उत्प्रेरक के रूप में राजनीति की रासायनिक प्रक्रिया तो कर रहे हैं, मगर खुद अछूआ ही रहना चाहते हैं
हाल ही अन्ना हजारे की टीम के प्रमुख सिपहसालार अरविंद केजरीवाल ने यह कह कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है कि अन्ना संसद से भी ऊपर हैं और उन्हें यह अधिकार है कि वे अपेक्षित कानून बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाएं। असल में वे बोल तो गए, मगर बोलने के साथ उन्हें लगा कि उनका कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो गया है तो तुरंत यह भी जोड़ दिया कि हर आदमी को अधिकार है कि वह संसद पर दबाव बना सके।
यहां उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे पर शुरू से ये आरोप लगता रहा है कि वे देश की सर्वोच्च संस्था संसद को चुनौती दे रहे हैं। इस मसले पर संसद में बहस के दौरान अनेक सांसदों ने ऐतराज जताया कि अन्ना संसद को आदेशित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें अथवा किसी और को सरकार या संसद से कोई मांग करने का अधिकार तो है, मगर संसद को उनकी ओर से तय समय सीमा में बिल पारित करने का अल्टीमेटम देने का अधिकार किसी को नहीं है। इस पर प्रतिक्रिया में टीम अन्ना यह कह कर सफाई देने लगी कि कांग्रेस आंदोलन की हवा निकालने अथवा उसकी दिशा बदलने के लिए अनावश्यक रूप से संसद से टकराव मोल लिए जाने का माहौल बना रही है। वे यह भी स्पष्ट करते दिखाई दिए कि लोकपाल बिल के जरिए सांसदों पर शिंकजा कसने को कांग्रेस संसद की गरिमा से जोड़ रही है, जबकि उनकी ऐसी कोई मंशा नहीं है। एक आध बार तो अन्ना ये भी बोले कि संसद सर्वोच्च है और अगर वह बिल पारित नहीं करती तो उसका फैसला उनको शिरोधार्य होगा। लेकिन हाल ही हरियाणा के हिसार उपचुनाव के दौरान अन्ना हजारे के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर इस विवाद को उछाल दिया है। वे साफ तौर पर कहने लगे कि अन्ना संसद से ऊपर हैं।
अगर उनके बयान पर बारीकी से नजर डालें तो यह केवल शब्दों का खेल है। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। जनता की ओर से चुने जाने के बिना किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने आपको जनता का प्रतिनिधि कहे। जनता का प्रतिनिधि तो जनता के वोटों से चुने हुए व्यक्ति को ही मानना होगा। यह बात दीगर है कि जनता में कोई समूह जनप्रतिनिधियों पर अपने अधिकारों के अनुरूप कानून बनाने की मांग करने का अधिकार जरूर है। यह साफ सुथरा सत्य है, जिसे शब्दों के जाल से नहीं ढंका जा सकता। इसके बावजूद केजरीवाल ने अन्ना को संसद से ऊंचा बता कर टीम अन्ना की महत्वाकांक्षा और दंभ को उजागर कर दिया है।
उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो इस बात से भी खुल कर सामने आ गई है कि राजनीति और चुनाव प्रक्रिया में सीधे तौर पर शामिल होने से बार-बार इंकार करने के बाद भी हिसार उपचुनाव में खुल कर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने पर उतर आई। सवाल ये उठता है कि अगर वह वाकई राजनीति में शुचिता लाना चाहती है तो दागी माने जा रहे हरियाणा जनहित कांग्रेस के कुलदीप विश्नोई और इंडियन नेशनल लोकदल के उम्मीदवार अजय चौटाला को अपरोक्ष रूप से लाभ कैसे दे रही है? एक ओर वह इस उपचुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का सर्वे करार दे रही है, दूसरी अपना प्रत्याशी उतारने का साहस नहीं जुटा पाई। अर्थात वे रसायन शास्त्र के उत्प्रेरक की भांति राजनीति में रासायनिक प्रक्रिया तो कर रही है, मगर खुद उससे अलग ही बने रहना चाहती है। कृत्य को अपने हिसाब से परिफलित करना चाहती है, मगर कर्ता होने के साथ जुड़ी बुराई से मुक्त रहना चाहती है। इसे यूं भी कहा जा सकता है मैदान से बाहर रह कर मैदान पर वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। अफसोसनाक पहलु ये है कि इस मसले पर खुद टीम अन्ना में मतभेद है। टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्नता जाहिर कर चुके हैं। इसी मसले पर क्यों, कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान पर हुए हंगामे के बाद अन्ना व उनके अन्य साथी उससे अपने आपको अलग कर रहे हैं।
कुल मिला कर अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आ गया है। राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही उनके ताजा रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है। देशभक्ति के जज्बे साथ उनके पीछे हो ली युवा पीढ़ी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रही है।
-tejwanig@gmail.com
हाल ही अन्ना हजारे की टीम के प्रमुख सिपहसालार अरविंद केजरीवाल ने यह कह कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है कि अन्ना संसद से भी ऊपर हैं और उन्हें यह अधिकार है कि वे अपेक्षित कानून बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाएं। असल में वे बोल तो गए, मगर बोलने के साथ उन्हें लगा कि उनका कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो गया है तो तुरंत यह भी जोड़ दिया कि हर आदमी को अधिकार है कि वह संसद पर दबाव बना सके।
यहां उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे पर शुरू से ये आरोप लगता रहा है कि वे देश की सर्वोच्च संस्था संसद को चुनौती दे रहे हैं। इस मसले पर संसद में बहस के दौरान अनेक सांसदों ने ऐतराज जताया कि अन्ना संसद को आदेशित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें अथवा किसी और को सरकार या संसद से कोई मांग करने का अधिकार तो है, मगर संसद को उनकी ओर से तय समय सीमा में बिल पारित करने का अल्टीमेटम देने का अधिकार किसी को नहीं है। इस पर प्रतिक्रिया में टीम अन्ना यह कह कर सफाई देने लगी कि कांग्रेस आंदोलन की हवा निकालने अथवा उसकी दिशा बदलने के लिए अनावश्यक रूप से संसद से टकराव मोल लिए जाने का माहौल बना रही है। वे यह भी स्पष्ट करते दिखाई दिए कि लोकपाल बिल के जरिए सांसदों पर शिंकजा कसने को कांग्रेस संसद की गरिमा से जोड़ रही है, जबकि उनकी ऐसी कोई मंशा नहीं है। एक आध बार तो अन्ना ये भी बोले कि संसद सर्वोच्च है और अगर वह बिल पारित नहीं करती तो उसका फैसला उनको शिरोधार्य होगा। लेकिन हाल ही हरियाणा के हिसार उपचुनाव के दौरान अन्ना हजारे के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर इस विवाद को उछाल दिया है। वे साफ तौर पर कहने लगे कि अन्ना संसद से ऊपर हैं।
अगर उनके बयान पर बारीकी से नजर डालें तो यह केवल शब्दों का खेल है। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। जनता की ओर से चुने जाने के बिना किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने आपको जनता का प्रतिनिधि कहे। जनता का प्रतिनिधि तो जनता के वोटों से चुने हुए व्यक्ति को ही मानना होगा। यह बात दीगर है कि जनता में कोई समूह जनप्रतिनिधियों पर अपने अधिकारों के अनुरूप कानून बनाने की मांग करने का अधिकार जरूर है। यह साफ सुथरा सत्य है, जिसे शब्दों के जाल से नहीं ढंका जा सकता। इसके बावजूद केजरीवाल ने अन्ना को संसद से ऊंचा बता कर टीम अन्ना की महत्वाकांक्षा और दंभ को उजागर कर दिया है।
उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो इस बात से भी खुल कर सामने आ गई है कि राजनीति और चुनाव प्रक्रिया में सीधे तौर पर शामिल होने से बार-बार इंकार करने के बाद भी हिसार उपचुनाव में खुल कर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने पर उतर आई। सवाल ये उठता है कि अगर वह वाकई राजनीति में शुचिता लाना चाहती है तो दागी माने जा रहे हरियाणा जनहित कांग्रेस के कुलदीप विश्नोई और इंडियन नेशनल लोकदल के उम्मीदवार अजय चौटाला को अपरोक्ष रूप से लाभ कैसे दे रही है? एक ओर वह इस उपचुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का सर्वे करार दे रही है, दूसरी अपना प्रत्याशी उतारने का साहस नहीं जुटा पाई। अर्थात वे रसायन शास्त्र के उत्प्रेरक की भांति राजनीति में रासायनिक प्रक्रिया तो कर रही है, मगर खुद उससे अलग ही बने रहना चाहती है। कृत्य को अपने हिसाब से परिफलित करना चाहती है, मगर कर्ता होने के साथ जुड़ी बुराई से मुक्त रहना चाहती है। इसे यूं भी कहा जा सकता है मैदान से बाहर रह कर मैदान पर वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। अफसोसनाक पहलु ये है कि इस मसले पर खुद टीम अन्ना में मतभेद है। टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्नता जाहिर कर चुके हैं। इसी मसले पर क्यों, कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान पर हुए हंगामे के बाद अन्ना व उनके अन्य साथी उससे अपने आपको अलग कर रहे हैं।
कुल मिला कर अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आ गया है। राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही उनके ताजा रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है। देशभक्ति के जज्बे साथ उनके पीछे हो ली युवा पीढ़ी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रही है।
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