24.3.11

माटी की पुतली

माटी की पुतली


विधाता को अपनी सृष्टि की रचना करते समय भी, इतना सुख और संतोष नहीं मिला होगा। जब कालिया कुम्हार, अपने बत्तीस आँगळवाले चाक के माथे पर, नरम-नरम महीन गारे का पिण्डा रखकर, अपनी फेरणी से चाक को घुमा कर उसे गति देता था, जब उसका चाक, सृष्टि के चक्र की तरह अबाध गति के साथ अनवरत घूमने लगता था। उसकी हथेलियाँ और अँगुलियाँ उस पर से माट-मटके, बिलोवणे-घडे, बरबे-कुंडे और सिकोरे उतारने लगती थीं। तब वह तन्मय होकर उनको देखता जाता था। माटी के कच्चे बर्तनों की सोंधी-सोंधी सुगंध में खोया हुआ वह ब्रह्मानंद में लीन हो जाता था।
रचना का ऐसा अद्भुत आनन्द तो सचमुच विधाता को भी सात सृष्टि में नहीं मिला होगा। कारण भी था इसका। चाँदी का कडा पहने हुए, चाँदी के वरण के नाजुक पाँव, जो कालिये कुम्हार की गारे-माटी को रौंदते-सानते थे, वे विधाता को मयस्सर हीं नहीं थे। बावजूद पहने हुए कोमल गोरे हाथ, जो उस माटी को कूट-पीटकर, गूँथकर, उसके पिण्डे बनाते थे, वे विधाता ने देखे ही नहीं थे। मोह और ममता से भरी आतुर पलकें, जो उन बनते हुए बासण-भांडों में अपना जी उढेलती रहती थीं, उनकी तो, सात कल्पों में भी, विधाता ने कल्पना नहीं की थी। विधाता की ही अपनी बनाई हुई पुतली थी वह।
नाक में नथ, गले में मादळिया, कोहनी तक की बाँहों वाली काँचळी, हाथों में लाख की चूडयों का मूठिया, और पाँवों में चाँदी के कडे पहने, गोरी कुम्हारी ब्याह कर आई, उस पल, कालिये कुम्हार को कोठारी में चाँदणा ही चाँदणा हो गया। इतना चाँदणा हो गया कि, उसके घर के छप्पर और दीवारों को लाँघकर, वह आसपास के मुहल्ले-गुवाड में, सारे गाँव में फैल गया। सबकी जबान पर बस एक ही बात थी, ‘कितना बावला है विधाता ! रूप तूठने के लिए उसको काची माटी का यह टापरा ही मिला ? ये गोरी-गोरी कलाइयाँ और फूल जैसे हाथ, गारा और माटी कूटने-पीटने के लिए बना दिये उसने ? और रानियों जैसा यह रूप और चेहरा, आँवे का ताप और तेज धूप सहने के लिए, घड कर धर दिया।
गोरी कुम्हारी, सचमुच कालिये का जागा हुआ भाग थी।
इन्सान का भाग जागता है, तब उसका दिन उग जाता है। जब दिन उग जाता है तब उसका उजाला भी चारों ओर फैलता ही फैलता है। कालिये कुम्हार के बनाये हुए बर्तनों की माँग सब जगह होने लगी। एक से बढकर एक चीजें बनाता वह। पानी भरने के बडे-बडे भाण्डे, माट और गागर, हांडी, मटके, धडे और बिलोवणे, कलसे-कुण्डे, झारी और कुंजे, घी-तेल, अचार रखने की बरणी और इमरतबाण, दीये-धूपिये और चिलम यहाँ तक कि ईंटें और खपरैल तकायत वह बनाने लगा। दुनिया-संसार की सारी चीजों को बनाकर कालिया और गोरी ऐसे निहाल हो जाते, जैसे प्रजापति अपनी सृष्टि को बनाकर हुए। आवे में आँच लगाने के पहले गोरी भट्टी की पूजा करती। बर्तन पकने के बाद जब उसको खोला जाता, तो उसमें से एक-एक बर्तन सही, बिना टूटे या तडके हुए निकलता। चिकना, चमकदार, सुर्ख और रंगीन। गोरी को कभी टूटे-भाँजे बर्तनों को काम में नहीं लेना पडा। कुम्हार भांडे में राँधता है, यह कहावत झूठी हुई उसकी झोंपडी में।
इतना ही नहीं, सीयाले में खोद कर लाई गई गार के उसके माट-मटकों की माँग तो रावले तक में होने लगी। उनमें पानी ठंडा रहता था और उन पर बनाए गए गोरी के हाथों के फूल-पत्तियों के चितराम, उनको अनोखी अद्भुत सुन्दरता दे देते थे। रावले में, राणी जी के पास, इसी बहाने गोरी का आना-जाना हो गया। राणी जी गोरी को अपने पास बैठाकर उससे दो बातें भी करने लगीं।
सूरज भगवान की पूजा और अर्चना से गोरी का दिन शुरू होता, वह माटी और चाक के बीच, कब बीत जाता, पता नहीं चलता। रात को थके-हारे दो गरीब प्राणी, जब एक दूसरे का सुख-दुख ओढ-बिछा कर सोते तब उनके भाग्य पर विधाता को भी जलन होने लगती थी।
दिन पंख लगाकर उडते रहे। मौसम बदलते रहे। रुत आती और चली जाती। कालिये कुम्हार की गाय ब्याही, पास-पडोस के घरों में, लरडी और छाळी भी ब्याह गई। गली-मोहल्ले में, छोटे-छोटे कुत्ते-बिल्ली के बच्चे, धमा-चौकडी मचाते घूमने लगे। यहाँ तक कि, इधर-उधर के चार घरों में, उछल कूद मचाने वाली चुहिया का मन भी कालिये की झोंपडी में ऐसा रमा, कि उसने भी एक साथ पाँच-पाँच बच्चों को जण दिया। एक नहीं जणां तो, विधाता की बनाई, माटी की पुतली, कालिये कुम्हार की बहू गोरी ने कुछ नहीं जणां।
अणघड माट और अणघड मिनख, दोनों का कोई मोल नहीं होता है, मगर जिसकी घडाई में ही कोई कसर या खोट रह गया हो तो उसके दुर्भाग्य का कोई अंत ही नहीं होता है, क्योंकि वह न तो माट रहता है, न माटी। गोरी घूँघट में आँखें गीलीं करती रहती और मन ही मन साँवलिये सरदार से विनती करती कि, चार हाथ पाँव का मिनख माणस न सही, दो आँगल का चूसा सा ही दे दो, जिससे इस कोख का कलंक तो मिटे, आँचल चूंघाने की साध तो पूरी हो। मगर जब भगवान किसी की नहीं सुनना चाहता है, तब वह भी बहरा बन जाता है।
कालिया गोरी का मन खुश रखने का भरसक प्रयत्न करता। समझाता, बहलाता उसको, किस्से और बातें सुनाता, ‘देख यह माटी है ना, यह कुम्हार की बेटी होती है, कहती है, ‘जब तक मैं कुँवारी थी, तुमने मुझे बहुत मारा, पीटा और कूटा, फिर तूने आंवे की आग की साक्षी में मेरा परणै कर दिया। परणाऐ पीछे अब तू मुझे कूट कर दिखा तब मैं तुझे जानूँ ?’
गोरी सुनकर हँस पडती। परायी, परणाई हुई बेटी की तरफ तो कोई आँख उठा कर नहीं देखता है, छूने की तो दूर रही। गोरी सोचती कि अब तो विधाता भी उसके भाग को छू नहीं सकता है, कहाँ से दुबारा लिख देगा, संतान उसके करम में। जब तक घर के आँगन में चलने-भागने वाले छोटे-छोटे पैर नहीं हो, माँ कहकर बुलाने वाली तोतली आवाज न हो, तब तक घर, घर नहीं होता है। माट-मटके, दूध-दही, छाछ-राबडी, सब बेकार होते हैं, अगर इनको खाने वाले, ढुलाने वाले और तोडने-फोडने वाले, नन्हे हाथ नहीं हो। संतान के बिना नारी का जीवन ही व्यर्थ होता है।
दुनिया कुछ नहीं कहती थी, पर गोरी का अपना मन उसको ताने मारता रहता। ‘बाँझ जापा री चीस काँई जाणे ? बाँझ सूंठ रो सवाद कीं जाणे ? बाँझ रा टाबर होवै तो मरै ?’ बाँझ को पता नहीं क्या-क्या सुनना और सहना पडता है। बाँझ का, कोई मुँह भी नहीं देखता चाहता है। एक दिन उसके रूप का पानी भी उतर जाता है। भले ही उसके बच्चे न हों, बूढी तो फिर भी होती ही है बाँझ। सोच-सोच कर, रोती बिसूरती रहती थी गोरी।
गोरी का दुःख, पता नहीं कब और कैसे, कालिये को भी लग गया। लगा ही नहीं, उसके मन में भीतर तक पैठ गया।
कुम्हार, प्रजापति होता है। सब कुछ बना सकता है फकत एक जीवता-जागता, हँसता- खेलता, रोता-बोलता, पुतला नहीं बना सकता है। उसके बिना सृष्टि में घोर अँधेरा और उदासी छाई रहती है। वह सोचता, ‘कूवां खिणांया बावडी, छोड चल्या परदेश। लाख माट-मटके, गागर और घडे बना ले, एक दिन सब यहीं छूट जावेगा। कालिये का नाम लेने वाला, उसको याद करने वाला कोई नहीं रहेगा।’ यही दुनिया है, यहाँ जो दुःखी हैं वे एक दूसरे को देखकर जी लेते हैं और जो सुखी हैं उनका जीना एक दूसरे को देखकर मुश्किल हो जाता है।
एक दिन कालिये ने एक माटी की पुतली बना डाली। बनाकर उसे सुखाया, रंगों से सजाया, छोटे-छोटे कपडे पहनाए, यहाँ तक कि पीतल की बालियाँ, बोर, हार, चूडयाँ और चाँदी के कडे भी पहना दिए उसको। विधाता ने देखा। देखकर, उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। आठ आँखों और चार हाथों से देख-परख कर, जैसा चेहरा-मोहरा, रूप-श्ाृंगार और हाव-भाव नहीं बना सकते थे वे, वैसा इस दो आँखों में, दो हाथों वाले, मामूली से इन्सान, इस अदने से कुम्हार ने बना दिए। कहाँ से लाकर भर दिए इतने सपनों जैसे भाव उस पुतली की नन्ही आँखों की कटोरियों में, समझ नहीं पाये। समझते भी कैसे, वे भाव और वे सपने तो सिर्फ जन्म-जन्मांतर से दुःख और पीडा भोगती हुई, इन्सान की आँखों को ही मिलते हैं। कालिये ने देखा, और विधाता ने भी देखा उस पुतली को। नहीं देखा, तो गोरी कुम्हारी ने नहीं देखा, जो दिन-रात, सवेरे-शाम छाया की तरह कालिये के साथ लगी रहती थी। कब बनाया कालिये ने उस पुतली को, रात में सो जाने के पीछे या दिन में, या रावले में राणी जी के पास जाने के पश्चात्, कुछ भी नहीं जान पाई गोरी।
जब गोरी ने देखा उस पुतली को, तो देखकर सन्न रह गई। कालिया उसे छाती से चिपकाए, बैठा था। उससे धीरे-धीरे बातें कर रहा था। हँस रहा था।
गोरी को देखकर कालिया भी सन्न रह गया। कुछ नहीं बोला। पुतली को कहीं रख कर, अपने काम में लग गया। दिन भर दोनों अपना काम करते रहे। मतलब की बात से अधिक कोई भी कुछ नहीं बोला। रात को गोरी ने पूछा, ‘‘क्या बात है, चुप क्यों हो ?’’ तब भी कालिये ने जवाब नहीं दिया। सिर्फ इतना कहा, ‘‘कुछ नहीं’’, और पलट कर सो गया।
दूसरे दिन, कालिया फिर उसी पुतली को उठा लाया। उसे सामने रखकर काम करता रहा, उससे बातें करता रहा। उसे गोरी की न शंका आई, न शरम। गोरी इधर-उधर घूमती रही, देखती रही।
पता नहीं किस-किस का दुःख, किसको छू जाता है। राणी जी को, जितना कुम्हारी का रूप अच्छा लगता था, उसकी बातें भाती थीं, उतना ही दुःख भी सालता था। बांझड हर भाटे-पत्थर को देव मान कर पूजती है। हर साधु-फकीर के पैरों पर माथा टेकती है। राणी जी ने भी कितने ही गंडे-ताबीज करवा कर दिये गोरी को। रावले के पुजारी से पूजा-पाठ जप कराए। कोई अपनी सगी बहन के लिये नहीं करता है, इतना सब किया। कुम्हारी से तो रिश्ता भी क्या था ? महीने-बीस दिन में एक माट-मटका लेने भर का रिश्ता था।
कुम्हारी को राणी जी कभी-कभी अपने मन की बात कह दिया करती थी, ‘‘गोरी, इन मरद-माणसों की बात तुम नहीं समझोगी। तुम लोग ठहरे सीधे-सादे गरीब मिनख। धणी एक लुगाई से धापा-धाया रहता है। मरद-माणस की जात औकात देखनी हो, तो हमारे रावलों और महलों में देखो। छप्पन भोग देखकर आदमी का पेट भर जाता है, सब खा नहीं पाता है। हमारे महलों और ठिकानों के शेर, न्हारों तो हाल है कि छप्पन भोग परोसे हों, तब भी इनका जी नहीं भरता है। गंडकों की तरह, गाँव की जूठी हांडियों और थालियों में, मुँह मारते रहते हैं। गरीब की झोंपडी में, लुगाई सारी जन्दगी नई रहती है। महलों और रावलों में, लुगाई एक रात में पुरानी पड जाती है। दोष किसको दें, मरद की जात ही ऐसी होती है। फकर् इतना ही है, कि गरीब अपनी हद में बदफैली करता है, और समरथवान की बदफैली की कोई हद नहीं होती ?’’
सुन कर गोरी सहम गई। उसने पूछा, ‘राणी जी, ऐसा भी कदै होवे है ? मैंने तो सुना है महाराज सा घणे ही भले और सतपुरुष हैं। दिन-रात आफ पीछे डोलते रहते हैं।’’ बोल कर शरमा गई गोरी।
राणी जी बोली, ‘‘बावली, चनों में भी काणा चना होता है। मैं, तेरे महाराज सा की बात नहीं कर रही थी। गाँव-दुनिया की, दूसरों की बात कर रही थी। घणकरे राजा-रजवाडे जैसे होते हैं, उनकी बात कर रही थी।’’
गोरी की आँखों से टप-टप आँसू निकल पडे। लुगाई की बाण और सुभाव ऐसा ही होता है। दूसरे की बात चलती है, अपने ऊपर ले बैठती है। बोली, ‘‘राणी सा, मुझे डर है, मेरा कुम्हार भी किसी दूसरी के पीछे पडा है।’’
राणी जी चौंकीं। उनकी नजर गोरी के आँसुओं पर गई, फिर उसके चेहरे की तरफ। तनिक हँस कर बोलीं, ‘‘हट पगली, बैर भर कर लायी गई हो, ऐसा रूप पाया है तुमने। कौन गैला होगा जो तुमको छोड कर दूसरी के पीछे पडेगा।’’
गोरी ने अपनी अपना कलेजा खोल कर रख दिया, बोली, ‘‘राणी जी, आज कल तो वो मेरे तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखता है। दिन भर उससे बातें करता है। उसको साथ रखता है। यहाँ तक कि उसका नाम भी रख दिया, फूलां बाई।’’
सुख-दुःख तो मन का होता है, जोडी होती है, दोनों की। सुख के पीछे दुःख, और दुःख के पीछे सुख, आता रहता है। यहाँ तो एक दुःख के पीछे दूसरा भी दुःख ही आ गया था। मरद का जोबन पान-फूल, मालन का जोवन कुआँ, सुना तो यही था। कालिये का जोबन फूलां हो गई थी और उसका मन हो गया था कुआँ।
न जाने कहाँ खोया रहता था। कुआँ, तेरी माँ मरी, क मरी, जी ई, क जी ई। कुएँ जैसा हो गया था बिल्कुल। जैसा, मुँह डालकर कह दो, वैसी प्रतिध्वनि सुनाई पडती। गोरी कहती, ‘‘खाना खा लो’’, तो खा लेता, कहती, ‘‘सो जाओ’’, तो सो जाता।
गोरी के मन में आवाँ सा जलता रहता, तरह-तरह के बरतन-भांडे, कच्चे-पक्के, बात-बेबात उसमें दिन-रात पकते रहते। वह सोचती, ‘‘सौत तो चून की भी बुरी होती है, भींत पर मांडी हुई सौत भी बटका भरती है, यहाँ तो पूरे चार हाथ-पाँव की अच्छी-भली चार कपडे और पाँच गहने पहनी-ओढी हुई सौत थी। आँख, कान, नाक, ओंठ सब कुछ थे। ओंठ थे तो दाँत भी जरूर उगे होंगे। बटका काटते कितनी देर लगेगी मालजादी को ?’’
कालिया भी न जाने कैसा सा हो गया था। न पहले जैसी बातें करता था, न हँसी-दिल्लगी। उसकी नजर ही बदल गई थी। आदमी की नजर ही स्त्री की जान होती है। एक नजर देख लेता है, तो स्त्री में जी पड जाता है। नजर उठाकर नहीं देखता है, तो स्त्री बेजान हो जाती है, माटी की पुतली। आदमी की नजर ही उसका मन होती है।
राणी जी लाख समझातीं गोरी को, कि माटी की पुतली है, इससे क्या डरना, पर गोरी के समझ में यह बात नहीं आती। कहती, ‘‘राणी जी, देखियेगा, एक दिन विधाता इसमें जरूर जान डाल देगा और विधाता जान डाले या नहीं, इससे भी कुछ नहीं होता है। आदमी का मन जब टूट कर चाहने लगता है तब पत्थर में भी जान पड जाती है। माटी की मूरत भी बोलने लग जाती है। आदमी जब नजर फेर लेता है, तब जीती-जागती स्त्री भी पत्थर की हो जाती है, शिला बन जाती है।’’
गोरी भी जैसे शिला बनती जा रही थी। जिस आवें में बर्तन नहीं पकाने हों, उसमें कुम्हार आँच तक नहीं दिखाता है। कुम्हार का हाथ लगे बिना माट-मटका हो चाहे कुम्हारी, सब माटी का लोंदा बने रहते हैं।
दो भाटे एक जगह चुपचाप पडे रह सकते हैं। दो मिनख एक जगह रहते हैं, तो बोले-बतळाए बिना नहीं रह सकते, क्योंकि मिनख का मन, मिनख से बात करके ही भरता-पसीजता है। मिनख रौ मन मिनख सूं बाताँ कर-र पसीजै। कुम्हार का आवाँ नहीं जले, ऐसा भी नहीं होता है।
कालिया गारा-माटी लाता, गोरी उसको कूटती, पीटती, हाथों से गूँथ कर उसके पिण्डे बनाती। चाक चलता और उस से माट-मटके, बर्तन-भाण्डे उतरते। सृष्टि का चक्र रुकता हो तो कुम्हार का चाक रुके। एक फरक जरूर पड गया। कालिये को नरम-नरम माटी के पिण्डों में पहले जैसी सोंधी सुगंध नहीं आती थी। वह अपने बर्तनों को पहले की तरह मूंधा होकर निरखता भी नहीं था। गोरी से उसकी बातचीत होने लग गई थी। फूलां उनकी बातचीत के बीच में नहीं आती थी। पर उसका अस्तित्व हर समय छाया रहता था। कभी-कभी कालिया गोरी को अपने साथ थाली पर बैठा कर खिलाता, मगर एक कौर फूलां की तरफ भी जरूर बढा देता था। बिना फूलां को खिलाए, रोटी उसके हलक के नीचे नहीं उतरती थी। कुछ राणी जी का समझाना, कुछ अपनी मजबूरी, गोरी ने जंदगी से समझौता मंजूर कर लिया था। फूलां का वजूद उसको नहीं दुःखता था, कालिये की बातें भी नहीं दुःखती थीं, पर उसके अपने मन के छाले फूटते रहते थे।
एक दिन हिम्मत कर पूछ बैठी कालिये से, ‘‘तुमने फूलां को बनाया, मुझे बताया क्यों नहीं ?’’
कालिया बोला, ‘‘मैंने सोचा तू हँसेगी, गुस्सा होगी, डाँटेगी, बनाने नहीं देगी।’’
गोरी बोली, ‘‘तू, इतना चाहता है उसको ?’’
कालिये ने मंजूर किया, ‘‘हाँ।’’
‘‘मुझसे भी ज्यादा ?’’ गोरी पूछे बिना नहीं रह सकी।
कालिया हिचका, फिर बोला, ‘‘बरोबर-बरोबर।’’
गोरी ने आगे कुछ नहीं पूछा। सोचा, ‘‘राणी जी ठीक ही कह रही थी। मरद माणस फतरत से ही नूगरा होता है। औरत लाख जान छिडक दे, अपना सारा कुछ निछावर कर दे उस पर, उसको हिस्सा बाँट करने में जरा भी देर नहीं लगती है। जरा भी कदर नहीं करता है, किसी की।’’
रावळे की रीत, रावळे में ही निभती है। गाँवडे के गीत, गाँवडे में ही गाए जाते हैं। कालिये का चाक चलता रहा और बखत का चाक भी।
जिस विधाता को कुम्हार-कुम्हारी की जिंदगी पर रश्क आता था, जलन होती थी और जिसने अपने अदृश्य हाथों से उनके भाग में दुःख ही मांड दिया था, उसको भी, आखिर एक दिन दया आ ही गई।
गोरी कुम्हारी उम्मीद से हो गई।
गोरी की जिंदगी में बहुत बदलाव आ गया।
कोख का कलंक, बाँझपन का अभिशाप, भगवान ने मिटा दिया। घर-आँगन में नन्हे-नन्हे पाँव दौडेंगे, भागेंगे, खुशियों भरी किलकारियाँ गूँजेंगी। उसकी झोंपडी, राणी जी के रावले से भी अधिक, सुखमय और गुलजार हो जाएगी। सब कुछ भुलाकर, उसने कालिये को दिल से माफ कर देने का फैसला कर लिया।
कालिया भी गोरी का खूब ख्याल रखने लगा। उसको मेहनत का कोई भी काम नहीं करने देता था और जो भी उसका मन करता वही चीज उसको खाने के लिए लाकर देता था। राणी जी की तो सचमुच ही बहन बन गई थी गोरी। वे उसको तरह-तरह का सामान देतीं, साथ में दुनिया भर की हिदायतें भी। रावले की खास दाई से उन्होंने गोरी के प्रसव और सार-संभाल की सारी बातें तय कर ली थीं। आने वाले छोटे कुम्हार का नाम तक गोरी के कानों में डाल दिया। कहा, ‘‘कोई कालिया, भूरिया नहीं चलेगा। गौरीशंकर, नाम होगा उसका।’’ गोरी मन ही मन निहाल हो गई थी।
फिर से मन लगाकर, गोरी गारे-माटी को कूटने, पीटने लगी। कालिया मना करता तो मुस्कुरा देती, कहती ‘‘आदमियों के समझने की बातें नहीं हैं ये सब।’’ कालिये की अँगुलियाँ और हथेलियाँ जब चाक पर घूमतीं तो उसे लगता, वे हाथ और अँगुलियाँ छोटे कुम्हार की हैं, जो इस चाक को चला रहा है। उसका मन चाक के साथ-साथ घूमता रहता।
प्रसव का समय समीप आता जा रहा था। गोरी खोए हुए सुख और आने वाले आनन्द में लिपटती जा रही थी। साँवलिये सरदार के घर देर जरूर थी, मगर अँधेर बिल्कुल नहीं था। सोच-सोच कर, वह साँवलिये को हाथ जोडती रहती। एक कारण और था, दिन भर आँखों के सामने पडी, छाती जलाने वाली, फूलां उसको आजकल कहीं दिखलाई नहीं पडती थी। पता नहीं, कालिया कहाँ रखकर, भूल गया था उसको।
एक रात, अचानक गोरी की नींद टूट गई।
कालिया जाग रहा था। छाती पर पडी हुई फूलां से वह धीरे-धीरे बातें कर रहा था। गोरी को झटका लगा। आश्चर्य और दुःख में नहा गई। कालिये की बातें पूरी तौर से सुनाई नहीं दे रही थी। मगर वह फूलां के साथ बातें, होने वाले बच्चे के विषय में ही कर रहा था। इस तरह तल्लीन होकर बातें कर रहा था, मानो बच्चा डाकण फूलां का ही हो।
गोरी का कालजा दुःख और जलन के मारे फटने लग गया। अपने होने वाले बच्चे के साथ फूलां का कोई भी संबंध, कोई भी लेना-देना, उसे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था। नहीं सह सकती थी वह इस बात को। उसका रोम-रोम टीसने लगा। उसकी आँखों से नींद कोसों दूर चली गई। पीडा में डूबती उतराती हुई, वह रात भर जागती रही। कालिया सोया कि जागता रहा, उसे कुछ पता नहीं चला।
दूसरे दिन, कालिया वक्त पर उठ गया और अपने रोजाना के कामों में लग गया। गोरी बिस्तर पर पडी रही। रात के दुःस्वप्न ने उसके मन और तन दोनों को झकझोर डाला था। उसको वेदना-सी महसूस होने लगी। वह कराहने लगी। कालिया दौड कर दाई को बुला जाया। पास-पडोस की सयानी औरतें भी आ गईं। कालिये को घर के बाहर कर आँगन में बैठा दिया गया।
थोडी देर की दौड-भाग और हलचल के पश्चात् कालिये की कोठरी में आत्मा को आलोडत कर देने वाला, नन्हे कंठों का रोदन, ब्रह्मनाद की तरह गूँज उठा। राणी जी ने दाई के साथ-साथ अपनी खास नाईन को भी भेज दिया था। उसके साथ में, नवजात शिशु के हाथ-पाँवों में पहनाने के लिए, काले डोरे में पिरोए हुए नजरिए भी भेज दिए थे। बच्चे को बुरी नजर से बचाने के लिए।
रोदन का स्वर सुनते ही, नाईन ने बाहर से ही, हल्ला मचाना शुरू कर दिया, ‘‘गौरीशंकर आया है, गौरीशंकर, राणी जी ने यही नाम दिया है।’’
कोठरी के भीतर से दाई चिल्लायी, ‘‘बावली किस का गौरीशंकर, यहाँ तो अकेली गौरी माता आई है। शंकर भगवान नहीं पधारे हैं।’’
गोरी अपना सुख-दुख भूलकर, निढाल, पसीने में नहाई, शांत-सी पडी थी। क्या फर्क पडता है, गौरी आये चाहे गौरीशंकर। उसकी तकदीर तो अब बदलने से रही।
तभी, बाहर से कालिये का हर्ष और खुशी से भरा हुआ स्वर गूँजा, ‘‘इसका नाम फूलां रखूँगा, फूलां बाई, मेरी फूलां बेटी पधारी है।’’
सुन कर, गोरी झटके से जागी। आज तक जिसको भींत पर मांडी हुई, चून की बनी हुई, सौतन समझ कर अपना कालजा जलाती रही थी, वह माटी की पुतली उसकी सौतन नहीं थी, कालजे की कोर थी, वह।
आत्मा को आलोडत करने वाला ब्रह्मनाद उसके कानों में गूँजने लगा। रेशम के लच्छों की तरह उसका मन आनन्द में घुलता-लिपटता चला गया। रात भर से जागी हुई, थकी हई, उसकी पलकें अब जाकर मूँदने लगीं। सुख की नींद, कौन नहीं सोना चाहता है भला।
कैवत भी है, करम साजै जद बिना बजाई बाजै।

13.3.11

बेटी-भगवान की सर्वोत्तम कृति


बेटी-भगवान की सर्वोत्तम कृति



आज मैं बहुत खुश हूँ, और क्यो ना हूँ, मुझे धरती मे जाने का अवसर मिला है, वह धरती जिसकी मैं बस कल्पना करती थी,, ऐसा नहीं है की मैं यहा खुश नहीं थी, लेकिन धरती पर जाने का एहसास ही मुझे गुदगुदा देता है यहाँ तो हर तरफ बस खुशियां है, ज़रा धरती पे जा कर देखू तो सही, मुझे भी तो पता हो मानव रूप क्या है , मानव संसार क्या है,, बस रोमांच और खुशियो का एहसास लिए मैं माँ के गर्भ मे आ गयी !!



मेरा वजूद कुछ ही दिन का है लेकिन मैं महसूस कर सकती हूँ, मेरी दुनिया अभी सिर्फ मेरे माता पिता है, दोनों बहुत ही खुश है मेरे आने से और क्यो न हो मैं उनकी पहली संतान जो हूँ, मेरी माँ हर वक़्त मेरे ख़यालो मे खोयी रहती है, मेरे पिता भी हर वक़्त माँ का खयाल रखते है, मैं बस जल्दी से दुनिया मे आना चाहती हूँ ताकि अपने माता पिता को हर तरह की खुशिया दे सकूँ !! आज पापा ने माँ को कहा है कि तैयार रहना कल सुबह, हम लोग डॉक्टर के पास जाएंगे, चेकअप के लिए !!



माँ सुबह जल्दी से उठी डॉक्टर के पास जाने कि तैयारी करने लगी, पापा भी ऑफिस से जल्दी आ गए कितना खयाल था दोनों को मेरा,, डॉक्टर मे अच्छी तरह से जाच कि, इसके बाद डॉक्टर मेरी माँ और पिता जी को अपने केबिन मे ले गया और पिता जी से कुछ बताने लगा मैं समझ तो सकती न थी लेकिन महसूस कर रही थी , माँ का चेहरा उतरता जा रहा था और पिता जी खामोश थे,, मेरा मन घबराने लगा, मेरे माँ बाप / मेरी दुनिया / मेरे सब कुछ क्यो उदास है डॉक्टर ने क्या कहा सब जानने चाहती थी लेकिन कुछ समझ मे नहीं आता था , हम लोग क्लिनिक से वापस आ गए लेकिन लगता था सब बदल गया माँ का चेहरा उदास, पापा भी कुछ खाये बिना वापस ऑफिस चले, मेरा नन्हा सा मन कुछ नहीं समझ पा रहा था कि डॉक्टर न ऐसा क्या बता दिया है !! पापा जो पहले हर वक़्त मेरे बारे मे माँ से बात किया करते थे एकदम खामोश हो गए !! मेरा नन्हा मन बस हर वक़्त भगवान से प्रार्थना करता कि ए भगवान मेरे माता पिता की उलझन दूर कर दे उनकी खुशियो को वापस ला दे !!



कुछ दिनो से माँ लगातार डॉक्टर के पास जा रही थी , कभी अकेले, कभी पापा के साथ डॉक्टर उसकी तरह तरह कि जांच करते थे, फिर एक दिन माँ और पापा दोनों साथ मे डॉक्टर के पास गए, डॉक्टर बोला आप परेशान न हों, टेस्ट रिपोर्ट अच्छी है कोई परेशानी नहीं है बस इनको (माँ को ) एक दिन के लिए एड्मिट करना पड़ेगा आप जब चाहे आ सकते है लेकिन ज़्यादा देर करना ठीक नहीं है !! मैं बहुत खुश हो गयी, एक दिन एड्मिट होने से मेरी माँ की परेशानिया दूर हो गाएँगी,, माँ फिर से हंसने लगेगी , पिताजी खुश रहेंगे, लेकिन यह क्या माँ का चेहरा तो और उतर गया वह क्यो खुश नहीं है हे भगवान यह क्या पहेली है !!



आज पापा ने ऑफिस से वापस आ कर माँ को बोला कल चलना है एड्मिट होने फिर सब ठीक हो जाएगा, बस यह सुनते ही माँ रोने लगी, उसके आँसू रुकने का नाम ही न लेते थे,, पिता जी उसको समझा रहे थे, हाँ मेरी भी समझ मे कुछ आ रहा था, पिता जी कह रहे थे की हमारा फैसला सही है, यह लड़की है, और तुम को तो मालूम है की परिवार मे सब को लड़का चाहिए और मुझे भी, ज़रा समझ से काम लो अभी कुछ नहीं बिगड़ा है परिवार का फैसला ना मानना शायद तुमको भारी पड़ जाये,, अब मेरे समझ मे सारी बाते आ चुकी थी,, मेरे परिवार के दुख का कारण मैं थी जिसने अभी जनम भी नहीं लिया था, मैंने किसी का क्या बिगाड़ दिया अभी तो मुझे गर्भ मे आए कुछ दिन ही हुए फिर यह सब क्यो सिर्फ इस लिए की मैं बेटी हूँ !! मेरा मन बेहद दुखी था मैं समझ नहीं पा रही थी की लड़की होना पाप क्यो है शायद बेटियो ने दुनिया मे हमेशा गलत काम किए होंगे इस ही लिए दुनिया हमसे नफरत करती है,, हे भगवान आप ने मुझे लड़की क्यो बनाया क्यो पैदा होने से पहले ही मुझे नफ़रतों का शिकार बनने के लिए छोड़ दिया आप को जवाब देना होगा !!



अचानक मुझे महसूस हुआ जैसे कोई दिव्य शक्ति मेरे पास आई और कहा “बेटी तुम भगवान की सर्वोत्तम कृति हो, भगवान ने तुम्हें ममता / दया / करुणा / प्यार के साथ हिम्मत और ताकत भी दी है, उसने तुम्हें माँ / बहन / बेटी और पत्नी का रूप दिया है और सारा संसार इन रिश्तो मे समाया है ! तुमने तो भगवान दे दिये इन सभी रूपो को साकार किया है, कभी सीता बन कर राम के साथ वनवास लिया जो तुझे नहीं दिया गया था, कभी आसिया बन कर मूसा को फिराऊँ जैसे ज़ालिम से बचा कर पाला, कभी मरियम बनकर ईसा को जनम दिया, खातीजा बनकर मुहम्मद के सामने खड़ी हुयी, बेटी फातिमा बनकर उम्मे अबिहा का खिताब पाया, बहन जेनब बनकर कर्बला मे हुसैन के साथ रही,, तेरे पास तो गर्व करने के लिए सब कुछ है, बदकिस्मत है वह लोग जो तेरे मुकाम को तेरी महानता को नहीं जानते है, तू क्यो दुखी होती है, दुख और शर्म तो इनको आनी चाहिए जो इतना बड़ा पाप करने जा रहे है !”



यह सब सुन कर मेरा दुख जाता रहा, मैंने कहा ए मेरे मालिक, मुझे गर्व है की तुमने मुझे लड़की बनाया, बस जिन पवित्र औरतों का नाम तुमने लिया है उनही के सदके मे मेरे पिता को इस पाप से बचा लो, मेरी माता को जीवन भर की ग्लानि से बचा लो, मुझे खुद अपने पास वापस बुला लो, मैं एक बेटी हो कर कैसे अपने माँ / बाप को दुखी देख सकती हूँ उनके सर पर पाप का / आत्मग्लानि का बोझ कैसे देख सकती हूँ, मेरे मौला मेरी जान ले ले, मगर मेरा माता पिता पर कोई बोझ न डाल !

औरत आखिर क्या है ?क्यों नहीं कहती की मै माँ हूँ


औरत एक शरीर से ज़्यादा क्या है ?
उसकी फ़ितरत , उसकी सोच और उसकी हक़ीक़त क्या है ?
उसका रिश्ता और उसका रूतबा समाज में क्या है ?
उसकी मंज़िल क्या है और उसे वह कैसे पा सकती है ?
अपने रास्ते में वह कौन सी रूकावटें देखती है ?
एक औरत के रूप में वह अपने अतीत और वर्तमान को कैसे देखती है ?
बेटी , बहन , बीवी और माँ , इन रिश्तों के बारे में , ख़ास तौर पर माँ के रूप के बारे में एक औरत की सोच और उसका जज़्बा क्या होता है ?
अगर इन सब बातों को आज तक कलाकार नहीं जान पाए तो यह उनकी कमी तो है ही लेकिन औरत की भी कमी है कि आख़िर वह आज तक दुनिया को बता क्यों नहीं पाई कि वह महज़ एक शरीर नहीं है । अगर उसने बताया होता तो आज औरत का रूतबा हमारे समाज में कुछ और होता ।
औरत वास्तव में क्या है ?
इसे अगर सचमुच ठीक तौर पर कोई बता सकता है तो वह है ख़ुद औरत ।
औरत बताए और मर्द सुने और समझे ।
माँ के रूतबे तक पहुंचने से पहले एक औरत जिन मुश्किल इम्तेहानों से गुज़रती है और जो कुछ भी वह महसूस करती है , वह सब अब हमारे सामने आ जाना चाहिए ताकि अगर पहले औरत को न जाना जा सका हो तो न सही लेकिन उस गलती को अब तो सुधार लिया जाए । अगर ऐसा हो गया तो यक़ीनन तब हमारा भविष्य वैसा भयानक और अंधेर न होगा जैसा कि अतीत में रह चुका है और वर्तमान चल ही रहा है ।
औरत केवल एक शरीर नहीं होती ।
दुनिया को अगर बदलना है तो उसकी सोच को बदलना ही होगा और यह काम भी औरत को खुद ही करना होगा । नेक मर्द उसका साथ जरूर देंगे क्योंकि वे भी तो जानना चाहते हैं कि औरत आखिर है क्या ? आज महिला दिवस हे कम से कम एक वादा अपनी पत्नी से करो की मै ओरतों की रक्षा जान जोखिम में डाल कर भी करूँगा,एक वादा और बहुत सी दुआंए उस वादे के पीछे आयेगी |

11.3.11

सेक्स का जिक्र आते ही क्षणभर में


सेक्स को हमारे यहां हमेशा से ही टैबू माना गया है। सेक्स पर बात करना। उसे जग-ज़ाहिर करना या आपस में शेयर करना। हर कहीं सेक्स प्रतिबंधित है। सेक्स का जिक्र आते ही क्षणभर में हमारी सभ्यता-संस्कृति ख़तरे में पड़ जाती है। मुंह पर हाथ रखकर सेक्स की बात पर शर्म और गंदगी व्यक्त की जाती है। सेक्स को इस कदर घृणा की दृष्टि से देखा जाता है, मानो वो दुनिया की सबसे तुच्छ चीज हो।
खुलकर सेक्स का विरोध करते हुए मैंने उन सभ्यता-संस्कृति रक्षकों को भी देखा है जिन्हें सड़क चलती हर लड़की में (गज़ब का माल) दिखाई देता है। जिन्हें देखकर उनके हाथ और दिमाग न जाने कहां-कहां स्वत: ही विचरण करने लगते हैं। जिन्हें रात के अंधेरे में नीली-फिल्में देखने में कतई शर्म नहीं आती और नीली-फिल्मों के साथ रंगीन-माल भी हर वक्त जिनकी प्राथमिकता में बना रहता है। परंतु रात से सुबह होते-होते उनका सेक्स-मोह (सेक्स-टैब) में बदल जाता है।
हमारे पुराणों तक में लिखा है कि यौन-सुख स्त्री के लिए वर्जित, पुरुष के लिए हर वक्त खुला है। पुरुष आजाद है हर कहीं (मुंह मारने) के लिए। यही कारण है स्त्री को अपना सेक्स चुनने की आजादी हमारे यहां नहीं है।
यह सही है कि हम परिवर्तन के दौर से गुजऱ रहे हैं। हर दिन, हर पल हमारे आस-पास कुछ न कुछ बदल रहा है। हम आधुनिक हो रहे हैं। यहां तक कि टीवी पर दिखाए जाने वाले कंडोम, केयरफ्री, ब्रा-पेंटी के विज्ञापनों को भी हम खुलकर देख रहे हैं। एक -दूसरे को बता भी रहे हैं। मगर सेक्स को स्वीकारने और इस पर अधिकार जताने को अभी-भी हमने अपनी सभ्यता-संस्कृति के ताबूतों में कैद कर रखा है। हमें हर पल डर सताता रहता है कि सेक्स का प्रेत अगर कहीं बाहर आ गया तो हमारी तमाम पौराणिक मान्यताएं-स्थापनाएं पलभर में ध्वस्त हो जाएंगीं। हम पश्चिमी भोगवाद के शिकार हो जाएंगें। इसलिए जितना हो सके कोशिश ·रो अपनी मां-बहनों, पत्नियों को सेक्स से दूर रखने और उन्हें अपनी इच्छाओं से अपाहिज बनाने की।
हमारे पुराणों तक में लिखा है कि यौन-सुख स्त्री के लिए वर्जित, पुरुष के लिए हर वक्त खुला है। पुरुष आजाद है हर कहीं के लिए। यही कारण है स्त्री को अपना सेक्स चुनने की आजादी हमारे यहां नहीं है।
गज़ब की बात यह है स्त्री-सेक्स पर प्राय: वे लोग भी अपना मुंह सींये रहते हैं जो स्त्री-विमर्श के बहाने (स्त्री-देह) के सबसे बड़े समर्थक बने फिरते हैं। स्त्री जब अपने सुख के लिए सेक्स की मांग करने लगती है तो परंपरावादियों की तरह उनके तन-बदन में भी आग-सी लग जाती है। इन स्त्री-विमर्शवादियों को सेक्स के मामले में वही दबी-सिमटी स्त्री ही चाहिए जो मांग या प्रतिकार न कर सके।
पता नहीं लोग यह कैसे मान बैठे हैं कि हम और हमारा समाज निरंतर बदल या विकसित हो रहा है। आज भी जब मैं किसी स्त्री को दहेज या यौन शोषण के मामलों में मरते हुए देखती हूं तो मुझे लगता है हम अभी भी सदियों पुरानी दुनिया में जी रहे हैं।
मुझे एक बात का जवाब आप सभी से चाहिए आखिर जब पुरुष अपने बल पर अंदरूनी और बाहरी सारे सुख भोगने को स्वतंत्र है तो यह आजादी स्त्रियों को क्यों और किसलिए नहीं दी जाती? क्या इच्छाएं सिर्फ पुरुषों की ही गुलाम होती हैं, स्त्रियों की नहीं?

8.3.11

ताकि न टूटे विवाह

आज समाज में धड़ल्ले से विवाह टूट रहे हैं। विवाह के समय मां-बाप और समाज के मन में भय रहता है- "यह विवाह निभेगा भी कि नहीं।" पति-पत्नी ही नहीं, परिवार और समाज की भी आकांक्षा रहती है कि हर वैवाहिक जीवन निभना चाहिए, क्योंकि वैवाहिक सम्बन्ध का विच्छेद होना पति-पत्नी ही नहीं, परिवार और समाज के लिए भी दुखदायी होता है। बच्चे प्रभावित होते ही हैं, परंतु इन दिनों बच्चे होने से पूर्व ही विवाह विच्छेद की नौबत आ रही है। कुछ विवाह तो छह महीने या दो महीने के अंदर ही टूटने के कगार पर आ जाते हैं।

हाल ही में मलेशिया की एक खबर- "शादीशुदा जोड़ों में तलाक की बढ़ती दर की खबरों से चिंतित मलेशिया के तेरेंगनू प्रांत की सरकार ने सम्बन्ध तोड़ने के दृढ़ संकल्पी लोगों को मुफ्त में दूसरा हनीमून मनाने का प्रस्ताव दिया है। इस हनीमून पैकेज का खर्च प्रांत सरकार उठाएगी। जिन लोगों के सम्बन्ध खराब होने की अभी शुरूआत हुई है, उन्हें सामान्य परामर्श दिया जाएगा, लेकिन जो तलाक की कगार पर पहुंच गए हैं, उन्हें दूसरे हनीमून पर भेजा जाएगा।" खबर पर नजर टिक गई। खबर पढ़कर मन में विचार आया कि मलेशिया हो या भारत, अमरीका या इंग्लैंड, समाज विवाह टूटने देना नहीं चाहता। इसलिए उन्हें परिवार और कोर्ट द्वारा भी बार-बार सुधरने का मौका दिया जाता है। दरअसल दोनों को एक-दूसरे से बहुत अपेक्षाएं होती हैं। दोनों एक-दूसरे को अपने तक ही सीमित रखना चाहते हैं। व्यक्ति स्वतंत्र जीव है। उसे बंधन भी चाहिए और खुलापन भी। कभी-कभी दोनों खुलेपन को कबूल कर लेते हैं।

फिर उन्हें बंधन भी चाहिए, जो सुख देता है। मलेशिया की सरकार द्वारा "हनीमून पैकेज" का विचार सराहनीय कदम है। अपने परिवारों में भी बुजुर्गो द्वारा ऎसी व्यवस्था होती रही है। नौजवान दम्पती के बीच हो रही अनबन को भांपकर घर के बुजुर्ग उन्हें बाहर घूमने की सलाह और पैसे भी देते रहे हैं। उन्हें विश्वास रहता है कि घर-गृहस्थी की उबाऊ और एकरस दिनचर्या से बाहर जाकर इन लोगों का मन परिवर्तित होगा। आपसी सम्बन्ध मधुर बनेंगे। पारिवारिक न्यायालयों और परामर्श केन्द्रों की भी कोशिश रहती है कि तलाक चाहने वाली जोडियां अपना मनोमालिन्य समाप्त कर पुन: प्रेम बंधन में बंध जाए। इसलिए बार-बार उन्हें एकांत में मिलने की सलाह देते हैं।

विवाह के तुरंत बाद हनीमून (पश्चिमी चलन) अब भारत में भी प्रचलित हो रहा है। इस रस्म का भी विशेष महत्व है। विवाह के बाद एक-दूसरे को अच्छी तरह जानने-पहचानने के लिए एकांत चाहिए। विवाह पूर्व एक-दूसरे को जानने-पहचानने वाली जोडियां भी विवाह के बाद हनीमून पर जाती हैं। "हनीमून" किसी भी सम्बन्ध को प्रगाढ़ बनाने का प्रतीक बन गया है। घर के नए सेवक-सेविका के आने पर जब घर की मालकिन उसके प्रति विशेष प्रेम दिखाती है तो कहा जाता है अभी उनका हनीमून चल रहा है। राजनीतिक दलों के रिश्तों के बीच भी हनीमून का प्रारम्भिक समय होता है। मलेशिया सरकार की खबर का शीर्षक पढ़कर यही अनुमान था कि किसी का दूसरा विवाह हुआ होगा। तभी तो दूसरे हनीमून की बात लिखी थी, परंतु उन्होंने तो विवाह को स्थायी बनाने की तरकीब खोजी है। प्रशंसनीय कदम है। भारत में सात जन्मों तक साथ रहने की बात कही जाती है। किसी सुखी और सफल जोड़ी से भी पूछिए- "क्या आप अगले जनम भी साथ रहेंगी/ रहेंगे?"


जबाब होगा- "एक ही जनम बहुत हो गया।" तात्पर्य यह कि एक जनम भी निभाना आसान नहीं रहा है। हजार विघ्न- बाधाएं आती हैं वैवाहिक जीवन में। मन नहीं मिलता, संस्कार भिन्न होता है, एक-दूसरे के द्वारा वैवाहिक धर्म नहीं निभाया जाता, कम खर्च में परिवार चलाना मुश्किल। बाधाएं ही बाधाएं। पर अधिकांश जोडियां आजीवन लड़ते-झगड़ते भी साथ रहती हैं। दरअसल लड़ना-झगड़ना भी परिवार हित के लिए होता है। इसलिए क्षम्य होता है।

पति-पत्नी के बीच लड़ाइयां और तलाक विश्व स्तरीय समस्या है। हर समाज अपने-अपने तरीके से इसका हल सोचता है। उन्हें सफलता भी मिलती है, परंतु मलेशिया के तेरेंगनू प्रांत की सरकार द्वारा "दूसरा हनीमून पैकेज" अपने आप में अनोखा और आकर्षक है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनका यह प्रयास रंग लाएगा। दूसरे हनीमून से लौटकर तलाक की कगार पर पहुंची अधिकांश जोडियां पुन: जुड़कर रहने लगेंगी। उन जोडियों और समाज के लिए भी उपयोगी होगा। दूसरे देशों के लिए अनुकरणीय भी। जहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं वहां भी लड़ाई-झगड़े होते हैं। दोनों अपने-अपने श्रम की कमाई खाते हैं। इसलिए तलाक लेने में अधिक सोच-विचार नहीं करते। सच तो यह है कि विवाह में परस्पर निर्भरता भी आवश्यक है। वह भावनात्मक ही क्यों न हो।

प्रश्न: मेरे बहुत नज़दीकी सम्बन्ध अक्सर टूटे हैं, ऐसा क्यों होता है?


धरती पर मानवीय जीवन काल में अपने समयों से संबंधित अपनी संभावनाओं की सीमाओं के भीतर ही, मनुष्य ने अपने चारों ओर के भौतिक एवं सामाजिक जगत से समायोजन स्थापित करने का प्रयत्न किया है। परिस्थितियां हमेशा समायोजन एवं संतुलन के लिए नवीनतम प्रयत्नों की मांग करती रहती हैं। इसी के चलते परिवर्तन का चक्र चलता रहता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक परिवर्तन मनुष्य जाति 
के जीवन का कठोर तथ्य है। किसी दृष्टि से ये सभी सामाजिक परिवर्तन अपनी तरह से ठीक भी नहीं हैं। हर एक समाज नए परिवर्तनों एवं प्रभावों को स्वीकार तो करता है, साथ ही मानव मूल्यों को भी बनाए रखना आवश्यक है।
माना जाता है कि परिवार बच्चे का समाजीकरण करने वाली सबसे पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था व इकाई है। बच्चा सबसे पहले मां की गोद में खेलता है और उसके बाद परिवार के अन्य सदस्यों की। वह अपने परिवार के सदस्यों का अनुकरण कर उनकी भाषा, आचरण, रहन-सहन, खान-पान आदि की विधियां सीखता है।
कहते हैं परिवार बच्चे के सद्गुणों की पाठशाला है। जिन कार्यों को करने की परिवार में स्वीकृति प्राप्त होती है, बच्चा उन्हें ही करता है और बचपन में पड़े यही सुसंस्कार बच्चे के अंदर स्थायी हो जाते हैं।
पुराने कृषि मूलक संयुक्त परिवार उद्योगों व व्यापार के विकास के चलते तीव्रता से टूट रहे हैं। रोजगार की खोज में परिवार के सदस्य स्थान परिवर्तित करने के लिए बाध्य हैं और उप परिवारों की स्थापना हो रही है। इस प्रकार जो लोग पैतृक और संयुक्त परिवार से दूर जा रहे हैं, वे जीवन की नई शैलियां, नई आदतें और नई दृष्टियों को विकसित कर रहे हैं।
आज संयुक्त परिवार से एकल परिवार की नियति देखने को मिल रही है वहीं महानगरीय जीवन में एकल परिवार से भी एकल व्यक्ति तक जीवन सीमित होकर रह गया है अर्थात् टी.वी., रेडियो और नेट के आगे पूरा दिन व्यक्ति व्यतीत कर देता है।
दूसरा सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आज कितने रिश्ते-नाते टूट रहे हैं और उनसे जुड़े शब्द समाप्त हो रहे हैं, जैसे चाचा-चाची, मौसा-मौसी, भतीजा भतीजी, ताऊ ताई, चचेरा, ममेरा आदि क्योंकि एकल परिवार में व्यक्ति अब एक ही बच्चा पैदा कर रहा है चाहे वह लड़का या लड़की। इन सब बातों के चलते आने वाली सदी में उपयुक्त शब्दों और रिश्ते-नातों का महत्त्व ही समाप्त हो जायेगा।
इस दृष्टि से भारत में डेमोग्राफिक ट्रांजिशन की स्थिति भी जल्द आयेगी अर्थात् भारत में 2050 के आस-पास वृद्धों की आबादी अधिक हो जायेगी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के इकाॅनामिक्स और डेमोग्राफी के प्रोफेसर डेविड ब्लूम के मुताबिक भारत में सन् 1950 में प्रति महिला 6 (छः) बच्चों का था। वह अब घटकर 2.7 हो गया है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में युवा कम और वृद्ध अधिक होंगे।
नई सोच और नए समाज में परिस्थितियां भयंकर होती जा रही हैं। इससे संस्कृति और तीज-त्योहारों का भी फीकापन दिखाई दे रहा है। जब माता-पिता को एक ही संतान होगी अर्थात एक ही लड़का या लड़की होगी तो उसके लिए रक्षाबंधन, भाई-दूज, भाभी के साथ खेले जाने वाली होली आदि त्योहारों का क्या महत्त्व रह जायेगा।
इसी प्रकार रामायण और महाभारत आदि गं्रंथों की बातें बच्चों को झूठी और काल्पनिक लगेगी जबकि ’रामायण‘ भारतीय समाज का आदर्श रूप है। इसी में हमें आदर्श पिता, आदर्श पुत्रा, आदर्श पति, आदर्श पत्नी, आदर्श भाई, आदर्श मित्रा आदि के बारे में पता चलता है।
शब्दों और रिश्तों के मरने के साथ ही संस्कृति पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे हैं। ’लिव इन रिलेशनशिप‘ और ’समलैंगिकता‘ जैसी नई संस्कृति और समाज का जन्म हो रहा है।
इन सब समस्याओं को देखते हुए आने वाले समय में सुविचारों की बाढ़ को लोगों तक पहुंचाना आवश्यक हो गया है और यही सुविचार लोगों को जाग्रत तथा आंदोलित कर देते हैं। विचार संप्रेषण के लिए आज प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया जैसे नवीन माध्यम अपना कार्य कर रहे हैं। इन पर ध्यान देना आवश्यक है।
खुले समाज के इस युग में परंपरागत समाज को मानना आवश्यक हो गया है। यदि ऐसा न किया गया तो इसके परिणाम अति भयंकर होंगे।


क्या इन टोटको से भर्ष्टाचार खत्म हो सकता है ? आप देखिए कि अन्ना कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं? शरद पवार भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार पर बनी जीओएम (मंत्रिसमूह) में फला-फलां और फलां मंत्री हैं। इसलिए इस समिति का कोई भविष्य नहीं है। पवार को तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना चाहिए। पवार का बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर पवार के मंत्रिमंडल से बाहर हो जाने से भ्रष्टाचार