| विधाता को अपनी सृष्टि की रचना करते समय भी, इतना सुख और संतोष नहीं मिला होगा। जब कालिया कुम्हार, अपने बत्तीस आँगळवाले चाक के माथे पर, नरम-नरम महीन गारे का पिण्डा रखकर, अपनी फेरणी से चाक को घुमा कर उसे गति देता था, जब उसका चाक, सृष्टि के चक्र की तरह अबाध गति के साथ अनवरत घूमने लगता था। उसकी हथेलियाँ और अँगुलियाँ उस पर से माट-मटके, बिलोवणे-घडे, बरबे-कुंडे और सिकोरे उतारने लगती थीं। तब वह तन्मय होकर उनको देखता जाता था। माटी के कच्चे बर्तनों की सोंधी-सोंधी सुगंध में खोया हुआ वह ब्रह्मानंद में लीन हो जाता था। रचना का ऐसा अद्भुत आनन्द तो सचमुच विधाता को भी सात सृष्टि में नहीं मिला होगा। कारण भी था इसका। चाँदी का कडा पहने हुए, चाँदी के वरण के नाजुक पाँव, जो कालिये कुम्हार की गारे-माटी को रौंदते-सानते थे, वे विधाता को मयस्सर हीं नहीं थे। बावजूद पहने हुए कोमल गोरे हाथ, जो उस माटी को कूट-पीटकर, गूँथकर, उसके पिण्डे बनाते थे, वे विधाता ने देखे ही नहीं थे। मोह और ममता से भरी आतुर पलकें, जो उन बनते हुए बासण-भांडों में अपना जी उढेलती रहती थीं, उनकी तो, सात कल्पों में भी, विधाता ने कल्पना नहीं की थी। विधाता की ही अपनी बनाई हुई पुतली थी वह। नाक में नथ, गले में मादळिया, कोहनी तक की बाँहों वाली काँचळी, हाथों में लाख की चूडयों का मूठिया, और पाँवों में चाँदी के कडे पहने, गोरी कुम्हारी ब्याह कर आई, उस पल, कालिये कुम्हार को कोठारी में चाँदणा ही चाँदणा हो गया। इतना चाँदणा हो गया कि, उसके घर के छप्पर और दीवारों को लाँघकर, वह आसपास के मुहल्ले-गुवाड में, सारे गाँव में फैल गया। सबकी जबान पर बस एक ही बात थी, ‘कितना बावला है विधाता ! रूप तूठने के लिए उसको काची माटी का यह टापरा ही मिला ? ये गोरी-गोरी कलाइयाँ और फूल जैसे हाथ, गारा और माटी कूटने-पीटने के लिए बना दिये उसने ? और रानियों जैसा यह रूप और चेहरा, आँवे का ताप और तेज धूप सहने के लिए, घड कर धर दिया। गोरी कुम्हारी, सचमुच कालिये का जागा हुआ भाग थी। इन्सान का भाग जागता है, तब उसका दिन उग जाता है। जब दिन उग जाता है तब उसका उजाला भी चारों ओर फैलता ही फैलता है। कालिये कुम्हार के बनाये हुए बर्तनों की माँग सब जगह होने लगी। एक से बढकर एक चीजें बनाता वह। पानी भरने के बडे-बडे भाण्डे, माट और गागर, हांडी, मटके, धडे और बिलोवणे, कलसे-कुण्डे, झारी और कुंजे, घी-तेल, अचार रखने की बरणी और इमरतबाण, दीये-धूपिये और चिलम यहाँ तक कि ईंटें और खपरैल तकायत वह बनाने लगा। दुनिया-संसार की सारी चीजों को बनाकर कालिया और गोरी ऐसे निहाल हो जाते, जैसे प्रजापति अपनी सृष्टि को बनाकर हुए। आवे में आँच लगाने के पहले गोरी भट्टी की पूजा करती। बर्तन पकने के बाद जब उसको खोला जाता, तो उसमें से एक-एक बर्तन सही, बिना टूटे या तडके हुए निकलता। चिकना, चमकदार, सुर्ख और रंगीन। गोरी को कभी टूटे-भाँजे बर्तनों को काम में नहीं लेना पडा। कुम्हार भांडे में राँधता है, यह कहावत झूठी हुई उसकी झोंपडी में। इतना ही नहीं, सीयाले में खोद कर लाई गई गार के उसके माट-मटकों की माँग तो रावले तक में होने लगी। उनमें पानी ठंडा रहता था और उन पर बनाए गए गोरी के हाथों के फूल-पत्तियों के चितराम, उनको अनोखी अद्भुत सुन्दरता दे देते थे। रावले में, राणी जी के पास, इसी बहाने गोरी का आना-जाना हो गया। राणी जी गोरी को अपने पास बैठाकर उससे दो बातें भी करने लगीं। सूरज भगवान की पूजा और अर्चना से गोरी का दिन शुरू होता, वह माटी और चाक के बीच, कब बीत जाता, पता नहीं चलता। रात को थके-हारे दो गरीब प्राणी, जब एक दूसरे का सुख-दुख ओढ-बिछा कर सोते तब उनके भाग्य पर विधाता को भी जलन होने लगती थी। दिन पंख लगाकर उडते रहे। मौसम बदलते रहे। रुत आती और चली जाती। कालिये कुम्हार की गाय ब्याही, पास-पडोस के घरों में, लरडी और छाळी भी ब्याह गई। गली-मोहल्ले में, छोटे-छोटे कुत्ते-बिल्ली के बच्चे, धमा-चौकडी मचाते घूमने लगे। यहाँ तक कि, इधर-उधर के चार घरों में, उछल कूद मचाने वाली चुहिया का मन भी कालिये की झोंपडी में ऐसा रमा, कि उसने भी एक साथ पाँच-पाँच बच्चों को जण दिया। एक नहीं जणां तो, विधाता की बनाई, माटी की पुतली, कालिये कुम्हार की बहू गोरी ने कुछ नहीं जणां। अणघड माट और अणघड मिनख, दोनों का कोई मोल नहीं होता है, मगर जिसकी घडाई में ही कोई कसर या खोट रह गया हो तो उसके दुर्भाग्य का कोई अंत ही नहीं होता है, क्योंकि वह न तो माट रहता है, न माटी। गोरी घूँघट में आँखें गीलीं करती रहती और मन ही मन साँवलिये सरदार से विनती करती कि, चार हाथ पाँव का मिनख माणस न सही, दो आँगल का चूसा सा ही दे दो, जिससे इस कोख का कलंक तो मिटे, आँचल चूंघाने की साध तो पूरी हो। मगर जब भगवान किसी की नहीं सुनना चाहता है, तब वह भी बहरा बन जाता है। कालिया गोरी का मन खुश रखने का भरसक प्रयत्न करता। समझाता, बहलाता उसको, किस्से और बातें सुनाता, ‘देख यह माटी है ना, यह कुम्हार की बेटी होती है, कहती है, ‘जब तक मैं कुँवारी थी, तुमने मुझे बहुत मारा, पीटा और कूटा, फिर तूने आंवे की आग की साक्षी में मेरा परणै कर दिया। परणाऐ पीछे अब तू मुझे कूट कर दिखा तब मैं तुझे जानूँ ?’ गोरी सुनकर हँस पडती। परायी, परणाई हुई बेटी की तरफ तो कोई आँख उठा कर नहीं देखता है, छूने की तो दूर रही। गोरी सोचती कि अब तो विधाता भी उसके भाग को छू नहीं सकता है, कहाँ से दुबारा लिख देगा, संतान उसके करम में। जब तक घर के आँगन में चलने-भागने वाले छोटे-छोटे पैर नहीं हो, माँ कहकर बुलाने वाली तोतली आवाज न हो, तब तक घर, घर नहीं होता है। माट-मटके, दूध-दही, छाछ-राबडी, सब बेकार होते हैं, अगर इनको खाने वाले, ढुलाने वाले और तोडने-फोडने वाले, नन्हे हाथ नहीं हो। संतान के बिना नारी का जीवन ही व्यर्थ होता है। दुनिया कुछ नहीं कहती थी, पर गोरी का अपना मन उसको ताने मारता रहता। ‘बाँझ जापा री चीस काँई जाणे ? बाँझ सूंठ रो सवाद कीं जाणे ? बाँझ रा टाबर होवै तो मरै ?’ बाँझ को पता नहीं क्या-क्या सुनना और सहना पडता है। बाँझ का, कोई मुँह भी नहीं देखता चाहता है। एक दिन उसके रूप का पानी भी उतर जाता है। भले ही उसके बच्चे न हों, बूढी तो फिर भी होती ही है बाँझ। सोच-सोच कर, रोती बिसूरती रहती थी गोरी। गोरी का दुःख, पता नहीं कब और कैसे, कालिये को भी लग गया। लगा ही नहीं, उसके मन में भीतर तक पैठ गया। कुम्हार, प्रजापति होता है। सब कुछ बना सकता है फकत एक जीवता-जागता, हँसता- खेलता, रोता-बोलता, पुतला नहीं बना सकता है। उसके बिना सृष्टि में घोर अँधेरा और उदासी छाई रहती है। वह सोचता, ‘कूवां खिणांया बावडी, छोड चल्या परदेश। लाख माट-मटके, गागर और घडे बना ले, एक दिन सब यहीं छूट जावेगा। कालिये का नाम लेने वाला, उसको याद करने वाला कोई नहीं रहेगा।’ यही दुनिया है, यहाँ जो दुःखी हैं वे एक दूसरे को देखकर जी लेते हैं और जो सुखी हैं उनका जीना एक दूसरे को देखकर मुश्किल हो जाता है। एक दिन कालिये ने एक माटी की पुतली बना डाली। बनाकर उसे सुखाया, रंगों से सजाया, छोटे-छोटे कपडे पहनाए, यहाँ तक कि पीतल की बालियाँ, बोर, हार, चूडयाँ और चाँदी के कडे भी पहना दिए उसको। विधाता ने देखा। देखकर, उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। आठ आँखों और चार हाथों से देख-परख कर, जैसा चेहरा-मोहरा, रूप-श्ाृंगार और हाव-भाव नहीं बना सकते थे वे, वैसा इस दो आँखों में, दो हाथों वाले, मामूली से इन्सान, इस अदने से कुम्हार ने बना दिए। कहाँ से लाकर भर दिए इतने सपनों जैसे भाव उस पुतली की नन्ही आँखों की कटोरियों में, समझ नहीं पाये। समझते भी कैसे, वे भाव और वे सपने तो सिर्फ जन्म-जन्मांतर से दुःख और पीडा भोगती हुई, इन्सान की आँखों को ही मिलते हैं। कालिये ने देखा, और विधाता ने भी देखा उस पुतली को। नहीं देखा, तो गोरी कुम्हारी ने नहीं देखा, जो दिन-रात, सवेरे-शाम छाया की तरह कालिये के साथ लगी रहती थी। कब बनाया कालिये ने उस पुतली को, रात में सो जाने के पीछे या दिन में, या रावले में राणी जी के पास जाने के पश्चात्, कुछ भी नहीं जान पाई गोरी। जब गोरी ने देखा उस पुतली को, तो देखकर सन्न रह गई। कालिया उसे छाती से चिपकाए, बैठा था। उससे धीरे-धीरे बातें कर रहा था। हँस रहा था। गोरी को देखकर कालिया भी सन्न रह गया। कुछ नहीं बोला। पुतली को कहीं रख कर, अपने काम में लग गया। दिन भर दोनों अपना काम करते रहे। मतलब की बात से अधिक कोई भी कुछ नहीं बोला। रात को गोरी ने पूछा, ‘‘क्या बात है, चुप क्यों हो ?’’ तब भी कालिये ने जवाब नहीं दिया। सिर्फ इतना कहा, ‘‘कुछ नहीं’’, और पलट कर सो गया। दूसरे दिन, कालिया फिर उसी पुतली को उठा लाया। उसे सामने रखकर काम करता रहा, उससे बातें करता रहा। उसे गोरी की न शंका आई, न शरम। गोरी इधर-उधर घूमती रही, देखती रही। पता नहीं किस-किस का दुःख, किसको छू जाता है। राणी जी को, जितना कुम्हारी का रूप अच्छा लगता था, उसकी बातें भाती थीं, उतना ही दुःख भी सालता था। बांझड हर भाटे-पत्थर को देव मान कर पूजती है। हर साधु-फकीर के पैरों पर माथा टेकती है। राणी जी ने भी कितने ही गंडे-ताबीज करवा कर दिये गोरी को। रावले के पुजारी से पूजा-पाठ जप कराए। कोई अपनी सगी बहन के लिये नहीं करता है, इतना सब किया। कुम्हारी से तो रिश्ता भी क्या था ? महीने-बीस दिन में एक माट-मटका लेने भर का रिश्ता था। कुम्हारी को राणी जी कभी-कभी अपने मन की बात कह दिया करती थी, ‘‘गोरी, इन मरद-माणसों की बात तुम नहीं समझोगी। तुम लोग ठहरे सीधे-सादे गरीब मिनख। धणी एक लुगाई से धापा-धाया रहता है। मरद-माणस की जात औकात देखनी हो, तो हमारे रावलों और महलों में देखो। छप्पन भोग देखकर आदमी का पेट भर जाता है, सब खा नहीं पाता है। हमारे महलों और ठिकानों के शेर, न्हारों तो हाल है कि छप्पन भोग परोसे हों, तब भी इनका जी नहीं भरता है। गंडकों की तरह, गाँव की जूठी हांडियों और थालियों में, मुँह मारते रहते हैं। गरीब की झोंपडी में, लुगाई सारी जन्दगी नई रहती है। महलों और रावलों में, लुगाई एक रात में पुरानी पड जाती है। दोष किसको दें, मरद की जात ही ऐसी होती है। फकर् इतना ही है, कि गरीब अपनी हद में बदफैली करता है, और समरथवान की बदफैली की कोई हद नहीं होती ?’’ सुन कर गोरी सहम गई। उसने पूछा, ‘राणी जी, ऐसा भी कदै होवे है ? मैंने तो सुना है महाराज सा घणे ही भले और सतपुरुष हैं। दिन-रात आफ पीछे डोलते रहते हैं।’’ बोल कर शरमा गई गोरी। राणी जी बोली, ‘‘बावली, चनों में भी काणा चना होता है। मैं, तेरे महाराज सा की बात नहीं कर रही थी। गाँव-दुनिया की, दूसरों की बात कर रही थी। घणकरे राजा-रजवाडे जैसे होते हैं, उनकी बात कर रही थी।’’ गोरी की आँखों से टप-टप आँसू निकल पडे। लुगाई की बाण और सुभाव ऐसा ही होता है। दूसरे की बात चलती है, अपने ऊपर ले बैठती है। बोली, ‘‘राणी सा, मुझे डर है, मेरा कुम्हार भी किसी दूसरी के पीछे पडा है।’’ राणी जी चौंकीं। उनकी नजर गोरी के आँसुओं पर गई, फिर उसके चेहरे की तरफ। तनिक हँस कर बोलीं, ‘‘हट पगली, बैर भर कर लायी गई हो, ऐसा रूप पाया है तुमने। कौन गैला होगा जो तुमको छोड कर दूसरी के पीछे पडेगा।’’ गोरी ने अपनी अपना कलेजा खोल कर रख दिया, बोली, ‘‘राणी जी, आज कल तो वो मेरे तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखता है। दिन भर उससे बातें करता है। उसको साथ रखता है। यहाँ तक कि उसका नाम भी रख दिया, फूलां बाई।’’ सुख-दुःख तो मन का होता है, जोडी होती है, दोनों की। सुख के पीछे दुःख, और दुःख के पीछे सुख, आता रहता है। यहाँ तो एक दुःख के पीछे दूसरा भी दुःख ही आ गया था। मरद का जोबन पान-फूल, मालन का जोवन कुआँ, सुना तो यही था। कालिये का जोबन फूलां हो गई थी और उसका मन हो गया था कुआँ। न जाने कहाँ खोया रहता था। कुआँ, तेरी माँ मरी, क मरी, जी ई, क जी ई। कुएँ जैसा हो गया था बिल्कुल। जैसा, मुँह डालकर कह दो, वैसी प्रतिध्वनि सुनाई पडती। गोरी कहती, ‘‘खाना खा लो’’, तो खा लेता, कहती, ‘‘सो जाओ’’, तो सो जाता। गोरी के मन में आवाँ सा जलता रहता, तरह-तरह के बरतन-भांडे, कच्चे-पक्के, बात-बेबात उसमें दिन-रात पकते रहते। वह सोचती, ‘‘सौत तो चून की भी बुरी होती है, भींत पर मांडी हुई सौत भी बटका भरती है, यहाँ तो पूरे चार हाथ-पाँव की अच्छी-भली चार कपडे और पाँच गहने पहनी-ओढी हुई सौत थी। आँख, कान, नाक, ओंठ सब कुछ थे। ओंठ थे तो दाँत भी जरूर उगे होंगे। बटका काटते कितनी देर लगेगी मालजादी को ?’’ कालिया भी न जाने कैसा सा हो गया था। न पहले जैसी बातें करता था, न हँसी-दिल्लगी। उसकी नजर ही बदल गई थी। आदमी की नजर ही स्त्री की जान होती है। एक नजर देख लेता है, तो स्त्री में जी पड जाता है। नजर उठाकर नहीं देखता है, तो स्त्री बेजान हो जाती है, माटी की पुतली। आदमी की नजर ही उसका मन होती है। राणी जी लाख समझातीं गोरी को, कि माटी की पुतली है, इससे क्या डरना, पर गोरी के समझ में यह बात नहीं आती। कहती, ‘‘राणी जी, देखियेगा, एक दिन विधाता इसमें जरूर जान डाल देगा और विधाता जान डाले या नहीं, इससे भी कुछ नहीं होता है। आदमी का मन जब टूट कर चाहने लगता है तब पत्थर में भी जान पड जाती है। माटी की मूरत भी बोलने लग जाती है। आदमी जब नजर फेर लेता है, तब जीती-जागती स्त्री भी पत्थर की हो जाती है, शिला बन जाती है।’’ गोरी भी जैसे शिला बनती जा रही थी। जिस आवें में बर्तन नहीं पकाने हों, उसमें कुम्हार आँच तक नहीं दिखाता है। कुम्हार का हाथ लगे बिना माट-मटका हो चाहे कुम्हारी, सब माटी का लोंदा बने रहते हैं। दो भाटे एक जगह चुपचाप पडे रह सकते हैं। दो मिनख एक जगह रहते हैं, तो बोले-बतळाए बिना नहीं रह सकते, क्योंकि मिनख का मन, मिनख से बात करके ही भरता-पसीजता है। मिनख रौ मन मिनख सूं बाताँ कर-र पसीजै। कुम्हार का आवाँ नहीं जले, ऐसा भी नहीं होता है। कालिया गारा-माटी लाता, गोरी उसको कूटती, पीटती, हाथों से गूँथ कर उसके पिण्डे बनाती। चाक चलता और उस से माट-मटके, बर्तन-भाण्डे उतरते। सृष्टि का चक्र रुकता हो तो कुम्हार का चाक रुके। एक फरक जरूर पड गया। कालिये को नरम-नरम माटी के पिण्डों में पहले जैसी सोंधी सुगंध नहीं आती थी। वह अपने बर्तनों को पहले की तरह मूंधा होकर निरखता भी नहीं था। गोरी से उसकी बातचीत होने लग गई थी। फूलां उनकी बातचीत के बीच में नहीं आती थी। पर उसका अस्तित्व हर समय छाया रहता था। कभी-कभी कालिया गोरी को अपने साथ थाली पर बैठा कर खिलाता, मगर एक कौर फूलां की तरफ भी जरूर बढा देता था। बिना फूलां को खिलाए, रोटी उसके हलक के नीचे नहीं उतरती थी। कुछ राणी जी का समझाना, कुछ अपनी मजबूरी, गोरी ने जंदगी से समझौता मंजूर कर लिया था। फूलां का वजूद उसको नहीं दुःखता था, कालिये की बातें भी नहीं दुःखती थीं, पर उसके अपने मन के छाले फूटते रहते थे। एक दिन हिम्मत कर पूछ बैठी कालिये से, ‘‘तुमने फूलां को बनाया, मुझे बताया क्यों नहीं ?’’ कालिया बोला, ‘‘मैंने सोचा तू हँसेगी, गुस्सा होगी, डाँटेगी, बनाने नहीं देगी।’’ गोरी बोली, ‘‘तू, इतना चाहता है उसको ?’’ कालिये ने मंजूर किया, ‘‘हाँ।’’ ‘‘मुझसे भी ज्यादा ?’’ गोरी पूछे बिना नहीं रह सकी। कालिया हिचका, फिर बोला, ‘‘बरोबर-बरोबर।’’ गोरी ने आगे कुछ नहीं पूछा। सोचा, ‘‘राणी जी ठीक ही कह रही थी। मरद माणस फतरत से ही नूगरा होता है। औरत लाख जान छिडक दे, अपना सारा कुछ निछावर कर दे उस पर, उसको हिस्सा बाँट करने में जरा भी देर नहीं लगती है। जरा भी कदर नहीं करता है, किसी की।’’ रावळे की रीत, रावळे में ही निभती है। गाँवडे के गीत, गाँवडे में ही गाए जाते हैं। कालिये का चाक चलता रहा और बखत का चाक भी। जिस विधाता को कुम्हार-कुम्हारी की जिंदगी पर रश्क आता था, जलन होती थी और जिसने अपने अदृश्य हाथों से उनके भाग में दुःख ही मांड दिया था, उसको भी, आखिर एक दिन दया आ ही गई। गोरी कुम्हारी उम्मीद से हो गई। गोरी की जिंदगी में बहुत बदलाव आ गया। कोख का कलंक, बाँझपन का अभिशाप, भगवान ने मिटा दिया। घर-आँगन में नन्हे-नन्हे पाँव दौडेंगे, भागेंगे, खुशियों भरी किलकारियाँ गूँजेंगी। उसकी झोंपडी, राणी जी के रावले से भी अधिक, सुखमय और गुलजार हो जाएगी। सब कुछ भुलाकर, उसने कालिये को दिल से माफ कर देने का फैसला कर लिया। कालिया भी गोरी का खूब ख्याल रखने लगा। उसको मेहनत का कोई भी काम नहीं करने देता था और जो भी उसका मन करता वही चीज उसको खाने के लिए लाकर देता था। राणी जी की तो सचमुच ही बहन बन गई थी गोरी। वे उसको तरह-तरह का सामान देतीं, साथ में दुनिया भर की हिदायतें भी। रावले की खास दाई से उन्होंने गोरी के प्रसव और सार-संभाल की सारी बातें तय कर ली थीं। आने वाले छोटे कुम्हार का नाम तक गोरी के कानों में डाल दिया। कहा, ‘‘कोई कालिया, भूरिया नहीं चलेगा। गौरीशंकर, नाम होगा उसका।’’ गोरी मन ही मन निहाल हो गई थी। फिर से मन लगाकर, गोरी गारे-माटी को कूटने, पीटने लगी। कालिया मना करता तो मुस्कुरा देती, कहती ‘‘आदमियों के समझने की बातें नहीं हैं ये सब।’’ कालिये की अँगुलियाँ और हथेलियाँ जब चाक पर घूमतीं तो उसे लगता, वे हाथ और अँगुलियाँ छोटे कुम्हार की हैं, जो इस चाक को चला रहा है। उसका मन चाक के साथ-साथ घूमता रहता। प्रसव का समय समीप आता जा रहा था। गोरी खोए हुए सुख और आने वाले आनन्द में लिपटती जा रही थी। साँवलिये सरदार के घर देर जरूर थी, मगर अँधेर बिल्कुल नहीं था। सोच-सोच कर, वह साँवलिये को हाथ जोडती रहती। एक कारण और था, दिन भर आँखों के सामने पडी, छाती जलाने वाली, फूलां उसको आजकल कहीं दिखलाई नहीं पडती थी। पता नहीं, कालिया कहाँ रखकर, भूल गया था उसको। एक रात, अचानक गोरी की नींद टूट गई। कालिया जाग रहा था। छाती पर पडी हुई फूलां से वह धीरे-धीरे बातें कर रहा था। गोरी को झटका लगा। आश्चर्य और दुःख में नहा गई। कालिये की बातें पूरी तौर से सुनाई नहीं दे रही थी। मगर वह फूलां के साथ बातें, होने वाले बच्चे के विषय में ही कर रहा था। इस तरह तल्लीन होकर बातें कर रहा था, मानो बच्चा डाकण फूलां का ही हो। गोरी का कालजा दुःख और जलन के मारे फटने लग गया। अपने होने वाले बच्चे के साथ फूलां का कोई भी संबंध, कोई भी लेना-देना, उसे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था। नहीं सह सकती थी वह इस बात को। उसका रोम-रोम टीसने लगा। उसकी आँखों से नींद कोसों दूर चली गई। पीडा में डूबती उतराती हुई, वह रात भर जागती रही। कालिया सोया कि जागता रहा, उसे कुछ पता नहीं चला। दूसरे दिन, कालिया वक्त पर उठ गया और अपने रोजाना के कामों में लग गया। गोरी बिस्तर पर पडी रही। रात के दुःस्वप्न ने उसके मन और तन दोनों को झकझोर डाला था। उसको वेदना-सी महसूस होने लगी। वह कराहने लगी। कालिया दौड कर दाई को बुला जाया। पास-पडोस की सयानी औरतें भी आ गईं। कालिये को घर के बाहर कर आँगन में बैठा दिया गया। थोडी देर की दौड-भाग और हलचल के पश्चात् कालिये की कोठरी में आत्मा को आलोडत कर देने वाला, नन्हे कंठों का रोदन, ब्रह्मनाद की तरह गूँज उठा। राणी जी ने दाई के साथ-साथ अपनी खास नाईन को भी भेज दिया था। उसके साथ में, नवजात शिशु के हाथ-पाँवों में पहनाने के लिए, काले डोरे में पिरोए हुए नजरिए भी भेज दिए थे। बच्चे को बुरी नजर से बचाने के लिए। रोदन का स्वर सुनते ही, नाईन ने बाहर से ही, हल्ला मचाना शुरू कर दिया, ‘‘गौरीशंकर आया है, गौरीशंकर, राणी जी ने यही नाम दिया है।’’ कोठरी के भीतर से दाई चिल्लायी, ‘‘बावली किस का गौरीशंकर, यहाँ तो अकेली गौरी माता आई है। शंकर भगवान नहीं पधारे हैं।’’ गोरी अपना सुख-दुख भूलकर, निढाल, पसीने में नहाई, शांत-सी पडी थी। क्या फर्क पडता है, गौरी आये चाहे गौरीशंकर। उसकी तकदीर तो अब बदलने से रही। तभी, बाहर से कालिये का हर्ष और खुशी से भरा हुआ स्वर गूँजा, ‘‘इसका नाम फूलां रखूँगा, फूलां बाई, मेरी फूलां बेटी पधारी है।’’ सुन कर, गोरी झटके से जागी। आज तक जिसको भींत पर मांडी हुई, चून की बनी हुई, सौतन समझ कर अपना कालजा जलाती रही थी, वह माटी की पुतली उसकी सौतन नहीं थी, कालजे की कोर थी, वह। आत्मा को आलोडत करने वाला ब्रह्मनाद उसके कानों में गूँजने लगा। रेशम के लच्छों की तरह उसका मन आनन्द में घुलता-लिपटता चला गया। रात भर से जागी हुई, थकी हई, उसकी पलकें अब जाकर मूँदने लगीं। सुख की नींद, कौन नहीं सोना चाहता है भला। कैवत भी है, करम साजै जद बिना बजाई बाजै।
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