धरती पर मानवीय जीवन काल में अपने समयों से संबंधित अपनी संभावनाओं की सीमाओं के भीतर ही, मनुष्य ने अपने चारों ओर के भौतिक एवं सामाजिक जगत से समायोजन स्थापित करने का प्रयत्न किया है। परिस्थितियां हमेशा समायोजन एवं संतुलन के लिए नवीनतम प्रयत्नों की मांग करती रहती हैं। इसी के चलते परिवर्तन का चक्र चलता रहता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक परिवर्तन मनुष्य जाति
के जीवन का कठोर तथ्य है। किसी दृष्टि से ये सभी सामाजिक परिवर्तन अपनी तरह से ठीक भी नहीं हैं। हर एक समाज नए परिवर्तनों एवं प्रभावों को स्वीकार तो करता है, साथ ही मानव मूल्यों को भी बनाए रखना आवश्यक है।
माना जाता है कि परिवार बच्चे का समाजीकरण करने वाली सबसे पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था व इकाई है। बच्चा सबसे पहले मां की गोद में खेलता है और उसके बाद परिवार के अन्य सदस्यों की। वह अपने परिवार के सदस्यों का अनुकरण कर उनकी भाषा, आचरण, रहन-सहन, खान-पान आदि की विधियां सीखता है।
कहते हैं परिवार बच्चे के सद्गुणों की पाठशाला है। जिन कार्यों को करने की परिवार में स्वीकृति प्राप्त होती है, बच्चा उन्हें ही करता है और बचपन में पड़े यही सुसंस्कार बच्चे के अंदर स्थायी हो जाते हैं।
पुराने कृषि मूलक संयुक्त परिवार उद्योगों व व्यापार के विकास के चलते तीव्रता से टूट रहे हैं। रोजगार की खोज में परिवार के सदस्य स्थान परिवर्तित करने के लिए बाध्य हैं और उप परिवारों की स्थापना हो रही है। इस प्रकार जो लोग पैतृक और संयुक्त परिवार से दूर जा रहे हैं, वे जीवन की नई शैलियां, नई आदतें और नई दृष्टियों को विकसित कर रहे हैं।
आज संयुक्त परिवार से एकल परिवार की नियति देखने को मिल रही है वहीं महानगरीय जीवन में एकल परिवार से भी एकल व्यक्ति तक जीवन सीमित होकर रह गया है अर्थात् टी.वी., रेडियो और नेट के आगे पूरा दिन व्यक्ति व्यतीत कर देता है।
दूसरा सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आज कितने रिश्ते-नाते टूट रहे हैं और उनसे जुड़े शब्द समाप्त हो रहे हैं, जैसे चाचा-चाची, मौसा-मौसी, भतीजा भतीजी, ताऊ ताई, चचेरा, ममेरा आदि क्योंकि एकल परिवार में व्यक्ति अब एक ही बच्चा पैदा कर रहा है चाहे वह लड़का या लड़की। इन सब बातों के चलते आने वाली सदी में उपयुक्त शब्दों और रिश्ते-नातों का महत्त्व ही समाप्त हो जायेगा।
इस दृष्टि से भारत में डेमोग्राफिक ट्रांजिशन की स्थिति भी जल्द आयेगी अर्थात् भारत में 2050 के आस-पास वृद्धों की आबादी अधिक हो जायेगी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के इकाॅनामिक्स और डेमोग्राफी के प्रोफेसर डेविड ब्लूम के मुताबिक भारत में सन् 1950 में प्रति महिला 6 (छः) बच्चों का था। वह अब घटकर 2.7 हो गया है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में युवा कम और वृद्ध अधिक होंगे।
नई सोच और नए समाज में परिस्थितियां भयंकर होती जा रही हैं। इससे संस्कृति और तीज-त्योहारों का भी फीकापन दिखाई दे रहा है। जब माता-पिता को एक ही संतान होगी अर्थात एक ही लड़का या लड़की होगी तो उसके लिए रक्षाबंधन, भाई-दूज, भाभी के साथ खेले जाने वाली होली आदि त्योहारों का क्या महत्त्व रह जायेगा।
इसी प्रकार रामायण और महाभारत आदि गं्रंथों की बातें बच्चों को झूठी और काल्पनिक लगेगी जबकि ’रामायण‘ भारतीय समाज का आदर्श रूप है। इसी में हमें आदर्श पिता, आदर्श पुत्रा, आदर्श पति, आदर्श पत्नी, आदर्श भाई, आदर्श मित्रा आदि के बारे में पता चलता है।
शब्दों और रिश्तों के मरने के साथ ही संस्कृति पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे हैं। ’लिव इन रिलेशनशिप‘ और ’समलैंगिकता‘ जैसी नई संस्कृति और समाज का जन्म हो रहा है।
इन सब समस्याओं को देखते हुए आने वाले समय में सुविचारों की बाढ़ को लोगों तक पहुंचाना आवश्यक हो गया है और यही सुविचार लोगों को जाग्रत तथा आंदोलित कर देते हैं। विचार संप्रेषण के लिए आज प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया जैसे नवीन माध्यम अपना कार्य कर रहे हैं। इन पर ध्यान देना आवश्यक है।
खुले समाज के इस युग में परंपरागत समाज को मानना आवश्यक हो गया है। यदि ऐसा न किया गया तो इसके परिणाम अति भयंकर होंगे।
1 टिप्पणी:
good job dear
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