"यह जमानत-अमानत-खयानत का भी बड़ा लफड़ा है। यह काम तो जेब काटने से भी तगड़ा हैं। जनता की अमानत में खयानत करने वाले नेताओं-अफसरों की खबरों से अखवार रहते हैं। पर हमारी कोई नहीं सुनता पिछली सफलता के कारण मैं जेल में था। मेरी प्रेमिका मिलने आती थी। इस चक्कर में एक और हवालाती से उसकी आंखें लड़ गई और अब वह उसकी है।"
"यार जो बीत गया, उसका रोना धोना छोड़ । इन विवाहों के ऎसे ही गीत होते हैं। खैर यह बता, जमानत का समझौता मंजूर है?" उनमें समझोैता हो गया। नेताओं का ही लो जमानत बचाने के लिये कितनी धूल फांकनी पड़ती है। माना कि सड़के पक्की बन गई है, पर धूल, मिट्टी, कंकर गbों से मुक्ति कहां मिली है। अभी जो चुनाव हुआ है, उसे ही देख लो। जिस पार्टी के नेताओं ने गरीबी, महंगाई, आतंकवाद और भ्रष्टाचार हटाने की गांरटी (जमानत) बार बार देश की जनता को दी है, उसका उम्मीदवार भी अपनी जमानत नहीं बचा सका। बाकी तीस चालीस छुटभैयों की तो क्या बात करें। उस दिन एक पराजित बंधु मुंह लटकाए बैठे थे।
पूछा- हार का गम सता रहा है क्या? जवाब मिला- हार तो पहले से ही तय थी। गम तो जमानत न बचने का है। अगर वह राशि मिल जाती तो सरकारी ठेके से गम की दवा तो खरीद लेता। सरकार के नियम ही उलटे हैं। अन्ना जी भी इस बिंदु की तरफ अनशन नहीं कर रहे हैं। जमानत तो जीतने वाले की जब्त की जानी चाहिए। क्योंकि भरपाई के लिये उसके रास्ते चारों दिशाओं में खुल जाते हैं। हारने वालों को मुआवजा मिलना चाहिए, जैसे दुर्घटना या आपदा आने पर मिलता है। "क्यों भैया? नेताओं पर इतनी मेहरबानी क्यों?" माना। पर यह जरूरी नहीं है कि जो ड्राइविंग सीट पर बैठता है, वह दुर्घटना का शिकार होता ही है। पर यह जरूरी है कि जो जनता से संघर्ष कर अपनी जमानत बचा लेता है और कुर्सी पर बैठ जाता है। वह कुर्सी से उतरते ही जमानत के लिये अदालत की ओर दौड़ता हैं। जमानत होने की उम्मीद होती है कि मुंडे सिर पर ओलावृष्टि हो जाती है। अदालत कह देती है, इत्ते से काम के लिये हमारे पास आने की जरूरत नहीं। पुन: मूषिकोभव! देखो, तिहाड़ में या पहाड़ में कितने "कुर्सी गिरे जमानतार्थी जमा है। ऎसे पीडित ही मुआवजों में प्राथमिकता के अधिकारी हैं। अजब गजब चुनाव या संवैधानिक सुधारों की बातें फिर करना, पहले जमीन से जुड़ें इन मसलों पर विचार करें, वे सब जो खाने में या भूखे रहने में, मौन रहने या बोलने में विश्वास करते हैं।
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