नहीं है।
-गिरधर तेजवानी

16.6.11

मुंबई बना पत्रकारो की मोट की गाहा ?

मुंबई के पत्रकार जेडे की निर्मम हत्या के कारणों को लेकर कयासों और अटकलों का दौर जारी है. मुंबई पुलिस कई एंगल से हत्याकांड की जांच कर रही है. हत्याकांड में अंडरवर्ल्‍ड का नाम भी सामने आ रहा है, लेकिन ये पहला मामला नहीं है जब किसी खबर को लेकर मुंबई के किसी क्राईम रिपोर्टर को निशाना बनाया गया हो. इससे पहले भी पत्रकार अपनी ख़बरों के कारण माफिया का निशाना बनते रहे हैं. मुंबई के जाबांज पत्रकार जेडे अब हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन इस जाबांज पत्रकार की निर्मम हत्या से एक बार फिर से मुंबई में क्राईम रिपोर्टर्स यानी की अपराध जगत की ख़बरें देने वाले पत्रकारों की सुरक्षा पर सवाल खड़े हो गए हैं, लेकिन ये पहला मामला नहीं है जब मुंबई में किसी पत्रकार को माफिया ने अपना निशाना बनाया हो.

जब कभी भी अंडरवर्ल्‍ड को पत्रकारों की लेखनी से आर्थिक या किसी दूसरे तरह का नुकसान होता है, अंडरवर्ल्‍ड के लोग पत्रकार को अपनी गोलियों का निशाना बना देते हैं. एक ऐसे ही खुश किस्मत पत्रकार हैं बलजीत परमार, जिन्हें अपनी एक खबर के कारण छोटा राजन के लोगों ने गोलियों का निशाना बनाया था. बलजीत उन घटनाओं को याद कर आज भी सहम उठते हैं. बलजीत के अनुसार उन्होंने तब छोटा राजन गिरोह और कस्टम के बीच जारी एक गोरखधंधे को उजागर किया था, जिसके कारण उस समय छोटा राजन को 52 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था. जिससे नाराज छोटा राजन के लोगों ने इन पर फायरिंग कराई थी, लेकिन ये बाल-बाल बच गए थे. मतलब साफ़ है जेडे की हत्या के पहले भी अंडरवर्ल्‍ड के लोग पत्रकारों को अपना निशाना बनाते रहें हैं.

अस्‍सी और नब्‍बे के दशक में मुंबई में जब अंडरवर्ल्‍ड की गतिविधियाँ तेज थी, तब उस समय अंडरवर्ल्‍ड ने कई पत्रकारों को अपनी गोलियों का निशाना बनाया. चाहे वो स्वतंत्र पत्रकार इकबाल नाटीक हों, जिन्हें 1982 में सरेआम क़त्ल कर दिया गया था. हालांकि नाटीक को पुलिस और माफिया की खुफिया गिरि करने के कारण मारा गया था. इसके बाद 1984 में उल्हासनगर में पत्रकार केए नारायण को पप्पू कालानी और गोपाल राजवाणी के लोगों ने गोली मार दी थी. इसमें कोई दो राय नहीं की अपराध जगत की खबरें देने वाले पत्रकार अपनी जान हथेली पर रखकर अपना दायित्व निभाते हैं. ऐसे में जहाँ सरकार को ऐसे पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिय वहीं पत्रकारों को भी चाहिए की वो एक सीमा में रहकर और चौकन्ने रहकर अपराध जगत की खबरें लोगो और प्रशासन तक पहुचाएं.


8.6.11

संवैधानिक अधिकार की आड़ में बाबा के कुकृत्यों पर पर्दा डालना भी आत्मघाती कदम से कम नहीं होगा - Sarita Argare


दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई महाभारत के बाद पूरे देश में घमासान मच गया है। रामदेव के मुद्दे ने राष्ट्रीय राजनीति में मृतप्राय हो चली बीजेपी के लिये संजीवनी बूटी का काम किया है। चारों तरफ़ रामदेव के हाईटेक और पाँचसितारा सत्याग्रह पर हुए पुलिसिया ताँडव की बर्बरता पर हाहाकार मचा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध प्रदर्शन के ज़रिये अपनी बात सरकार तक पहुँचाने वालों का दमन किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, लेकिन संवैधानिक अधिकार की आड़ में बाबा के कुकृत्यों पर पर्दा डालना भी आत्मघाती कदम से कम नहीं होगा। मीडिया बाबा को हठयोगी, महायोगी और ना जाने कौन-कौन सी पदवी से नवाज़ रहा है, मगर हाल के दिनों की उनकी करतूतें रामदेव को "शठ योगी" ही ठहराती हैं।
बीती बातों को बिसार कर बाबाजी के हाल के दिनों के आचरण पर ही बारीकी से नज़र डालें,तो रामदेव के योग की हकीकत पर कुछ भी कहने- सुनने को बाकी नहीं रह जाता । योग का सतत अभ्यास सांसारिक  उलझनों में फ़ँसे लोगों के मन, वचन और कर्म की शुद्धि कर देता है, तो फ़िर संसार त्याग चुके संन्यासियों की बात ही कुछ और है। अष्टांग योग सिखाने का दावा करने वाले बाबाजी अगर यौगिक क्रियाओं का एक अंग भी अँगीकार कर लेते तो शायद सब पर उपकार करते। मगर रामदेव के आचरण और वाणी में यम, नियम, तप, जप, योग, ध्यान, समाधि और न्यास का कोई भी भग्नावशेष दिखाई नहीं दिये। योगी कभी दोगला या झूठा नहीं हो सकता मगर बाबा बड़ी सफ़ाई से अपने भक्तों और देश के लोगों को बरगलाते रहे। बाबा जब सरकार से डील कर ही चुके थे, तो फ़िर इतनी सफ़ाई से मीडिया के ज़रिये पूरे देश को बेवकूफ़ बनाने की क्या ज़रुरत थी? वास्तव में बाबा का काले धन के मुद्दे से कोई सरोकार है ही नहीं। अचानक हाथ आये पैसे और प्रसिद्धि से बौराए बाबाजी को अब पॉवर हासिल करने की उतावली है। इसीलिये एक्शन-इमोशन-सस्पेंस से भरा मेलोड्रामा टीआरपी की भूखे मीडिया को नित नये अँदाज़ में हर रोज़ परोस रहे हैं।

पँडाल में मनोज तिवारी देश भक्ति के गीतों से लोगों में जोश भर रहे थे और बाबाजी भी उनके सुर में सुर मिलाकर अलाप रहे थे "मेरा रंग दे बसंती चोला" और " सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है " लेकिन जब पुलिस पकडने आई, तो आधुनिक युग के भगत सिंग मंच पर गुंडों की तरह इधर-उधर भागते दिखाई दिए। ऎसे ही सरफ़रोश थे, तो गिरफ़्तारी से बचने के लिये समर्थकों को अपनी हिफ़ाज़त के लिये घेरा बनाने को क्यों कह रहे थे ? सत्याग्रह जारी रखने की "भीष्म प्रतिज्ञा" लेने वाले रामदेव इतने खोखले कैसे साबित को गये कि पुलिस की पहुँच से बचने के लिये महिलाओं की ओट में जा छिपे।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने बाबाजी को नये दौर का स्वामी विवेकानंद ठहराया है। मगर सवाल यह भी है कि बसंती चोला रंगाने की चाहत रखने वाले बाबाजी ने गेरुआ त्याग सफ़ेद सलवार क्यों पहना? मुसीबत के वक्त ही व्यक्तित्व की सही पहचान होती है। मगर बाबाजी की शख्सियत में ना धीरता दिखी और ना ही गंभीरता। देश का नेतृत्व करने की चाहत रखने वाला बाबा खाकी के रौब से इतना खौफ़ज़दा हो गया कि अपने समर्थकों को मुसीबत में छोड़कर भेस बदलकर दुम दबाकर भाग निकला। ऎसे ही आँदोलनकारी थे, देशभक्त थे, क्राँतिकारी थे, तो मँच से शान से अपनी गिरफ़्तारी देते और भगतसिंग की तरह "रंग दे बसंती" का नारा बुलंद करते। बाबाजी अब तो आप जान ही गये होंगे कि जोश भरे फ़िल्मी गीतों पर एक्टिंग करना और हकीकत में देश के लिये जान की बाज़ी लगाने में ज़मीन-आसमान का फ़र्क होता है। आँदोलन के अगुवाई के लिये पुलिस का घेरा तोड़ने की गरज से भेस बदलने के किस्से तो खुब देखे-सुने थे,मगर "आज़ादी की दूसरी लड़ाई" के स्वयंभू क्राँतिकारी का यह रणछोड़ अँदाज़ बेहद हास्यास्पद है। गनीमत है ऎसे फ़िल्मी केरेक्टर स्वाधीनता सँग्राम के दौर में पैदा नहीं हुए।

केन्द्र सरकार और कुछ राज्य सरकारों के स्वार्थ के चलते देश में रामदेव जैसे तमाम फ़र्ज़ी बाबाओं की पौ बारह है। सरकारें अपने राजनीतिक हित साधने के लिये इन बाबाओं आगे बढ़ाती हैं, जिसका खमियाज़ादेश की भोलीभाली जनता को उठाना पड़ता है। मीडिया की साँठगाँठ भी इस साज़िश में बराबर की हिस्सेदार है। बाबा के अनर्गल प्रलाप का पिछले चर दिनों से लाइव कवरेज दिखाने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में क्या सारे बिकाऊ या अधकचरे लोग भरे पड़े हैं,जो बाबा के चेहरे से टपकी धूर्तता को देखकर भी देख नहीं पा रहे हैं। सजीव तस्वीरें कभी झूठ नहीं बोलतीं। उस रात मंच पर कुर्सियाँ फ़ाँदते, भीड़ में छलाँग लगाते, शाम से लोगों को मरने-मारने के लिये उकसाते और पुलिस से बचने के लिये महिलाओं की आड़ लेने का पेशेवराना तरीका कुछ और ही कह रहा है। आज तो बाबा ने हद ही कर दी। प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान उन्होंने किसी की वल्दियत तक पर सवाल खड़ा कर दिया। जिस अँदाज़ में उन्होंने इस वाक्यांश का इस्तेमाल किया, वह हरियाण, पंजाब, राजस्थान के हिस्सों में अपमानजनक समझा जाता है। ऎसे ही एक चैनल पर पँडाल में बाबा के विश्राम के लिये बनाये गये कक्ष में अत्याधुनिक साज-सज्जा और डनलप का गद्दा देखकर आँखें फ़टी रह गईं। हमने तो सुना था कि योगियों का आधुनिक सुख-सुविधाओं से कोई वास्ता नहीं होता।
मूल सवाल वही है कि जिसका वाणी पर संयम नहीं,जिसके विचार स्थिर और शुध्द नहीं, जिसके मन से लोभ-लालच नहीं गया, जिसमें भोग विलास की लिप्सा बाकी है,जिसके आचरण में क्रूरता, कुटिलता और धूर्तता भरी पड़ी हो वो क्या वो योगी हो सकता है? खास तौर से जो शख्स करीब तीस सालों से भी ज़्यादा वक्त से लगातार योगाभ्यास का दावा कर रहा हो और अपने योग के ज़रिये देश को स्वस्थ बनाने का दम भरता हो, उसका इतना गैरज़िम्मेदाराना बर्ताव उसकी ठग प्रवृत्ति की गवाही देने के लिये पर्याप्त हैं। ये मुद्दे भी  आम जनता के सामने लाने की ज़रुरत है। बाबाजी ने तीन दिनों के घटनाक्रम के दौरान खुद ही आम जनता और मीडिया को अपने छिपे हुए रुप या यूँ कहें कि असली रुप की झलक बारंबार दी है। बाबाजी तो अपना नकाब उतार चुके अब यदि लोग हकीकत को देखकर भी नज़र अँदाज़ कर दें तो ये लोगों की निगाहों का ही कसूर होगा।
साभार विस्फोट.कॉम : http://visfot.com/home/index.php/permalink/4394.html?print

क्या बाबा रामदेव खुद को भी माफ कर पाएंगे?

आज जब कि बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है, जो कि उचित ही प्रतीत होता है, खासकर के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के लिए तो बेहद जरूरी, मगर ऐसे में अनेक ऐसी बातें दफन हो गई हैं, जिन पर भी विचार की जरूरत महसूस करता हूं।
असल में हुआ ये है कि पुलिस की कार्यवाही इतनी ज्यादा हाईलाइट हुई है, मीडिया द्वारा की गई है, कि इस पूरे मसले से जुड़े अनेक तथ्य सायास हाशिये पर डाल दिए गए हैं। अगर किसी को समझ में आ भी रहे हैं तो केवल इसी कारण नहीं बोल रहा कि कहीं उसकी बात वक्त की धारा के खिलाफ न मान ली जाए। कि कहीं उसे कांग्रेसी विचारधारा न मान लिया जाए। कि उसे आज के सबसे अहम और जरूरी भ्रष्टाचार के मुद्दे का विरोधी न मान लिया जाए।
हालांकि मैं जानता हूं कि इस लेख में जो सवाल खड़े करूंगा, उनसे बाबा रामदेव के भक्तों और हिंदूवादियों को भारी तकलीफ हो सकती, मगर सत्य का दूसरा चेहरा भी देखना जरूरी है। चूंकि बाबा रामदेव का आंदोलन एक पवित्र उद्देश्य के लिए है, चूंकि वे एक संन्यासी हैं, चूंकि उन्होंने हमारे लिए आदरणीय भगवा वस्त्र पहन रखे हैं, चूंकि उनका कोई स्वार्थ नहीं है, इस कारण उनकी ओर से की गई सारी हरकतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
वस्तुत: जब ये सवाल उठा कि बाबा को केवल अपने योग पर ही ध्यान देना चाहिए और राजनीति के पचड़े में नहीं पडऩा चाहिए, यह तर्क दे कर उसे नकारा गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना ठीक नहीं है। बात ठीक भी लगती है, मगर जो बाबा एक बार सारी राजनीतिक पार्टियों को गाली बक कर अपनी नई पार्टी बनाने की घोषणा कर चुके हैं, तो उन्हें भी उसी प्रकार आलोचना के लिए तैयार रहना होगा, जैसे ही अन्य राजनेता सहज सहन करते हैं। मगर दिखाई ये दिया कि उनके भक्त अथवा कुछ और लोग भगवा के सुरक्षा कवच पर प्रहार बर्दाश्त नहीं कर पा रहे।
चलो, बाबा की एक ताजा तरीन हरकत से बात शुरू करते हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोने का नाटक करते हैं और पुलिस की बजाय उसे संचालित करने वाली सरकार और यहां तक सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते हैं तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से माफ भी कर देते हैं। अव्वल तो उनसे माफी मांगी ही किसने जो उन्होंने माफ कर दिया। उन्हें ये गलतफहमी कैसे हो गई कि वे सरकार से भी ऊंचे हैं। कैसी विडंबना है कि एक ओर तो उनके समर्थकों पर अत्याचार को लेकर भाजपा सहित पूरा देश आक्रोश में है, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। यानि मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त। यानि उनका साथ देने वाले बेवकूफ हैं। इससे तो यह साबित होता है कि उनका कोई स्टैंड ही नहीं है। वे पल-पल बदलते हैं। एक ओर लोगों को योग के जरिए चित्त वृत्ति निरोध: का उपदेश देते हैं तो दूसरी ओर अपना चित्त ही स्थिर नहीं रख पा रहे। स्थिर रखना तो दूर, वैसे ही उद्वेलित होते हैं, जैसे आम आदमी होता है। जरा तुलना करके देखिए बाबा और अन्ना की भाषा का। आप देख सकते हैं लगातार टीवी चैनलों के केमरों से घिरे बाबा का। देशभक्ति के नाम पर जो मन में आ रहा है, बक रहे हैं, जबकि अन्ना हजारे ठंडे दिमाग से तर्कपूर्ण बात करते दिखाई देते हैं। बाबा देशभक्ति के नाम पर उत्तेजना फैला कर अपने आपको जबरन 120 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि बताते हैं। इससे तो यही साबित होता है कि दंभ से भरे हुए बाबा योगाचार्य नहीं, बल्कि मात्र योगासनाचार्य और आयुर्वेदाचार्य हैं। व्यवहार से वे अपरिपक्व भी नजर आते हैं। दूसरी ओर गांधीवादी अन्ना खुद तो परिपक्व हैं ही, उनके साथी भी तार्किक और बुद्धिमान।
खैर, सवाल ये है कि सरकार को माफ करने वाले बाबा क्या खुद को कभी माफ कर पाएंगे? बेशक सरकार ने जो तरीका अपनाया, वह दुर्भाग्यपूर्ण था, मगर बाबा ने जो हरकतें कीं, वे उनके समर्थकों के लिए एक सदमे से कम नहीं हैं। चूंकि वे अपने भक्तों के लिए भगवान तुल्य हैं, इस कारण उनकी आलोचना करने में जरा हिचक होती है, मगर प्रश्न ये है कि अनशन और सत्याग्रह के नाम पर हजारों समर्थकों को एकत्रित करने वाले बाबा मौत से इतना घबरा गए कि खुद औरतों के कपड़े पहन कर महिलाओं के बीच दो घंटे तक दुबक कर बैठे रहे। इतना ही नहीं मौका पा कर भागने की भी कोशिश की। कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि महिलाओं के पिटने पर रोने का नाटक करने वाले बाबा खुद महिलाओं पिटता देख दुबके रहे। खुद की सुरक्षा की इतनी चिंता कि स्वयं उन्होंने महिलाओं से अपील की कि वे उनके चारों ओर सुरक्षा घेरा बना लें। ऐसा करके उन्होंने अपने आपको शिखंडी तक साबित कर दिया।
असल में अनशन का अर्थ होता ही ये है कि व्यक्ति अपने उद्देश्य के प्रति इतना अडिग है कि मौत को भी गले लगाने को तैयार है। तो फिर वे मौत से इतना जल्दी कैसे घबरा गए? ऐसे में उनका सत्याग्रह दो कौड़ी का साबित हो गया। मजे की बात देखिए कि इस पर वे कितना बचकाना जवाब देते हैं कि वे देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की रक्षा करने को मजबूर थे। जरा दंभ देखिए कि इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से करते हैं, जबकि वे उनके चरणों की धूल भी नहीं हैं। एक बिंदु ये भी है कि वे ये आरोप लगा रहे हैं कि उनको मार देने का षड्यंत्र था। एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह आरोप कितना थोथा है।
चलते रस्ते एक बात और भी कर लें। अनशन स्थल पर अचानक धारा 144 लागू करने और पांडाल में आंसू गैस छोडऩे की कानूनी विवेचना करने वाले ये भूल जाते हैं कि बाबा को योग करने के लिए अनुमति दी गई थी, वो भी अधिकतम पांच हजार लोगों के लिए, मगर वे वहां अनशन और आंदोलन पर उतारू हो गए और साथ ही हजारों लोगों को एकत्रित कर लिया। यदि पुलिस कानून-कायदों को ताक पर रख कर अत्याचार करने पर आलोचना की पात्र है तो बाबा भी कानून को धोखा देने पर निंदा के पात्र होने चाहिए। मगर नहीं, चूंकि वे एक पवित्र उद्देश्य के लिए ऐसा कर रहे थे, इस कारण इस बारे में चर्चा मात्र को पसंद नहीं किया जा रहा। पुलिस अत्याचार पर कानून की दुहाई देने वाले बाबा पुलिस अधिकारी की फीत उतारने वाली महिलाओं को बहादुर बता कर कौन से कानून की हिमायत कर रहे हैं? और अगर महिलाओं तक ने ये हरकत की है तो पुलिस ने भी ठोक दिया तो क्या गलत कर दिया। और सबसे अहम सवाल ये कि क्या योग के नाम पर जमा लोगों को तो पता नहीं था कि वे आंदोलन करने को जुटे हैं, वहां कोई लड्डू थोड़े ही बंटने वाले हैं।
एक उल्लेखनीय बात देखिए, सोते हुए लोगों, बेचारी महिलाओं पर अत्याचार की बात चिल्ला-चिल्ला कर कहने वाले ये तर्क देते हैं कि उन निहत्थे और निरीह लोगों से क्या खतरा था, मगर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि क्या भीड़ का भी कोई धर्म होता है? उनके पास इस बात का जवाब है क्या कि बाबा ने दूसरे दिन और ज्यादा लोगों को निमंत्रित क्यों किया था? और कानून-व्यवस्था बिगड़ती तो कौन जिम्मेदार होता? क्या इस बात को भुला दिया जाए कि जिस विचारधारा वालों का समर्थन हासिल कर आंदोलन को बाबा आगे बढ़ा रहे हैं, उन्होंने बाबरी मस्जिद मामले में सरकार और कोर्ट को आश्वस्त किया था, मगर फिर भी बाबरी मस्जिद तोड़ दी। और मजे की बात ये है कि यह कह कर अपना पल्लू झाड़ लिया कि उन्होंने कुछ नहीं किया, भीड़ बेकाबू हो गई थी। सवाल ये उठता है कि उसी किस्म के लोग जब ज्यादा तादात में वहां जमा होते और कुछ कर बैठते तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होता? बाबा तो कह देते कि उन्होंने कुछ नहीं किया, भीड़ बेकाबू हो गई थी। और ये सच भी है कि भीड़ जुटा लेना तो आसान है, पर उस पर नियंत्रण खुद उनके नेताओं का नहीं रह पाता है।
एक अहम बात और। शुरू से उन पर ये आरोप लग रहा था कि वे आरएसएस व भाजपा की कठपुतली हैं तो वे क्यों कर अपने आपको निष्पक्ष बताते हुए कांग्रेस सहित सभी पार्टियों को समान बता रहेे थे? मुद्दे को समर्थन देने के नाम पर आगे आई भाजपा को यह कह समर्थन लेने से क्यों इंकार नहीं किया कि उनका आंदोलन दूषित हो जाएगा? आंदोलन के पहले ही दिन उन्होंने किसी वक्त देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाले साध्वी ऋतम्भरा को पास में कैसे बैठा लिया? ऐसे में आंदोलन का दूसरा दिन किस ओर जाने वाला था, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यदि उनमें जरा भी निष्पक्षता होती तो भाजपा को उनके मामले न पडऩे की कहते। जब पूरे देश के कुल गांवों की संख्या गिना कर वहां अपने समर्थक होने का दंभ भरते हैं तो उन्हीं के भरोसे रह लेते। लोग अभी नहीं भूले हैं अन्ना के अनशन वाली बात, जिसमें साध्वी उमा भारती व अन्य नेताओं को अन्ना के समर्थकों ने ही खदेड़ दिया था। यही फर्क है बाबा व अन्ना में।
 अब जरा बात कर लें बाबा की मांगों की। उनकी अधिकतर मांगें, ऐसी हैं जो जाहिर करती हैं कि बाबा को कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की कितनी समझ है। वे मांग कर रहे हैं कि आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा दो, अब बाबा को कौन समझाए कि दुनिया में हिंसा करने वालों तक को फांसी की सजा नहीं दिए जाने पर चर्चा हो रही है और वे ऐसी बचकानी मांग कर रहे हैं। फिर बड़े नोट समाप्त करने की मांग भी ऐसी ही बाल हठ जैसी है। ये तो अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं कि यह संभव और व्यावहारिक भी है या नहीं। सीधे प्रधानमंत्री का चुनाव और तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगें भी हवाई ही हैं। रहा सवाल विदेशी बैंकों में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने का तो भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर आंदोलन करने वाले अन्ना हजारे और उसके विधि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि यह आसान नहीं है और इसमें काफी वक्त लगेगा। चाहे सरकार कांग्रेस की हो या किसी और की, क्या उसमें इतनी ताकत है कि इसका आदेश एक पंक्ति में जारी कर दे?
सवाल ये उठता है कि जब आपको कुछ समझ ही नहीं है तो आप क्यों कर योग सीखने आए अथवा अपना इलाज करवाले आए लोगों को बेवकूफ बना कर फोकट नारे लगवा कर आंदोलित कर रहे हैं। खुद को गांधी के बराबर कहलवाने को आतुर बाबा को पता भी है कि गांधी जी गाधी जी कितना पढ़े थे, कितने योग्य थे, उनके प्रशंसक किस श्रेणी के लोग थे? भला कौन बाबा को समझाएगा कि भले ही आपको राजनीति करने का अधिकार है, मगर उसके लिए आपको विश्व की राजनीतिक स्थिति, वैदेशिक नियम और परस्पर संधियों, प्रोटोकोल आदि को समझना होगा। चलो ये मान भी लिया जाए कि आपको भले ही जानकारी नहीं है, मगर आपका उद्देश्य तो पवित्र है, तो क्या वजह है कि इसी मुद्दे पर संघर्ष कर रहे अन्ना हजारे में मंच पर नाच कर नौटंकी करने के बाद भी आप उनसे अलग ढपली बजाने लग गए। इतना ही आपने तो सिविल सोसायटी की हवा निकालने तक की बचकाना हरकत भी की।
आखिर में एक बात और। बाबा रामदेव ने भगवा कपड़े में राजनीति करके भले ही अपने संवैधानिक अधिकार का उपयोग किया हो, मगर असल में उन्होंने इन्हीं भगवा कपड़ों को कलंकित करने की कोशिश की है। बाबा की हरकतों के बाद अब कोई सच्चा योग गुरु भी शक की नजर से देखा जाएगा।
अब जरा बाबा के प्रमुख सहयोगी आचार्य बालकृष्ण की भी थोड़ी चर्चा कर ली जाए। एक ओर बाबा कह रहे थे कि बालकृष्ण किसी मिशन पर हैं, इस कारण सामने नहीं आ रहे, जबकि बाद में स्वयं बालकृष्ण ने सामने आने पर फूट-फूट कर रोते हुए बताया कि वे गिरफ्तारी के डर से बचने के लिए भटक  रहे थे। कैसा बहादुर सेनापति रखा है बाबा ने। देश भक्ति और देश को विश्व गुरू बनाने की मुहिम में जुटे बाबा व उनके सहयोगी की ये कैसी बहादुरी है कि गिरफ्तारी मात्र से घबरा रहे हैं। फूट-फूट कर रो रहे सो अलग। कहते हैं कि मैने तो सुना मात्र था कि पुलिस बर्बरता करती है, लेकिन देखा पहली बार। हो लिया ऐसे रोवणे देशभक्तों के रहते देश का कल्याण।
मैं यहां साफ कर देना चाहता हूं कि मैंने केवल तस्वीर के दूसरे रुख को ही प्रस्तुत किया है। एक रुख पर तो भेड़ चाल की तरह खूब चर्चा हो रही है। समझदार व नासमझ, सभी एक ही सुर में बोल रहे हैं। इसका मतलब ये कत्तई नहीं निकाला जाना चाहिए कि पहले रुख से मेरा कोई सरोकार नहीं है या फिर मैं देशभक्ति, भ्रष्टाचार आदि विषयों पर बाबा व अन्ना से इतर राय रखता हूं। यद्यपि तस्वीर का दूसरा रुख तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की है, पर मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि दिमाग से नहीं बल्कि केवल दिल से हर बात को देखने वालों को ये बातें गले नहीं उतरेंगी। उलटे गुस्सा भी आ सकता है। मैं उन सभी से माफी मांगते हुए उम्मीद करता हूं कि इस लेख को दुबारा तार्किक बुद्धि से पढ़ेंगे। इसके बाद भी लानत देते हैं तो मुझे वह स्वीकार है।
-तेजवानी गिरधर
 

7.6.11

आखिर उमा को थूक कर चाट ही लिया भाजपा ने

सिद्धांतों की दुहाई दे कर पार्टी विथ दि डिफ्रेंस का तमगा लगाए हुए भाजपा समझौता दर समझौता करने को मजबूर है। पहले उसने पार्टी की विचारधारा को धत्ता बताने वाले जसवंत सिंह व राम जेठमलानी को छिटक कर गले लगाया, कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा व राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की बगावत के आगे घुटने टेके और अब उमा भारती को थूक कर चाट लिया। असल में उन्हें पार्टी में वापस लाने के लिए तकरीबन छह माह से पार्टी के शीर्षस्थ नेता लाल कृष्ण आडवानी कोशिश कर रहे थे।
हालांकि राजनीति में न कोई पक्का दोस्त होता और न ही कोई पक्का दुश्मन। परिस्थितियों के अनुसार समीकरण बदलने ही होते हैं। मगर भाजपा इस मामले में शुरू से सिद्धांतों की दुहाई देते हुए अन्य पार्टियों से कुछ अलग कहलाने की खातिर सख्त रुख रखती आई है, मगर जब से भाजपा की कमान नितिन गडकरी को सौंपी गई है, उसे ऐसे-ऐसे समझौते करने पड़े हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। असल में जब से अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी कुछ कमजोर हुए हैं, पार्टी में अनेक क्षत्रप उभर कर आ गए हैं, दूसरी पंक्ति के कई नेता भावी प्रधानमंत्री के रूप में दावेदारी करने लगे हैं। और सभी के बीच तालमेल बैठाना गडकरी के लिए मुश्किल हो गया है। हालत ये हो गई कि उन्हें ऐसे नेताओं के आगे भी घुटने टेकने पड़ रहे हैं, जिनके कृत्य पार्टी की नीति व मर्यादा के सर्वथा विपरीत रहे हैं।
लोग अभी उस घटना को नहीं भूले होंगे कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखाने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया गया था। कितने अफसोस की बात है कि अपने आपको सर्वाधिक राष्ट्रवादी पार्टी बताने वाली भाजपा को ही हिंदुस्तान को मजहब के नाम पर दो फाड़ करने वाले जिन्ना के मुरीद जसवंत सिंह को फिर से अपने पाले में लेना पड़ा। इसी प्रकार वरिष्ठ एडवोकेट राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने के समान है। भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
पार्टी में क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभर आने के कारण पार्टी को लगातार समझौते करने पड़े हैं। राजस्थान में अधिसंख्य भाजपा विधायकों का समर्थन प्राप्त पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सामने आखिरकार भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार नतमस्तक हो ही गया। पहले उन्हें विधानसभा में विपक्ष का नेता पद से हटाने में पार्टी को काफी जोर आया। उन्हें राष्ट्रीय महामंत्री बना कर संतुष्ट किया गया, मगर उन्होंने राजस्थान नहीं छोड़ा। हालत ये हो गई कि संघ ने अपनी पसंद के अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष पद पर तो तैनात कर दिया, मगर पूरी पार्टी वसुंधरा के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। तकरीबन एक साल तक विधानसभा में विपक्ष का नेता पद खाली रहा और आखिरकार पार्टी को वसुंधरा को ही फिर से पुरानी जिम्मेदारी सौंपनी पड़ी। उसमें भी हालत ये हो गई कि वे विधानसभा में विपक्ष का नेता दुबारा बनने को तैयार ही नहीं थीं और बड़े नेताओं को उन्हें राजी करने के लिए काफी अनुनय-विनय करना पड़ा। इसे राजस्थान भाजपा में व्यक्ति के पार्टी से ऊपर होने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रदेश भाजपा के इतिहास में वर्षों तक यह बात रेखांकित की जाती रहेगी कि हटाने और दुबारा बनाने, दोनों मामलों में पार्टी को झुकना पड़ा। पार्टी के कोण से इसे थूक कर चाटने वाली हालत की उपमा दी जाए तो गलत नहीं होगा। चाटना क्या, निगलना तक पड़ा।
पार्टी हाईकमान वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाने को यूं ही तैयार नहीं हुआ है। उन्हें कई बार परखा गया है। ये उनकी ताकत का ही प्रमाण है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के मामले में भी पार्टी को दक्षिण में जनाधार खोने के खौफ में उन्हें पद से हटाने का निर्णय वापस लेना पड़ा। असल में उन्होंने तो साफ तौर पर मुख्यमंत्री पद छोडऩे से ही इंकार कर दिया था। उसके आगे गडकरी को सिर झुकाना पड़ गया।
उमा भारती के मामले में भी पार्टी की मजबूरी साफ दिखाई दी। जिन आडवाणी को पहले पितातुल्य मानने वाली मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने उनके ही बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया, वे ही उसे वापस लाने की कोशिश में जुटे हुए दिखाई दिए। पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज करने की नौबत यह साफ जाहिर करती है कि भाजपा सिद्धांतों समझौते करने को लगातार मजबूर होती जा रही है। हालांकि मध्यप्रदेश से दूर रखने के लिए उन्हें उत्तरप्रदेश में काम करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, मगर एक बार पार्टी में लौटने के बाद उन्हें धीरे-धीरे मध्यप्रदेश में भी घुसपैठ करने से कौन रोक पाएगा।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार