ये रिश्ता क्या कहलाता है....?
काश! मै तुम से कह पाती, मुझे तुम से कितनी मोहब्बत है. इतनी की जब, तुम्हारे माथे पर झिलमिलाती पसीने की कोई बूँद दिखती है तो जी में आता है, उसे अपने लबों से खुद में जज़्ब कर लूं, इतनी की जब, तुम्हारी उदास आँखों की खल्वतों में झांकती हूँ तो लगता है की इसे अपनी हंसी के झाड़ -फानूस से रोशन कर दूं; इतनी की जब, तुम्हारे माथे पर जमी सफ़र की गर्द देखती हूँ तो जी में ख्याल आता है कि, उसे अपने दुपट्टे से पोंछ डालूँ!; इतनी की जब, खुद को देखूं तो बस तुम ही तुम नज़र आते हो. तुम्हे पता है, जब तुम साथ होते हो तो धड़कने बेकाबू नहीं होती, मगर एहसास होता है जैसे मै ज़िन्दाहूँ!
खुद को कई बार तुम्हारे पंखों से परवाज़ करते देखा है, मैंने नील-गगन में!
मगर क्या तुम जानते हो, "हम क्या हैं?" पति-पत्नी हम हो नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारी निगाह में यह रिश्ता बोसीदा और पुराना है, "लिव-इन" तुम हम रह नहीं सकते क्योंकि तुम इतने आज़ाद ख्याल हुए नहीं हो और मेरे संस्कार मुझे इजाज़त नहीं देते; रहा सवाल मोहब्बत का, "झुटलाया नहीं जा सकता कि वह हम में नहीं है, अब.....??? दोस्त तुम होना नहीं चाहते क्योंकि जानते हो तुम "मै अपने दोस्तों को खुद को छूने तो दूर बेकार बातें पूछने की भी इजाज़त नहीं देती!!!!"
तुम ही बताओ! क्या नाम दे दें इसे? एक दिन मैंने तुम से पूछा था, तुमने कहा था "सिर्फ एहसास है ये, रूह से महसूस करो/हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो!" मै भी मुतम'इन हो कर खुद को उड़ा उड़ा महसूस करने लगी थी ; लगता था, कितनी खुश-किस्मत हूँ मै! मुझे अपने प्रेमी में, बैरन, पुश्किन या बर्नोर्ड शा, से कम कुछ नज़र ही नहीं आता था, पर उस दिन, जब जीत सर ने कहा था, "आओ पृथा एक एक कप काफी हो जाए" और सर झुका कर मैंने बगैर तुम्हे इजाज़त मांगने वाली नज़रों से देखे, उनके पीछे अपने क़दम बढ़ा दिए थे, वापसी में कितनी जोर से चीखे थे तुम, "तुम तो धंधा कर लो पृथा!" खून के आंसू, आँखों में ही रोक पलट आई थी मै! दादी के अलफ़ाज़ बेसाख्ता कानो में गूँज रहे थे, " औरत की शान तो बस चादर में ही है बेटी! रब ने उसे सिर्फ जिस्म ही तो बनाया है, वह कितनी ही ऊंची उठ जाए, कितनी ही पढ़ लिख जाए, मर्द को बस वह अपनी पेशानी से थोड़े नीचे ही अच्छी लगती है. मालिक ने औरत को समर्पण की फितरत दी है, और मर्द को हाकिम बनाया है." अगर तुमने उससे खुद के समर्पित हो जाने का हक नहीं लिया तो तुम फितरतन जिस दीवार पर टिकी हो उसी का सहारा ले लोगी, और वह (फितरी तौर पर, जल कुढ़ कर ) तुम्हारा इस्तेमाल कर तुम्हें फेंक एक नई औरत तलाशेगा, और फिर उसको अपने शरीक-इ-ज़िंदगी बना धीरे से फुसफुसाएगा,"जानती हो! गंदी औरत है वह!" बहुत कम मर्दों में औरत को ऐसे मोहब्बत करने की ताक़त होती है, जिसे जिस्मानी मोहब्बत नहीं कहते, सही मानो में ऐसे मर्द ही, खलील जिब्रान हो जातें हैं! मर्द कम फ़रिश्ते!!! .......दस् औरतों से टिका मर्द, मर्द ही कहलाता है, और दो मर्द ही ज़िंदगी में आ जाएं न! तो, हम खुद को ही नापसंद करने लग जातीं है !"
आज महसूस हुआ दादी सही थी, वाकई जीत सर से नोट्स हासिल करने के लिए तुम्ही ने तो मुझे उनसे मिलवाया था, और जब मेरी ज़हानत की तारीफ़ करते करते उन्होंने तुम्हे नोट्स दिए थे, तब तो तुम्हे कुछ नहीं लगा था, शुक्र है रब का, बोट क्लब में साथ साथ खड़े होकर कोफी पीते वक्त जब तुम मुझे हाथ लगाने की मिन्नत कर रहे थे, मैंने तुम्हे छूने नहीं दिया! हालांकि पिंकी ने मुझे कहा था,"क्या पृथा! तुम अपने नाम की तरह ही पुरानी हो! हाथ नहीं लगाने दोगी तो, तुमसे शादी कैसे करेगा वह!" (तब पता नहीं था, कि शादी तुम्हारी नज़र में आउट आफ फैशन है, पर तुम्हारी मर्जी के बगैर कहीं चले जाने पर तुम आसमान सर पर उठा लेते हो ) समीकरण बहुत तेज़ी से बदल गए हैं दोस्त! आज जाना कि चादर में सुकून है, बहुत सुकून! मै कोई धर्मात्मा नहीं हूँ ,जो अपना शरीर ,मन, आत्मा और प्यार तुम्हे दान दे दूं !अगर कोई सामाजिक सम्बन्ध कायम करने की हिम्मत है तो ही मुझसे कुछ भी चाहने की इच्छा करना, वरना दादी ने कहा है, "बेटी! मर्द वही होते हैं जो ख़म फटकार के औरत को इज्ज़त, घर और मोहब्बत दे सकते हैं, वरना औरत का साथ तो भ....ड....(जाने दो!) को भी मिल जाता है,
और हां! एक बात सुन लो! मुन्नू हलवाई तुम्हारी तरह इंजिनीअर नहीं, मगर उसे मेरे रहन सहन, तौर तरीकों से कोई गुरेज़ नहीं , वह मुझे परदे में भी रखेगा और पढने भी देगा! मैंने खूब सोंच समझ कर फैसला लिया है कि जब दादी के अनुसार मेरी फितरत ही मोहब्बत है, तो क्यों न ये किसी सही आदमी को दी जाए, वह मुझसे शादी करने को तैयार है, हम अगले माह की दो को शायद तुम्हारा मूह भी मीठा करवा दे, "क्योंकि दादी ने कहा है, आदमी डिग्री या काम से बड़ा नहीं बनता, बल्कि ज़हानत या आदमियत से बड़ा बनता है,"
सुनो! तुम दुआ करना उप्पर लिखा सारा प्यार मैं मुन्नू से कर सकूं, शायद आगे की ज़िंदगी जीने में आसानी हो जाएगी! और हाँ! कभी कभी दादी के पास आ जाया करना, मेरे जाने के बाद वह बहुत अकेली हो जाएँगी! शायद तुमसे खुश होकर वह तुम्हे भी बता दें कि "सही मर्द" क्या होता है, भई! मेरी ज़िंदगी तो उन्ही की सलाहों से सुधरी है, "शुक्रिया दादी" कहे बगैर मत आना ,उन्हें अच्छा नहीं लगता,, हाँ! दोस्त तो तुमने मुझे कभी कहा नहीं, पर अगर दुशमन नहीं मानते तो मेरी सलाह मान कर देखना! एक बार दादी के पास ज़रूर जाना, ज़िन्दगी ठीक ठाक जीने का हुनर आ जाएगा! अच्छा अब ख़त्म करती हूँ
कहा सुना माफ़ कर देना.
तुम्हारी
मैं .
1 टिप्पणी:
wah.....bahut khoob likha hai tumne....aaj ki generation ki sooch aur hamare sanskaro ko dhyan mai rakhte hue....keep it up
एक टिप्पणी भेजें